शनिवार, 17 दिसंबर 2016

सहा भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता

सच कहिये तो इ राजनीति भी ससुरी बड़ी टूच्ची चीज है. सहा भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता. लोकतंत्रवासी जानबूझ के मक्खी निगलने के आदी हो चुके हैं. निकम्मे नेताओं को खुद ही वोट देते हैं और फिर पांच बरिस तक गाली देते रहते हैं. अरे, नेता लोगन पर गोसाने से क्या फायदा? उ काहे काम करेगा, संसद हो या बाहर. ओके मरजी, नहीं करेगा काम. किसके डर से करेगा काम. न लोग (जनता) का डर है लोक (संसद) का. सत्ता पक्ष बरजोरी कर रहा और विपक्ष जोकरई. संसद में भूकंप न आ जाये इस डर से राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अकेले में मिलते हैं. पर उ कहे या बताये क्या? मालूम नहीं चल पाता. इ तो गजबे हो गया भईया! दुनिया में एह से बढ़कर अचरज और का होवेगा कि संगीन आरोप लगावे के डूगडूगी पीटे वाला आदमी आरोपी के कान में बुदबुदा के हंसत-खेलत घर आ गवा. असल भूकंप त एही है! अब आप अगर अइसा सोचते हैं कि काम नहीं तो पइसा नहीं (संसद के शीतकालीन सत्र में एक भी दिन काम नहीं हुआ तो सांसदों को उतने दिन का वेतन नहीं मिलना चाहिये) तो सोचते रहिये. किसने मना किया है. टाइम तो आखिर आप ही के पास है. उन लोगन जइसन आप बिजी थोड़ी न हैं! 

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

रोया नहीं एक बार भी

जिंदगी का बोझ उठाया न गया तो
लाश ही कंधे पर उठा ली उसने
सब सोच रहे-
कठकरेजी होगा वह
रोया नहीं एक बार भी
बीवी के मरने पर रोना तो चाहिये था
कैसे रोता वह-
बीवी तो बाद में मरी
मर गयी थी इंसानियत पहले ही
उसके लिए
कैसे रोता वह-
बिटिया जो साथ थी उसके
सयानी सी
उम्र और मन दोनों से
कैसे रोता वह-
दिखावा थोड़े न करना था उसे
मुआवजा थोड़ी न मांगनी थी उसे
शिकायत थोड़ी न करनी थी उसे
कैसे रोता वह
क्यों रोता वह-
जब बीवी ही मर गयी
जब खो दिया उसने आधी जिंदगी
जब जीना ही है बिटिया के लिए
दीना मांझी नहीं, इंद्रजीत है वह
सीख लिया है उसने
कैसे लड़ी जाती है अपनी लड़ाई
दुनियावी बेहयाई को नजरअंदाज करके.

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

घर से भागी हुई लड़कियां

फिल्मकार आनंद एल राय की एक फिल्म आ रही है हैप्पी भाग जाएगी. दर्शकों की रोचकता बढ़ाने के लिए इन दिनों सोशल मीडिया पर रोज नये-नये पोस्टर व फिल्म का टीजर रिलीज किया जा रहा है. जैसा कि फिल्म के टाइटल से ही जाहिर है कि यह फिल्म नायिका के भागने के कथानक पर आधारित है. बॉलीवुड में पहले भी नायिकाओं के भाग जाने पर कई फिल्में बन चुकी हैं. पता नहीं हैप्पी भाग जाएगी में नया क्या है? इसके लिए तो हमें फिल्म के रिलीज होने तक की प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी. पर, यहां बात लड़कियों के भागने के मुद्दे पर.
हर दिन न जाने कितनी हैप्पी भागती है. वह भागती है हैप्पीनेस को पाने के लिए, हैप्पीनेस ढूंढने के लिए, हैप्पीनेस को जीने के लिए, हैप्पीनेस को जानने के लिए. कुछ को मिल जाता है, कई को नहीं मिलता. लड़कियों का भागना हमारे समाज में नयी घटना नहीं है. फिर भी जाने क्यों हर बार इस पर बात उतनी ही शिद्दत से होती है. लेखक, पत्रकार, फिल्मकार, समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी सब के सब हर बार इस मुद्दे पर बात ऐसे करते हैं जैसे कुछ नया या पहली बार हो रहा है. हर दिन के समाचार पत्रों में किसी न किसी लड़की के भाग जाने की खबर जरूर होती है. बल्कि उसके मुकाबले लड़कों के भाग जाने की खबर उतनी नहीं होती. शायद इसलिए क्योंकि घरवाले लड़कों के मुकाबले लड़कियों के भागने पर चिंतित ज्यादा होते हैं. इस वक्त मुझे जाने-माने कवि आलोक धन्वा की मशहूर कविता भागी हुई लड़कियां की कुछ पंक्तियां स्मरण हो रही है-
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है.
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कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है.
वैसे तो भागना एक क्रिया है पर कई बार परिस्थतियोंवश यह कर्म भी बन जाता है. जब कोई लड़की भागती है, लोग उसके कारणों पर कभी नहीं सोचते. सीधे लांछन लगाते हैं उसके चरित्र पर. बिना यह जाने कि जब कोई लड़का भागता है तो हम ऐसा ही क्यों नहीं सोचते. हम आधुनिकता का चाहे जितना भी लबादा ओढ़ लें वैचारिक दरिद्रता हमारा दामन नहीं छोड़ती. क्योंकि पुरुषवादी समाज की सोच ओढ़ते-पहनते हैं हम. यह हमें विरासत में ही मिलता है. सच तो यह है कि किसी भी लड़की के लिए घर से भागने का निर्णय आसान नहीं होता. बार-बार सोचना और काफी कुछ छोड़ना पड़ता है. बावजूद इसके अगर वह भागती है तो सामान्य तौर पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि किन कठिन परिस्थितियों में यह निर्णय उसने लिया होगा. तो फिर क्यों घर से भागी हुई लड़कियों के प्रति लोगों की सोच बदल जाती है?
क्या मां-बाप को भूल जाती हैं घर से भागी हुई लड़कियां. या भूल जाती हैं वह भाई की कलाई पर बांधी हुई राखी को. मां के आंचल में छिपकर सुबकना भी नहीं भूलती घर से भागी हुई लड़कियां. देवता-पितर के आगे सिर नवाना भी याद रहता है उन्हें. घर से भागी हुई लड़कियां नहीं भूलतीं रूमाल पर टांकना गुलाब का फूल जिसे सिखाया था मां ने. यकीन मानिये, बूरी नहीं होतीं घर से भागी हुई लड़कियां. बूरा तो हमारा समाज है, जो लड़कियों के भागने पर हौआ खड़ा कर देता है. इस सहज बात को भी इतना जटिल बना दिया जाता है कि घर से भागी हुई किसी लड़की के लिए उसके घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं. जबकि किसी भागे हुए लड़के के लौटने पर ऐसा नहीं होता.
लड़कियां भागती क्यों हैं, इसपर चिंता करना जरूरी तो है पर उससे भी जरूरी यह है कि हम एक ऐसे समाज व परिवार का निर्माण करें कि कभी किसी लड़की को भागना नहीं पड़े. और अगर भागना भी पड़े तो घर वापस लौटने के बारे में सोचना नहीं पड़े. अगर ऐसा हो पाया तो कभी कोई लड़की नहीं भागेगी. भागेगी क्यों, अपनों से भी भागता है कोई भला...?

रविवार, 3 जुलाई 2016

यादों की तितलियां

मीडिया की नौकरी में अमूमन इतवार नहीं होता. यह दिन भी सामान्य दिनों की तरह ही होता है. फिर भी जाने क्यों, इतवार आते ही खुद पर एतबार बढ़ जाता है. इसलिए मेरे लिए इतवार का दिन एतबार का दिन होता है. आशी (बेटी) को स्कूल नहीं जाना होता, सो मेरे इस पूरे एक दिन पर जैसे वह अपना हक मानती है. न खेलकूद, न पढ़ाई. हर वक्त मेरे आसपास तितली की तरह उड़ती-मंडराती रहती है. आज सुबह से हो रही अनवरत बारिश के बीच अलसायी सुबह कब बीत गयी थी और दोपहर सिर पर कब आ गया पता ही नहीं चला. प्याज के पकौड़े और चाय की चुस्कियों के बीच अचानक माहौल नॉस्टैल्जिक हो गया. एक फोटो एलबम को पलटते हुए आशी बार-बार कभी हम दोनों तो कभी उस एलबम के फोटो को देख रही थी.
उसने अपनी मम्मी से कहा-
तुम पहले कितनी सुंदर थी न.
सब चुप थे...
थोड़ी देर बाद...
पापा, तुम पहले अजीब लगते थे...!
अब अच्छे लगते हो.
मैंने कहा- मतलब?
देखो, कहते हुए उसने एलबम मुझे दे दिया. दरअसल, वो जो एलबम देख रही थी, उसमें मेरे कॉलेज के समय की तसवीरें थीं. कुछ शादी के तुरंत बाद की भी. एलबम पलटते हुए मैं भी पुरानी यादों में खो गया. बाहर बारिश हो रही थी. कभी धीमी, कभी तेज. रंग-बिरंगी तितलियों का एक समुह खिड़की के रास्ते कमरे में दाखिल हो चुका था. आशी तितलियों को पकड़ने की चेष्टा में मग्न हो गयी.

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

पानी उदास है

नानी के बिना कहानी उदास है
रोजगार के बिना जवानी उदास है
टूट गये सपने, उम्मीदें उदास है
मेरे देश की आंख का पानी उदास है

गंगा में चाहे डूबकी लगाओ
महाकुंभ में जाकर जितना नहाओ
रो रही धरती, सुबकता आकाश है
मेरे देश की आंख का पानी उदास है

छिज गया भरोसा हमारा-तुम्हारा
परहित की बातें नहीं हैं गंवारा
पॉलिटिक्स हुई डर्टी, न कोई आश है
मेरे देश की आंख का पानी उदास है

सुखे जलाशय, सुख रही नदियां
पैसों की भूखी है ये देश-दुनिया
क्रिकेट में हो रहा पानी का नाश है
मेरे देश की आंख का पानी उदास है.

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

सुनो लड़कियों!

दीपा करमाकर (ओलंपिक में क्वालीफ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट) को समर्पित एक कविता.

शोर नहीं
धीमे बोलो
ऊंची आवाज
शोभा नहीं देता तुम्हें
इतना तेज चलने की आदत
ठीक नहीं तुम्हारे लिए

ये क्या
अभी तक रोटी सेंकना भी
सीखा नहीं तुमने
अरे बाप!
आलू के इतने बड़े टूकड़े
कोई पुरुष पसंद नहीं करता

जाओ
गिलास में पानी भरके
बाप-भाईयों को पिलाना सीखो
शरबत, चाय, कॉफी बनाना
अच्छा हुनर है, लुभाने के लिए
यह तो आना ही चाहिए

जींस-टी शर्ट पहनकर
रिश्तेदारों के सामने
आना भी मत कभी
जाओ
सलवार-शूट
साड़ियां पहनना सीखो

जब कोई बोले
'जी' बोलो-हौले से
नजरें झुकी हो
जब कोई हो सामने
मुंह खोलकर हंसना
अच्छा नहीं माना जाता

जाओ, जाकर
करो शिव आराधना
तभी मिलेगा
तुम्हें अच्छा वर
अच्छा दांपत्य चाहिये तो
पूजो भगवान विष्णु को

और ये हर समय
हाथ में मोबाइल
क्या ठीक लगता है तुम्हे?
फेसबुक, वाट्सअप
क्या करना इन सबका
औरत ही रहो तो अच्छा

पढ़ो, नौकरी करो
शादी करो
बच्चे पैदा करो
खूब मेहनत करो
सबको खुश रखो
इतना ही करना है तुम्हें

सुनो लड़कियों!
बचपन से बुढ़ापे तक
यही तो सिखाया जाता है तुम्हें
क्या वाकई
इन सब बातों से
सहमत हो तुम...?


सोमवार, 28 मार्च 2016

ओ मेरी गौरेया

फूदक-फूदक कर
आंगन में
करती ता-ता थैय्या
ओ मेरी गौरैया...
बचपन के दिन हों
या अब के
है तू वैसी की वैसी
तुझे दिखा दादी कहती थी
मुझको बाबू-भैय्या
ओ मेरी गौरेया...
मोबाइल से फोटो खींचे
बिस्किट तुझे खिलाती
मेरी बेटी
नित दिन तुझको
कहती सोन चिरैय्या
ओ मेरी गौरेया...
तेरा आना
तेरा गाना
मुझको बहुत सुहाये
तेरे बिन झुठा लागे
शोहरत व रुपैय्या
ओ मेरी गौरेया...
आती रहे तू
गाती रहे तू
हम सबको
चाहे सताती रहे तू
तू है मेरी मैय्या
ओ मेरी गौरेया...
खबरदार सबको
कोई न बोले
ढीठ चिरैय्या
ओ मेरी गौरेया...
- अखिलेश्वर पांडेय

सोमवार, 18 जनवरी 2016

जो कहना है मुझे

मुझे इल्म है इस बात का
तुम नहीं जानती कुछ भी
न यह कि 
तुम हो बेहंतहा
खूबसूरत
नाजूक फूलों सी
इठलाती/ इतराती
प्यार की खुशबु फैलाती
अनायास मेरी जिंदगी में
न यह कि
तुम्हारा होना ही
मेरा होना है
तुम्हारी हंसी ही
मेरी मुस्कान
इतना वक्त बीत जाने पर भी
कहां कह पाया मैं
सोचता रहा/ दिलासा देता रहा
खुद को मन ही मन
पर अब नहीं
अब नहीं चुप रहना मुझे
कह देना चाहता हूं
सब कुछ
तुमसे/सिर्फ तुम्हीं से
क्योंकि कहना जरूरी है
न कहना ठीक नहीं
बोल देना जरूरी है
यह जानते हुए भी
बचेगा नहीं कुछ इसके बाद अब
न कहने को/ न सुनने को
हो शायद ऐसा भी
तुम सुन ही न पाओ
जो कहना है मुझे
खो दूं तुम्हें मैं
तो भी कोई बात नहीं
तुम्हारे न होने में भी
होगा तुम्हारा होना
मैं कुछ कहना चाहता हूं
मैं तुम्हें खोना चाहता हूं...

मुझे इल्म है इस बात का
तुम नहीं जानती कुछ भी
न यह कि 
तुम हो बेहंतहा
खूबसूरत
नाजूक फूलों सी
इठलाती/ इतराती
प्यार की खुशबु फैलाती
अनायास मेरी जिंदगी में
न यह कि
तुम्हारा होना ही
मेरा होना है
तुम्हारी हंसी ही
मेरी मुस्कान
इतना वक्त बीत जाने पर भी
कहां कह पाया मैं
सोचता रहा/ दिलासा देता रहा
खुद को मन ही मन
पर अब नहीं
अब नहीं चुप रहना मुझे
कह देना चाहता हूं
सब कुछ
तुमसे/सिर्फ तुम्हीं से
क्योंकि कहना जरूरी है
न कहना ठीक नहीं
बोल देना जरूरी है
यह जानते हुए भी
बचेगा नहीं कुछ इसके बाद अब
न कहने को/ न सुनने को
हो शायद ऐसा भी
तुम सुन ही न पाओ
जो कहना है मुझे
खो दूं तुम्हें मैं
तो भी कोई बात नहीं
तुम्हारे न होने में भी
होगा तुम्हारा होना
मैं कुछ कहना चाहता हूं
मैं तुम्हें खोना चाहता हूं...