महंगाई की तपिश में मानसून नखरे दिखा रहा है. नल में पानी नहीं है. बीज और उर्वरकों में बेतहासा मूल्यवृद्धि के बाद उदासीन हो चुके किसानों के खाली खेतों में घोटाले की घास उग आयी है. बाजार में बिक रहा ‘आम’ लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है. बेइमानी की पानी से जला हुआ आदमी लस्सी भी फुंक-फुंक कर पी रहा है. यह बड़ा ही भयावह दौर है.
100 दिन में महंगाई को ‘मटियामेट’ कर द...ेने का दावा करने वाली सरकार आज कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं है. एक आंकड़ा देखिये- तब डीएपी 520 रुपये प्रति बोरी था आज 1000 रुपये है, पेट्रोल 49 रुपये प्रति लीटर से 79 रुपये और दाल 58 से 100 रुपये प्रति किलो बिक रहा है. अनाज के दाम भी अगर इसी रफ्तार में बढते रहे तो अभी हम बीन कर खाते हैं, आगे गिनकर खाना पड़ेगा. समझ में नहीं आ रहा इसके लिए सरकार दोषी है या पब्लिक? हर आदमी ‘आम’ हो गया है और परेशानियों से ‘पक’ गया है.
अभी कल की ही बात है. सब्जी मार्केट से लौटने के बाद श्रीमती जी का चेहरा लाल हुआ पड़ा था. सहमते हुए मैंने पूछा ‘क्या हुआ ‘भाग्यवान’? चेहरे पर गरमी का असर है या गरमी ही है.’ बोलीं- आप तो चुप ही रहिये. महंगाई का किस्सा अखबार में छाप-छाप के सबका दिमाग खराब कर रखा है. सब्जियों के दाम में आग लगी है, रिक्शे वाला 10 के बजाय 20 रुपये मांग रहा है. कहता है- मैडम, आपको पता नहीं क्या पेट्रोल का दाम बढ गया है. अब भला पेट्रोल के दाम बढने से रिक्शे का भाड़ा बढाने का क्या औचित्य?’ मन तो हुआ कि रिक्शे वाले के बचाव में दो शब्द कहूं पर श्रीमती जी के ‘शब्दबाण’ की डर से मेरी बात मेरे हलक में ही सूख गयी. मैंने एक गिलास ठंडा पानी उनकी खिदमत में पेश किया और बोला- छोड़ो जाने दो. पानी गला से जैसे-जैसे नीचे उतरा उनका गुस्सा कुछ कम हुआ. बोलीं ‘एक तो इतनी गरमी और उपर से इतनी महंगाई. आखिर कोई कैसे गुजर-बसर करे. सचमूच जिंदगी टफ हो गई है.’ मुझसे रहा नहीं गया ‘देखो, इतना भी निराश होने की जरू रत नहीं. यह महंगाई तो बस इस मौसम में चल रही तपिश की तरह है जो मॉनसून के आते ही छू मंतर हो जाएगी.’ जवाब था ‘पर मॉनसून भी तो नखरे दिखा रहा. लगता है सरकारी नीतियों से रू ठ गया है. कभी केरल तो कभी बंगाल में झलक दिखा कर कहीं छुप जा रहा. हमारी सरकार तो कुछ करने से रही. विपक्ष भी बावला हो गया है. यह कैसी व्यवस्था है जो दिन-रात मेहनत करने वाले मजदूर को या अन्न उपजाने वाले किसान को प्रतिदिन के 200 रुपए नहीं देती है, पर केवल क्रिकेट खेलने की काबिलियत के लिए किसी को 40 लाख रु पए देने को तैयार है?’
100 दिन में महंगाई को ‘मटियामेट’ कर द...ेने का दावा करने वाली सरकार आज कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं है. एक आंकड़ा देखिये- तब डीएपी 520 रुपये प्रति बोरी था आज 1000 रुपये है, पेट्रोल 49 रुपये प्रति लीटर से 79 रुपये और दाल 58 से 100 रुपये प्रति किलो बिक रहा है. अनाज के दाम भी अगर इसी रफ्तार में बढते रहे तो अभी हम बीन कर खाते हैं, आगे गिनकर खाना पड़ेगा. समझ में नहीं आ रहा इसके लिए सरकार दोषी है या पब्लिक? हर आदमी ‘आम’ हो गया है और परेशानियों से ‘पक’ गया है.
अभी कल की ही बात है. सब्जी मार्केट से लौटने के बाद श्रीमती जी का चेहरा लाल हुआ पड़ा था. सहमते हुए मैंने पूछा ‘क्या हुआ ‘भाग्यवान’? चेहरे पर गरमी का असर है या गरमी ही है.’ बोलीं- आप तो चुप ही रहिये. महंगाई का किस्सा अखबार में छाप-छाप के सबका दिमाग खराब कर रखा है. सब्जियों के दाम में आग लगी है, रिक्शे वाला 10 के बजाय 20 रुपये मांग रहा है. कहता है- मैडम, आपको पता नहीं क्या पेट्रोल का दाम बढ गया है. अब भला पेट्रोल के दाम बढने से रिक्शे का भाड़ा बढाने का क्या औचित्य?’ मन तो हुआ कि रिक्शे वाले के बचाव में दो शब्द कहूं पर श्रीमती जी के ‘शब्दबाण’ की डर से मेरी बात मेरे हलक में ही सूख गयी. मैंने एक गिलास ठंडा पानी उनकी खिदमत में पेश किया और बोला- छोड़ो जाने दो. पानी गला से जैसे-जैसे नीचे उतरा उनका गुस्सा कुछ कम हुआ. बोलीं ‘एक तो इतनी गरमी और उपर से इतनी महंगाई. आखिर कोई कैसे गुजर-बसर करे. सचमूच जिंदगी टफ हो गई है.’ मुझसे रहा नहीं गया ‘देखो, इतना भी निराश होने की जरू रत नहीं. यह महंगाई तो बस इस मौसम में चल रही तपिश की तरह है जो मॉनसून के आते ही छू मंतर हो जाएगी.’ जवाब था ‘पर मॉनसून भी तो नखरे दिखा रहा. लगता है सरकारी नीतियों से रू ठ गया है. कभी केरल तो कभी बंगाल में झलक दिखा कर कहीं छुप जा रहा. हमारी सरकार तो कुछ करने से रही. विपक्ष भी बावला हो गया है. यह कैसी व्यवस्था है जो दिन-रात मेहनत करने वाले मजदूर को या अन्न उपजाने वाले किसान को प्रतिदिन के 200 रुपए नहीं देती है, पर केवल क्रिकेट खेलने की काबिलियत के लिए किसी को 40 लाख रु पए देने को तैयार है?’