बुधवार, 30 जनवरी 2013
इस मर्ज की गालिब कोई दवा तो बताओ!
हर बार सोचता हूं कि इस बार क्या नया लिखूं. अधिकारी से लेकर नेता तक सब जनता की सेवा में लगे हैं, आखिर मुङो भी कुछ करना चाहिए. मैं भी इस अभागे देश का अभागा नागरिक हूं. अपने देश का कुछ तो भला करूं. उम्र बीत जाती है कई लोग यह सोच ही नहीं पाते कि उन्हें देश के लिए, समाज के लिए या खुद के लिए करना क्या है? मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैंने इस निष्कर्ष को शीघ्र ही पा लिया. एक दिन चिंतन-मनन में डूबा देख कर श्रीमती जी ने बाउंसर मारा ‘कोई गंभीर बात है?’ मैंने कहा ‘बस यूं ही सोच रहा था कि कुछ अलग लिखूं, कुछ नया लिखूं.’ श्रीमती जी का जवाब हाजिर था ‘लिखना है तो लिखो, सोच क्यों रहे हो? लोगों से भी कम मतलब लोगों की बात लिख कर कूदते रहते हो, लिखना है तो ऐसा लिखो जो सबके मतलब का हो.’
मुङो ‘मतलब’ तो समझ में आ गया पर हमने बहुत सोचा कि ऐसा क्या लिखूं कि जो सबके मतलब का हो! यह सोचते-सोचते मैंने इतना सोचा कि अब मुङो लगने लगा है कि मुङो ‘सोचने’ की बीमारी हो गयी है. कभी-कभी तो मैं यह सोचने लगता हूं कि मैं सोच क्यों रहा हूं? सच बताऊं तो कभी-कभी यह भी सोचता हूं कि सोचना कम कर दूं क्योंकि बंद तो नहीं कर सकता. सोचने-सोचने के क्रम में ही कई ऐसी पुस्तकें भी पढ़ डाली, जिनमें मेरी कभी रुचि नहीं रही. इस दौरान कहीं पढ़ने को मिला कि दुनिया में हर मर्ज की दवा बताते हुए उससे बचने के उपाय हाजिर हैं. कुछ में तो दर्द बाद में आता है, दवा पहले तैयार रहती है बल्कि सच कहा जाये तो दवा होती है इसीलिए दर्द ईजाद किया जाता है.
पिछले दिनों शहर में एक पुस्तक मेला भी लगा था. कई पुस्तकें स्टॉलों पर चमक रही थीं - दोस्त कैसे बनायें, लोगों को प्रभावित कैसे करें, अच्छा व सफल मैनेजर कैसे बनें, करोड़पति बनने के सौ सफल उपाय, अच्छा व प्रभावकारी वक्ता कैसे बनें, सुखद-सफल दांपत्य जीवन के नुस्खे, महान कैसे बनें? वगैरह-वगैरह. यह सब देख कर मैं सच बताऊं तो हतोत्साहित हो गया. इतनी सारी जानकारियों पर तो पहले ही लिखा जा चुका है. इसके अलावा भी तमाम अटरम-सटरम विषयों पर भी किताबें मौजूद हैं लेकिन हमने आजतक ऐसी कोई किताब नहीं देखी जिसमें कोई ऐसी तरकीब बतायी गयी हो कि आप अच्छा इंसान कैसे बनें? दुनिया में औने-पौने-बौने व्यक्तित्व के लोगों का धमाल है. अच्छे लोग दिखते ही नहीं! ऐसा तो नहीं कि अच्छे लोग भगवान के यहां से बन के आने ही बंद हो गये? मुङो तो लग रहा कि यह मुद्दा सभी के मतलब का है, बाकी आप जैसा उचित समङों. वैसे मैं इस निष्कर्ष पर अभी नहीं पहुंच पाया हूं कि क्या वाकई मैंने सोचने का ‘मजर्’ पाल लिया है? अगर ऐसा है तो, इस मर्ज की गालिब कोई दवा तो बताओ!
बुधवार, 9 जनवरी 2013
पुराने की कशिश और नयेपन की तलाश
तीन दशक पहले की बात होगी, हम चार भाई-बहन किताबें एक के बाद एक उपयोग कर लेते थे. इस कड़ी में पड़ोसी घरों के बच्चे भी शामिल थे. बड़े भैया की किताबें मैं, फिर मेरे से छोटी वाली बहन और उसके बाद सबसे छोटी वाली बहन. कड़ी आगे भी थी. पड़ोस के बच्चे तक भी उन किताबों का बहुधा उपयोग करते थे. किताबें बेहद संभाल कर उपयोग की जाती थीं क्योंकि आनेवाले सालों में छोटे भाई-बहनों के लिए भी काम में लाना था. इससे जहां किताबों के प्रति स्नेह-लगाव पैदा हो जाता था, वहीं उनकी साज-संभाल के प्रति सजगता खुद-ब-खुद आती गयी. इतना ही नहीं, पुरानी कॉपियों के बचे पन्नों से नयी क्लास के लिए नयी नोटबुक भी जिल्द के साथ बना ली जाती थी. कपड़ों के मामले में भी कुछ इसी तरह की मितव्ययिता बरती जाती थी. कपड़े, किताबों के अलावा पुराने टूटे सामान का भी कहीं न कहीं सदुपयोग हो ही जाता था. कद्दू (कुम्हड़े) के छिलके की स्वादिष्ट सब्जी और सूखी चटनी बनाने वाले अब कितने हाथ बचे हैं? बासी रोटी को मसल कर स्वादिष्ट नाश्ते में बदलना आजकल कम ही रसोई घरों में हो पाता है. बासी भात के पकोड़े और बासी रोटी के पकोड़े सुबह के नाश्ते का जरूरी हिस्सा थे. गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर तांगे या बैलगाड़ी की सवारी करने में जो बात थी वह आज किसी महंगी/लग्जरी कार में भी नहीं.
आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब पुरानी बातें क्यों याद कर रहा हूं. दरअसल, बीते दिनों को याद करना मानव की फितरत है. हम जानते हैं कि हमारी नियति आगे की ओर जाना ही है, समय की गंगा को उलटा बहा कर पीछे जाना संभव नहीं होता. मगर बीते हुए कल में कोई न कोई ऐसी कशिश होती है जो हमें समय-बेसमय उसकी ओर खींचती है. विदेशों या देश के ही बड़े शहरों से छुट्टियां मनाने छोटे शहरों व गांवों में जाने वाले लोग तांगे की सवारी करना पसंद करते हैं, तो इसलिए नहीं कि उन्हें मोटर से चिढ़ हो गयी है और वे उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं. छुट्टियों से लौट कर उन्हें उन्हीं कार, बस, हवाई जहाज दरकार होंगे. कथित पिछड़े मुल्कों या इलाकों के लोग जहां चमचमाते कांच और कंक्र ीट के जंगलों में घूमने के ख्वाब देखते हैं, वहीं इन जंगलों में से निकल कर सुविधाओं से वंचित स्थानों पर कुछ दिन बिताने की चाह रखने वालों की संख्या भी बढ रही है. बड़े-बड़े रईसों में ऐसे किसी स्थान पर छुट्टियां बिताने का चलन चल पड़ा है, जहां न टेलीफोन हो, न टीवी और न ही इंटरनेट. दरअसल, यह यह कुछ अलग पाने की चाहत है. मनुष्य को जो हासिल है, उसे सुकून पाने के लिए हमेशा उससे इतर कुछ चाहिए. जब वह पीछे होता है, तो आगे जाना चाहता है और जब आगे पहुंच जाता है, तो वापस पीछे लौटना चाहता है..
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