सोमवार, 24 दिसंबर 2012

अगर यह भी नहीं मालूम तो धन्यवाद आपका!


नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनावी समर जीते तो वोटरों के साथ-साथ अपने प्रतिद्वंदियों को भी धन्यवाद कहा. उधर, हिमाचल प्रदेश में ‘हिमालयी परिवर्तन’ के तहत जीतने पर वीरभद्र ने जनता को धन्यवाद कहा तो प्रेम कुमार धूमल ने भी आखिरकार हार स्वीकार किया और जनता को धन्यवाद कहा.  धन्यवाद भले ही एक साधारण शब्द हो पर इसमें व्यापक ऊर्जा समाहित है. जो भी इसका उपयोग करता है उसे यह बात बताने की जरू रत शायद नहीं है. पर हमारी पाश्चात्य से अति पाश्चात्य होती जा रही जीवन शैली में, हमारे व्यवहार में, हमारी दिनचर्या में ‘धन्यवाद’ का तेजी से हृास होता जा रहा है. शायद महंगाई के इस दौर में हमारी कंजूस होने की प्रवृति का सबसे ज्यादा साइड इफेक्ट ‘धन्यवाद’ ने ही ङोला है. इस घोर महंगाई के दौर में ‘धन्यवाद’ ही एक ऐसी ‘वस्तु’ बची है जिसके दाम में उतार-चढ़ाव नहीं होता. जिसका सेंसेक्स गिरता-चढ़ता नहीं है और न ही कोई इसकी कालाबाजारी कर सकता है. और तो और इस पर न तो सरकारी नियंत्रण है और न ही निजी कंपनियों का वर्चस्व. सबसे बड़ा फायदा तो यह कि इसका कितना भी उपयोग-दुरुपयोग दुनिया भर में किया जाए इसके खत्म होने का कोई खतरा नहीं है. हम भारतीय इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि ‘धन्यवाद’ रूपी ईंधन की उपलब्धता की खातिर हमें किसी अरब देश का मुंह ताकने की जरू रत भी नहीं. यह तो भारतीय संस्कृति में प्रचूर मात्र में उपलब्ध है.
आप कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि मैं ‘धन्यवाद’ पर किया अपना शोधपत्र आपके सामने पेश कर रहा. ऐसा नहीं है. मेरा इरादा आप विज्ञ पाठकों को बोर करना कतई नहीं है. मैं तो ‘बस यूं ही’ कुछ कहना चाह रहा था. अगर आप ‘धन्यवाद’ को लेकर सीरियस नहीं हैं तो कोई बात नहीं. अब ‘धन्यवाद’ कोई सास-बहू का सीरियल तो है नहीं कि इसे याद रखना जरू री है. न ही यह मैरिज एनिवर्सरी  या जन्मदिन है जिसे याद न रखने से आपकी फजीहत हो जाएगी. यह किसी बाबा का बताया गया वह चमत्कारिक नुस्खा भी नहीं है जिससे आपकी सारी परेशानियां छू-मंतर हो जाएंगी. वैसे भी जब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में आलू-प्याज, नमक-तेल, साबून-शैंपू, डीजल-पेट्रोल, सोना-चांदी, बच्चों की परवरिश, दवा और दुआ ने हलचल मचा रखी हो तो ‘धन्यवाद’ कहां याद रह पाता है. और हां मैं तो आपको इस पर चिंतन-मनन करने के लिए भी नहीं कहूंगा. इसके लिए तो समय चाहिए होता है. वह आज कहां किसी के पास है. आप तो सुबह से रात तक ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ के भंवरजाल में ऐसे उलङो हुए हैं कि आपको इस बात की भनक ही नहीं कि ‘सरकार की इतनी कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद हमारे देश में कितने बच्चे अब भी स्कूल की देहरी से दूर हैं.’ आपको तो यह भी नहीं मालूम कि हमारे देश में कितने लोग दिनभर भोजन का इंतजार करने के बाद रोज रात को भूखे पेट ही सो जाते हैं?  धन्यवाद आपका!

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

रोटी मजबूरी हो या दूरी पर सबके लिए जरूरी


प्रख्यात साहित्यकार प्रयाग शुक्ल की एक कविता है-
व्यंजन पकाने की विधियां कई हैं
व्यंजन भी कई हैं
ढेरों व्यंजनों के
पर व्यंजन विधियों को चकमा देकर
कब और कैसे स्वाद को
मधुर तिक्त करते हैं
यही चमत्कार है.
पर इससे भी बड़ा चमत्कार है ‘खाना-खिलाना’. चाहें तो आप इसे ‘डिनर डिप्लोमेसी’ भी कह लें. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी यूपी में भोजन करने को ‘रोटी खाना’ कहते हैं. रोटी के लिए इनसान क्या-क्या नहीं करता? खेती से लेकर राजनीति तक सब इस रोटी की ही लाचारी है. अरे भई! कोई  रोटी बनाता है, कोई रोटी उगाता है. कई महानुभाव तो ऐसे भी होते हैं जो दूसरे की उगायी फसल काटने की फिराक में रहते हैं. कोई रोटी खिलाता है, कोई खाता है. किसी के लिए रोटी मजबूरी है तो किसी के लिए दूरी है. जो भी हो रोटी होती सभी के लिए जरू री है.
कुछ लोग रोटी छीन कर खाते हैं, तो कुछ लोग कमा कर. कुछ लोग दिखा कर, तो कुछ लोग छिपा कर. हमारे बड़े-बुजुर्ग आज भी इस बात को बहुत जोर देकर कहते हैं कि ‘रोटी और बेटी का रिश्ता हर किसी से नहीं किया जाता.’ रोटी के लिए कई लोग बेघर हो जाते हैं, तो कई लोग रोटी का व्यवसाय कर कई-कई घरों के मालिक बन जाते हैं. रोटी की महिमा जितनी भी बखानी जाये कम ही होगी. कोई रोटी खाने के लिए राजनीति करता है तो कोई रोटी खाकर राजनीति करता है. कई नेता तो गरीबों/दलितों/मजदूरों के घर जाकर रोटी खाने का दिखावा करते हैं. दरअसल, इनकी नजर रोटी पर कम उनके वोट बैंक पर ज्यादा होती है. यह बात कोई समझ नहीं पाता. क्या वह गरीब यह नहीं सोचता होगा कि नेताजी मेरे यहां आकर रोटी तोड़ रहे हो कभी मुङो भी अपने घर बुलाओ? तुमने खून-पसीने की कमाई का स्वाद तो चख लिया, जरा मैं भी देखूं मुफ्तखोरी का स्वाद कैसा होता है?
संभ्रांत लोग रोटी खाने-खिलाने को ‘डिनर डिप्लोमेसी’ कहते हैं. उन्हें ‘रोटी’ से गरीबी की दरुगध आती है. साझा पार्टियों के समर्थन पर टिकी सरकारें जब-तब अपने अल्पमत में होने का खतरा महसूस करती हैं और राजधानी में डिनर डिप्लोमेसी का दौर तेज हो जाता है. शादी-ब्याह तो बिना डिनर के होते ही नहीं. ये अलग बात है कि इस डिनर का लाभ उठाने के लिए कई बिन बुलाये ‘चतुर सुजान’ बन-ठन कर आयोजन स्थलों के पास मंडराते रहते हैं. कई पत्नियां लजीज डिनर बना कर पति महोदय का मूड ठीक करने का हुनर अब भी ढूंढ़ रही हैं. बड़े होटलों/रेस्तरां में पसंदीदा डिश खिला कर प्रेमिका को प्रेयसी बनाने का प्रयत्न करना आज भी प्रेमियों की पहली पसंद है. ‘लड़की-देखाई’ की रस्म हो, तो सास-ससुर यह पूछना नहीं भूलते कि ‘बेटी खाना बनाना तो जानती ही होगी?’

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

वो सुबह-सुबह अखबार नहीं पढ़ते!


सुबह-सुबह जैसे ही अखबार खोलिए, कोई न कोई घपले-घोटाले की खबर जरू र मिलेगी. ऐसे में हर घोटालेबाज यही सोचता है, पता नहीं मेरा नंबर कब आ जाये. इसलिए वह अखबार जरा डरते-डरते ही खोलता है और अपना नाम उसमें न पाकर इत्मीनान की चाय पीता है.
पिछले दिनों बच्चों के एक कार्यक्रम में एक नेताजी को चीफ गेस्ट बनाया गया था. जिज्ञासा से लबरेज एक बच्चे ने प्रश्नोत्तर सत्र में नेताजी से पूछ लिया, ‘‘आप तो इतने सुरक्षा बल के बीच रहते हैं. क्या आपको भी किसी चीज से डर लगता है?’’ नेताजी सोच में पड़ गये. जिसका डर था वही हुआ. भरी सभा में कैसे बतायें. पर बचने का कोई उपाय न पाकर बोले, ‘‘मुङो अखबार से बहुत डर लगता है.’’ बच्चे खिलाखिला कर हंस पड़े. उन्हें शायद ‘क्यों’ पूछने की जरू रत नहीं थी.
मेरे मोहल्ले में रहनेवाले एक छुटभैये नेता ने बताया कि नेता हमेशा इस बात को लेकर खास अलर्ट रहते हैं. वह अखबार पढ़ रहे किसी व्यक्ति से बात नहीं करते, क्योंकि उन्हें इस बात का सदैव डर सताता रहता है कि पता नहीं कब कौन उनसे उल्टा-सीधा सवाल कर बैठे, जिसका जवाब देना उनके लिए मुश्किल भरा हो. एक ‘नामवर’ नेता की पत्नी ने बताया कि उनके ‘साहेब’ उनसे भी ज्यादा अखबार से डरते हैं. खास कर तब अगर कोई यह पूछे कि आज आपने अखबार पढ़ा क्या?’’ सुबह-सुबह अखबार छूने से डरते हैं. जब तक नहा-धोकर पूजा-पाठ नहीं कर लें, वह अखबार नहीं पढ़ते. यहां तक कि ‘राशिफल’ भी नहीं.
ऐसा नहीं कि केवल नेता ही इस सिंड्रोम से पीड़ित हैं, बल्कि कई अफसर भी इस बीमारी की गिरफ्त में हैं. एक आला अधिकारी के बंगले में चाकरी करनेवाले एक अर्दली ने राजफाश किया,‘‘मैडम हर वक्त साहब को ताना मारती रहती हैं- वैसे तो तुम बड़े बहादुर बने फिरते हो, पर सुबह-सुबह अखबार देख कर तुम्हारी घिग्गी क्यों बंध जाती है? अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को तो बेवजह गरियाते रहते हो पर अखबार देखकर क्यों भीगी बिल्ली बन जाते हो? मैडम चाहे कितना भी कुछ कहें पर साहब कुछ नहीं बोलते.’’
ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं. आपको ऐसे बहुतायत से प्राणी मिल जायेंगे जो वैसे तो मीडिया से दोस्ती रखना चाहते हैं, दूसरों का कच्च चिट्ठा खोलते रहते हैं, पर अपनी काली करतूतों के बारे में छपने से डरते हैं. इन्हें पसंद है दूसरों के बारे में गॉसिप पढ़ना, पर अपने बारे में सच्चई पढ़ने से भी डरते हैं. ये चाहते हैं चौराहे पर लगे एक आईना पर उसमें अपना चेहरा देखने से बचते हैं. ऐसे लोगों से विनम्र विनती है-
‘‘भइया! डरना ही है तो अपने आप से डरो, अखबार से क्यों डरते हो
लड़ना ही है तो तूफान से लड़ो, बयार से क्यों लड़ते हो.’’

सोमवार, 26 नवंबर 2012

आम आदमी (मैंगो मैन) की खास बातें

भले ही ‘खास’ लोगों की नजर में आम आदमी यानी ‘मैंगो मैन’ की कोई औकात नहीं होती हो, पर मुङो लगता है कि ‘मैंगो मैन’ होना कोई आसान बात नहीं है. अब देखिए न! अपनी गाढ़ी कमाई और काफी जुगाड़-जतन से जो उसने कभी रसोई गैस का कनेक्शन लिया था, उसका पंजीकरण बचाने के लिए अनिवार्य किये गये केवाईसी फॉर्म भरने के बाद वह खुद को ऐसा गौरवान्वित महसूस करता है मानो उसने केबीसी (कौन बनेगा करोड़पति) का एंट्री फॉर्म भर दिया हो. फ्री में मिलने वाला केवाईसी फॉर्म भी वह बगल की फोटोकॉपी सेंटर से पांच रुपये में खुशी-खुशी खरीदता है. जब उसे पता चलता है कि इस फॉर्म पर तो फोटो भी चिपकाना है, तो उसकी बांछे खिल उठती हैं. हां भई! आखिरी फोटो उसने शादी में खिंचवाई थी, जो अब घर के किसी कोने में पड़े-पड़े रंग से बदरंग हो चुकी है. अब फोटो स्टूडियो वाले की अपनी मरजी. वह भी सिर्फ एक फोटो तो खींचेगा नहीं. बोला- देखो जी! तीस रुपये में तीन फोटो दूंगा.‘मैंगो मैन’ खुश हो गया. इसी बहाने दो फोटो एक्सट्रा हो जायेंगे.

छठ-दीपावली मनाने लोगबाग अपने-अपने घर आये हुए हैं. कोलकाता-मुंबई हो या दिल्ली. बिहार आने-जाने वाली सभी ट्रेनें ठसाठस भरी हुई हैं. वैसे यह कालजयी परंपरा है. क्योंकि ‘मैंगो मैन’ ट्रेन में रिजव्रेशन (आरक्षण) नहीं करवाता. भई! ट्रेन हुई सार्वजनिक संपत्ति. मतलब जितनी तेरी उतनी ही मेरी तो भला इसमें आरक्षण क्या करवाना? वैसे भी ट्रेनों में जब तक भीड़ न हो सफर का मजा अधूरा रह जाता है. और जिसने बर्थ आरक्षित करा ही रखी है, उसको ही कौन से मजे आ रहे हैं. वह बेचारा किनारे हो कर दुबक कर बैठा है. बिना टिकट वाला उसी की बर्थ पर सो रहा है. आखिर छठ मइया का ठेकुआ खाना इतना आसान थोड़े ही न है!

‘मैंगो मैन’ की अपनी कुछ खासियत होती है. उसे सपने भी भीड़भाड़ के ही आते हैं. जैसे राशन के लिए लाइन लगा कर खड़ा है. बीमार बच्चे के इलाज के लिए अस्पताल में अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा है. रेलवे स्टेशन पर शौचालय का उपयोग करने के लिए सात लोगों के पीछे शांत हो कर पंक्तिबद्ध है..आदि-आदि. जब कोई ‘मैंगो मैन’ एक साथ इतनी जद्दोजहद कर रहा हो, तो वह भला खुद को स्विट्जरलैंड की वादियों में कटरीना कैफ के साथ गाना गाते हुए कैसे देख सकता है?

उसे तो सब्जी से लेकर शादी तक में सब्सिडी हासिल करने की लड़ाई लड़नी पड़ती है. घर से हजार-दो हजार किलोमीटर दूर रहनेवाला ‘मैंगो मैन’ ठेकुआ खाने के लिए छठ मइया के घाट पर नंगे पांव पहुंचता है. क्या यह खास बात नहीं है? इसीलिए ‘मैंगो मैन’ खास है.

बुधवार, 7 नवंबर 2012

बाजार के ताल पर नाचतीं कठपुतलियां

पिछले दस वर्षो के अधिकतर हिट या सुपरहिट बॉलीवुड गीतों को याद कीजिए. इनमें से अधिकतर (लगभग 99 फीसदी) महिला केंद्रित हैं. ये गीत महिलाओं की पीड़ा, समस्याओं, मुद्दों को उठाने के लिए नहीं, बल्कि पुरुष मानसिकता को रिझाने या उकसाने के लिए बनाये जाते हैं. सिर्फ गीत ही क्यों? तमाम तरह के विज्ञापनों पर गौर फरमाइए, तो तसवीर और भी साफ हो जायेगी.

18 अगेन..! बाजार में पेश यह नया उत्पाद है, उन महिलाओं के लिए है जो पच्चीस-तीस-पैंतीस या शायद उससेज्यादा उम्र की हो चुकी हैं. इस उत्पाद के प्रचार के लिए दो रूपकों का इस्तेमाल हो रहा है. पूरे पन्ने के अखबारी विज्ञापन में एक पूरा खिला गुलाब और (इसके इस्तेमाल के बाद) नीचे गुलाब की ‘सख्त’ कली. यह क्रीम पूरे खिले गुलाब को ‘कली’ बनाती है. टीवी पर इसके विज्ञापन में एक महिला गाती है- ‘आइ एम 18 अगेन, फीलिंग..अगेन.’ यह एक उदाहरण मात्र है कि बाजार किस तरह हमारी जिंदगी को नियंत्रित कर रहा है. प्रोडक्ट किस तरफ हमारे निजी रिश्तों की दशा-दिशा तय करने की कोशिश में लगे हैं. शायद ही इस बात से कोई इनकार करे कि आप टेलीविजन देखते समय अपने बच्चों को आसपास नहीं रखना चाहते. क्योंकि जब आप अपना पसंदीदा कार्यक्रम देख रहे होते हैं तो इस बात का सदैव खतरा बना रहता है कि पता नहीं कब आपके टीवी स्क्रीन पर कंडोम का कोई अश्लील विज्ञापन नमूदार हो जाये. न जाने कब कोई पुरुष मॉडल किसी मल्टीनेशनल कंपनी का परफ्यूम या डियोड्रेंट लगा कर दर्जन भर युवतियों या महिलाओं को अपनी ओर ‘आकर्षित’ करने का ‘करतब’ दिखाने लगे. ऐसे में खतरा यह बना रहता है कि अगर आपके बच्चे ने ऐसे किसी भी विज्ञापन को अगर गौर से देख लिया और आपसे जिज्ञासा भरा कोई सवाल पूछ दिया तो आप क्या करेंगे? दरअसल, आज हमारी जिंदगी में रहन-सहन, संस्कृति, बोल-चाल, पर्व-त्योहार, सुख-दु:ख, हंसी-खुशी सबकुछ बाजार नियंत्रित हो गया है.

अब देखिए न दीपावली आ गयी है यह आपको बाजार बता रहा है. भारी डिस्काउंट से लदे बड़े-बड़े होर्डिग, कई-कई पेजों के अखबारी विज्ञापन, टेलीविजन पर आकर्षक विज्ञापनों की भरमार यह सबकुछ आपके लिए है. आपको यह बताने के लिए कि आप खर्च करने को तैयार हो जाइए. अभी-अभी दुर्गापूजा खत्म हुई है. मार्केट में खरीदारों की भीड़ देख कर यह भरोसा ही नहीं होता कि ये वही लोग हैं जो रसोई गैस या डीजल-पेट्रोल की कीमत बढने से गृहस्थी के डांवाडोल होने का रोना रोते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा अब खुद पर नियंत्रण रहा ही नहीं. हम किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की तरह हो गये हैं जिसे हर वह शख्स संचालित कर सकता है जिसके हाथ में रिमोट हो!

रविवार, 4 नवंबर 2012

सक्सेस होना है तो इन छह किस्म के लोगों को बनाएं मित्र

यदि आप सक्सेस होना चाहते हैं तो अपनी मित्रमंडली में छह किस्म के लोगों को शामिल करें. विशेषज्ञों का दावा है कि आपकी मित्रमंडली में छह किस्म के लोग होने चाहिए.

1. जो आपसे ज्यादा ठंडे दिमाग का हो.

2. जो आपसे ज्यादा साहसी हो.

3. जो ऐसा शख्स हो जिसकी तरह आप बनना चाहते हों.

4. जो आपके बाकी किसी दोस्त के बारे में न जानता हो.

5. जो निहायत ही ईमानदार हो.

6. जिसे आप खुद से भी ज्यादा जानते हों.

हाल ही में मेलबर्न में किये गये एक रिसर्च के बाद द पॉजिटिविटी इंस्टीट्यूट के मनोवैज्ञानिक डॉ. सूजी ग्रीन ने बताया, विविधता होना बहुत जरुरी है और यह भी बहुत जरुरी है कि जब वक्त आए तो आपको अलग-अलग सोर्स  से मदद मिल सके. ग्रीन का कहना है, ‘‘ऐसी चीजों से हम अपनी जिंदगी जिंदादिली से जीते हैं और हमारा नजरिया भी काफी अलग होता है. अलग-अलग तरह के दोस्त हमारी जिंदगी खुशियों से भर देते हैं.’’

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

सवालों के इस मौसम में एक मासूम सवाल

आज कल देश में जिसे देखो सवाल पूछता नजर आ रहा है. बाबा रामदेव से शुरु हुई यह परंपरा अन्ना हजारे से होते हुए अरविंद केजरीवाल तक आ पहुंची. अब कुछ लोग अरविंद केजरीवाल से भी सवाल पूछ रहे हैं- बताओ, आंदोलनकारी हो या उदारवादी? इस पर केजरीवाल ने तपाक से कहा-मैं एनी कोहली (प्रश्नकर्ता) को नहीं जानता इसलिए मैं उनके सवालों के उत्तर देने को जवाबदेह नहीं हूं. मेरी बेटी अक्सर मुझसे सवाल पूछती है. शुक्र है भाई केजरीवाल के पास सवाल से बचने को एक विकल्प तो है पर मेरे पास तो वह भी नहीं है. मुङो मेरी बेटी के हर सवाल का जवाब देना पड़ता है वह भी ईमानदारी से और उसी समय. वरना वह नाराज हो जाती है, और मैं उसे नाराज या दुखी नहीं करना चाहता. सवाल कभी भोलेपन से भरे तो कभी शरारत से सराबोर.

खैर, रोजमर्रा की जदोजहद से दो-चार होते कुछ सवाल मेरे जेहन में भी उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. कभी-कभी ये सवाल इतने घनीभूत हो उठते हैं कि जवाब पा लेने को मन आतूर हो उठता है. एक वाकया पेश है- दवा दुकान पर करीब 20 साल का एक युवक अपनी मां के साथ आया. दुकान में भीड़ थी. इतने में मोबाइल की घंटी बजी उसने जेब से जैसे ही अपना मोबाइल निकाला वह जमीन पर गिरा और बिखर गया. युवक बेचैन हो उठा, अपनी मां पर चिखने-चिल्लाने लगा. दुकान पर खड़े ग्राहक उसकी ओर देखने लगे. बीमार मां असहज हो उठी. उसे समझ में नहीं आ रहा था वह उसे कैसे शांत करे. थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद युवक वहां से बाहर आया और अपनी पल्सर बाइक से तेजी से कहीं निकल गया. उसकी मां निढाल हो कर दुकान में रखी एक टूटी प्लास्टिक चेयर पर बैठ गयी. मेरी जिज्ञासा बढ गयी थी. मैंने पास जाकर पूछा मैडम, वह आपको यूं छोड़कर कहां चला गया. जवाब मिला ‘वह मेरा इकलौता बेटा है. मैं एक सप्ताह से बीमार हूं. बहुत कहने पर वह मुङो डॉक्टर के पास लेकर आया था. यहां उसकी महंगी मोबाइल गिरने से टूट गयी. वह उसे बनवाने गया है.’ ‘और आप?’ ‘मेरा क्या, मैं ऑटो करके घर चली जाउंगी.’ मैं सोचने लगा- क्या जिंदगी में मोबाइल की अहमियत मां से ज्यादा है? वह युवक मोबाइल खराब होने से इतना बेचैन हो उठा पर मां की तबियत खराब होने से उस पर कोई अंतर क्यों नहीं पड़ा?

क्या मनुष्य केवल देह है जो मात्र भौतिक सुखों से संतुष्ट हो जाये? हमारे भीतर की चेतना, संवेदनशीलता, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति कहां विलुप्त हो गयी? क्या भोगवादी इस अवधारणा में इन अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या यह केवल दैहिक सुखों पर टिकी है? इन हालात पर तो कवि प्रदीप की पंक्तियां याद आ रही हैं-देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान!

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

अथ श्री जमाई कथा

बचपन से ही मुङो शादी का बहुत क्रेेज था. सोचता था जब मेरी शादी होगी मैं भी किसी का दामाद बनूंगा. खूब आवभगत होगी. मैं भी ‘दामादगीरी’ का खूब लुत्फ उठाऊंगा. पर, अफसोस कि शादी तो हुई पर ‘दामादगीरी’ का लुत्फ उठाने का वह ‘सुअवसर’ न मिल सका. इस बात का जिक्र मैं यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि देश में इन दिनों एक जमाई राजा ने धमाल मचा रखा है. इस देश में तो हर जमाई, राजा होता है, तो राजा के जमाई का क्या कहना. कुछ ‘दामाद’ उनसे इसलिए खुन्नस खाये हुए हैं कि क्योंकि उनको वैसा मौका न मिला. खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर कुछ लोग उन्हें ‘राष्ट्रीय दामाद’ कह रहे हैं तो कुछ ‘सरकारी दामाद’. अजी, मैं पूछता हूं इसमें नया क्या है? सरकारी दामादों की परंपरा तो अंगरेजों के जमाने से चली आ रही है. वैसे भी बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं—बेटियां परायी ‘धन’ होती हैं और दामाद सबसे ‘सम्माननीय’. भारतीय परंपरा में दामादों का बहुत महत्व रहा है, आज से नहीं प्राचीनकाल से ही.


जमाइयों की बात चली है तो मुङो याद आ रहा है गांव-जवार में कुछ घरजमाइयों को मैं भी जानता हूं. और कुछ हो न हो ये घर जमाई गांव-जवार के लोगों के मनोरंजन का साधन अवश्य होते हैं. इनसे हंसी-मजाक, ठिठोली करने और तंज कसने से कोई बाज नहीं आता. इनमें से कुछ तो जिंदादिल होते हैं जो यह सब ङोल जाते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बात-बात पर बिफर जाते हैं. नतीजा झगड़ा-फसाद, बवाल और मनमुटाव. खैर ताना मारने वाले इस सबकी परवाह कहां करते हैं. दामादों को मेहमान भी कहा जाता है. अब जो दामाद घरजमाई ही बन गया वह कैसा मेहमान और कैसी उसकी मेहमानवाजी? वह खायेगा भी और खिलायेगा भी. वह सुनेगा भी और सुनायेगा भी. वह जो मरजी सो करेगा. आखिर घरजमाई जो ठहरा. वह काजू भी खायेगा और करैला भी. ‘फ्यूचर डिपेंड ऑन योर सिचुएशन’.

बहरहाल, हम जमी-जमाई अवधारणा से बाहर आते हैं और फ्रेश बात करते हैं. अगर आप शादीशुदा हैं तो सिवाय अफसोस करने के आपके पास कोई और विकल्प है नहीं. हां, खुशकिस्मत हैं वे जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई. वह इसलिए क्योंकि उनमें अभी भरपूर संभावना बची है. सच कह रहा हूं. संभावना जमाई राजा बनने की, संभावना दामाद बनने की, संभावना घर जमाई बनने की. संभावना वह सब कुछ पा लेने की जिससे वह अभी तक वंचित हैं. मैं आग्रह और अपील करूंगा ऐसे तमाम संभावनाशील साथियों से कि अगर आपके लिए भी शादी जिंदगी में सिर्फ एक बार होनेवाली घटना है तो उसे सोच-समझ कर घटित होने दें. अपनी ‘दीन-दशा’ सुधारने के लिए रॉबर्ट वाड्रा की तरह किसी धन-संपदा से परिपूर्ण और राजनीतिक परिवार की सुयोग्य कन्या से सुनियोजित विवाह करें. तथास्तु!!!

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

पति बनने से पहले करोड़पति बनना जरूरी

मेरे एक अविवाहित मित्र हैं. उन्हें देख कर मुङो खुद पर बड़ी कोफ्त होती है. उनसे जब भी शादी की बात करो, तो बोलते हैं,‘‘अभी तैयारी कर रहा हूं.’’ एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया. मित्र आखिर इतने वर्षो से आप तैयारी ही कर रहे हो, आखिर यह ‘तैयारी’ है क्या? बोले,‘‘महंगाई का जमाना है. गृहस्थी जमाने के लिए पैसे इकट्ठे कर रहा हूं. पति बनने से पहले करोड़पति तो बन जाऊं.’’ मैं सोच में पड़ गया कि कितना मूर्ख हूं, बिना करोड़पति बने ही पति बन गया. नतीजा सामने है. आटा-दाल के भाव की रोज-रोज की चिंता में सिर के बाल उड़ गये.

अभी इस सदमे से उबर भी नहीं पाया था कि टीवी पर बिग बी का बहुचर्चित शो कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो गया. पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर इस कार्यक्रम के धुआंधार प्रचार का मेरी श्रीमती जी पर भयानक असर हुआ है. एक दिन देखा कि जनरल नॉलेज की ढेर सारी पुस्तकें खरीद कर ले आयी हैं. सुबह-शाम जब देखो उसी में डूबी रहती हैं. अक्सर घर के कोने में पड़ा रहनेवाला उपेक्षित अखबार भी उनको भाने लगा. मुङो घोर अचरज हुआ. यह चमत्कार हुआ कैसे? लेकिन यह बदलाव अच्छा भी लगा. सोचा, छोड़ो कम से कम पढ़ने में रुचि तो हुई, वरना पहले तो हमेशा सास-बहू वाले टीवी सीरियल में आंखें गड़ाये रहती थीं.

उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश था. सुबह के नौ बज रहे होंगे. मेरी बेटी ने मुङो जगाते हुए पूछा, ‘‘हू इज प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया?’’ मैंने करवट बदलते हुए कहा, ‘‘मम्मी के पास जाओ.’’ पर वह डटी रही, बोली-‘‘नहीं पापा, आप ही बताओ.’’ मैंने कहा,‘‘डॉ मनमोहन सिंह.’’ बोली, ‘‘यू आर राइट़ अच्छा अब नेक्स्ट क्वेश्चन..’’ मैंने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, ‘‘बेटा अभी जाओ, सोने दो.’’ खैर वह चली गयी, पर मेरी नींद गायब हो गयी. थोड़ी देर बाद मैं उठा और आदतन अखबार ढूंढ़ते हुए बालकनी में पहुंचा. इतने में दूसरे कमरे से श्रीमती जी अखबार लहराते हुए निकलीं और लाल-पीला होते हुए सवाल दागा,‘‘सलमान खान की हालिया रिलीज सुपर-डुपर हिट फिल्म टाइगर के डाइरेक्टर का नाम बताओ?’

मुङो झुंझलाहट हुई कि आज सुबह-सुबह मां-बेटी को आखिर हुआ क्या है. सवाल पर सवाल किये जा रही हैं. इतने में श्रीमती जी बरस पड़ीं,‘‘अखबार में नौकरी करने से जिंदगी नहीं चलने वाली. अपने पड़ोसी सिन्हा जी को देखो, कौन बनेगा करोड़पति से 27 लाख जीत कर लौटे हैं. आज से रोज सुबह चाय के साथ अखबार के बदले ये जनरल नॉलेज की किताबें पढ़ना शुरू कर दो. इस सीजन में बिग बी के सामने हॉट सीट पर तुम्हें बैठना ही होगा.’’ उस दिन से कोशिश जारी है, ‘करोड़पति’ बनने की. आप सभी की दुआ चाहिए.

रविवार, 9 सितंबर 2012

माई पापा इज माई एटीएम

माई पापा इज माई एटीएम.. बिष्टुपुर के कमानी सेंटर में एक हमउम्र युवक का हाथ पकड़ कर घूम रही युवती के टी-शर्ट पर यही लिखा था. सात वर्षीय मेरी बेटी ने उस स्लोगन को पढने के बाद मुस्कराते हुए मेरा ध्यान उसकी ओर आकृष्ट कराया तो मेरे चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गई. पापा जो बचपन में हमारा ख्याल रखते हैं. पापा जो युवावस्था में हमें सही मार्ग दिखाते हैं और दुनिया से बचाते हैं. वही पापा एक दिन हमारे लिए ‘वस्तु’ हो जाते हैं. वस्तु, जी हां क्योंकि किसी वस्तु का ही हम उपयोग करते हैं. जिनसे हमें प्यार होता है, उनके लिए तो हमारे दिल में सम्मान और समर्पण की भावना होती है, लेकिन आधुनिकता की होड़ में शामिल युवा पीढी में मां-बाप को सिर्फ ‘वस्तु’ बनाने की होड़ है. मानसिकता सिर्फ पाने की, बदले में कुछ देने की नहीं. माई पापा इज माई एटीएम.. महज टी-शर्ट पर लिखा एक स्लोगन भर नहीं है. यह यंग जेनरेशन की सोच को प्रतिबिंबित करता एक वाक्य भी है जिसके गंभीर निहितार्थ हैं.

एक भयावह तथ्य से आपको वाकिफ कराता चलूं. केवल जमशेदपुर ही नहीं झारखंड व बिहार के दूसरे शहरों तथा कोलकाता के साथ-साथ दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई, पुणो, चेन्नई, कटक, भुवनेश्वर सब जगह युवाओं में आत्महत्या की प्रवृति में बेतहासा वृद्धि हो रही है. जमशेदपुर में तो महीने के तीसो दिन यानि, औसतन हर रोज आत्महत्या की कोई न कोई घटना जरू र होती है. कभी पॉकेटमनी के लिए, कभी खेलने से मना करने पर, कभी स्कूटी न खरीदने पर, कभी नये मोबाइल के लिए.. और न जाने कितने बेवजह कारण. हद तो यह कि मां-बाप की जरा-सी भी बात बरदाश्त नहीं होती. संवादहीनता का दायरा व्यापक होता जा रहा है. दोस्तों से फोन पर घंटों बातें करने में कोई गुरेज नहीं रखने वाले बच्चों को अपने अभिभावकों से बात करने में जाने कैसी हिचक होती है. हां, इनकी जिंदगी में सबसे अहम कोई चीज है तो वह है मनी (पैसा). पावर और पैसे के पीछे भाग रही यह पीढी रिश्ते-नाते सबको पीछे छोड़ती जा रही है. सोचा, आखिर यह दिशाभ्रम क्यों है? तभी टीवी पर आ रहे एक विज्ञापन का जिंगल मेरे कानों में गुंजने लगा- ‘हर एक फेंड्र जरू री होता है.’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन आज खुशहाल जीवन के नुस्खे बांट रहे हैं, जिसकी कीमत एक निश्चित रकम से तय होती है. इन विज्ञापनों की कोशिश ‘पैसा बोलता है’ जैसे मुहावरे को जायज ठहराने के साथ उसे स्थापित करने की भी होती है. पैसे के बोलने का मतलब स्नेह, ममता, प्रेम जैसे शब्दों का बाजारीकरण है. क्या सचमूच हमारी जिंदगी में माता-पिता, दादा-दादी, भैया-दीदी, चाचा-चाची के लिए कोई स्थान नहीं रहा. यह क्षरण हमें कहां ले जाएगा?  क्या 'पिज्जा'  हमें ‘पकवान’ से दूर करता जा रहा है?

रविवार, 12 अगस्त 2012

अब, प्रकाशित करें अपनी प्रेम कहानी

क्या आप कोई कहानी लिखने की सोच रहे हैं, और वह भी प्रेम कहानी? बिल्कुल लिखिये क्योंकि इसे आप आसानी से प्रकाशित करा सकते हैं. अपनी प्रेम कहानी प्रकाशित कराने के लिए आपकी उम्र 18 साल या इससे अधिक होनी चाहिए. आपकी प्रेम कहानी गतिशील, प्रेरक, दिल को छू लेने वाली होनी चाहिए और वह भी कम से कम 3,000 शब्दों में.
पेंगुइन इंडिया एक स्पर्धा लव स्टोरीज दैट टच्ड माई हार्टआयोजित कर रहा है. पुरस्कार के लिए प्रविष्टियों का चयन कैन लव हैप्पन ट्वाइजके बेस्टसेलिंग लेखक रविन्दर सिह और पेंगुइन के संपादक करेंगे. पुरस्कृत कहानियां संकलन के तौर पर दिसंबर तक प्रकाशित की जाएंगी. पेंगुइन बुक्स इंडिया की वरिष्ठ संपादक वैशाली माथुर ने प्रेस ट्रस्ट से कहा ‘‘हम इस स्पर्धा के माध्यम से नए लेखकों की खोज की संभावना से रोमांचित हैं. यह स्पर्धा नए लेखकों के लिए अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने का अच्छा मौका है.’’ (भाषा)

शनिवार, 11 अगस्त 2012

यशप्रार्थियों के लिए अनुकरणीय हैं राधे मां

धन के साथ नाम भी हो, ऐसी ख्वाहिश अमूमन हर शख्स पालता है. ‘नाम’ और ‘नामा’ एकसाथ बहुसंख्य लोगों की किस्मत में नहीं होते. कुछ ताउम्र धन कमाने में ही संलग्न रहते हैं, नाम कमाने की उनमें इच्छा ही नहीं होती. कुछ भद्रजन केवल नाम ही कमाना चाहते हैं. खुद नाम न पैदा कर सके तो पैदा किए हुए से उम्मीद पालते हैं- मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा. शोहरत जब बुलंदियों को छूती है, तो आदमी को लगता है कि उसका जीवन सार्थक हुआ. गली की प्रधानी से लेकर देश की प्रधानी के पीछे यही दीवानगी है. कवि-लेखक नाम चमकाने के चक्कर में मसि-कागद के सिलबट्टे पर अक्ल घिसते हैं. हालांकि टन भर अक्ल खर्च करने के बाद यह नाचीज प्राणी छटांक भर इज्जत ही अर्जित कर पाता है. वह भी जरूरी नहीं कि जीते जी मिले. कइयों का नंबर मरणोपरांत आता है. आजीवन कहीं न छप पाने के क्षोभ में कई कवि/लेखक बाद के दिनों में प्रकाशक बन गये. इन्होंने नाम और नामा का महत्व समझा और छपने की खुजली से त्रस्त कई नामचीनों को दाम लेकर नाम दिया.

हाल के वर्षो में कुछ चेहरों ने जिस तरह से नाम ‘कमाया’ है, वह अनुकरणीय हो या न हो, ‘स्मरणीय’ अवश्य है. इनमें मॉडल पूनम पांडेय, पोर्न स्टार सनी लियोनी, निर्मल बाबा और अध्यात्म जगत की नयी सनसनी राधे मां का नाम उल्लेखनीय है. वास्तविकता तो यह है कि एक खास तबका इन नये अवतारों का सर्वाधिक मुखर प्रशंसक और समर्थक है. वैसे भी इस उम्रवालों को ‘मन-मन भावे मुड़िया हिलावे’ वाली डिप्लोमेसी आती ही नहीं.

दरअसल, राधे मां ने ख्याति का वो शार्टकट अपनाया है, जहां कामयाबी के गंतव्य तक पहुंचना असंदिग्ध और न्यूनतम जोखिम से भरा होता है. वह इस रास्ते की न तो निर्माता हैं, न कोलंबस सरीखी अन्वेषक ही. यह शार्टकट तो सदियों से वहीं का वहीं है बस इसे अब एक नाम मिल गया है. इतिहास गवाह है कि हर युग में समाज दुस्साहसियों की तीव्र आलोचना और विरोध के साथ सराहना और अनुसरण भी करता आया है. समय चाहे जितना बदल चुका हो, राधे मां को चाहने और दुत्कारने वाले दोनों हैं. राधे मां के ‘आइ लव यू फ्रॉम द बॉटम ऑफ माइ हार्ट’ जैसे जुमलों पर अमेरिका से लेकर अमृतसर तक और मुंबई से लेकर मुरी तक के ‘भक्त’ जान छिड़क रहे हैं.

राधे मां महामंडलेश्वर रहें या ना रहें, इससे उनके चहेतों को कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है. यकीनन उनके चाहने वालों का बहुमत उनके साथ है. पूनम पांडेय और राधे मां सरीखे नाम कमानेवाले यशस्वियों को आप सराहें या कोसें, पर भुला नहीं पायेंगे. वह अनेक संघर्षरत यशप्रार्थियों के लिए प्रेरणादायक हैं और अनुकरणीय भी!

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

खाली ‘तरकश’ से मेडल नहीं मिला करते

ओलिंपिक के लिए जाने से पहले से भारतीय तीरंदाजों को लेकर बड़े-बड़े दावे किए गए थे. पर वे उन्हें हकीकत में बदलने में पूरी तरह नाकाम रहे. इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है कि जिन स्टार खिलाड़ियों से गोल्ड की उम्मीद की जा रही थी, वे क्वालिफाई करने में भी नाकाम रहे. हमारे खिलाड़ियों के लिए जब खेल से ज्यादा अपने हित महत्वपूर्ण होने लगें, जिम्मेदारी व अनुशासन का कोई दायरा उन्हें बांध न सके, तो फिर भला जीत की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जीत मिल गई, तो अपनी ताकत की वजह से कम, सामने वाले की कमजोरी से अधिक.

अतिआत्मविश्वास ने डूबोया

भारतीय तीरंदाजी टीम ने लंदन ओलिंपिक में करोड़ों खेल प्रेमियों को जिस तरह से निराशा किया है वह निंदनीय है. क्वालिफाइंग राउंड से ही खासकर महिला तीरंदाजों में न तो एकाग्रता नजर आई और न ही वह कूबत जिसकी उम्मीद भारतवासी कर रहे थे. हमारे सभी
धुरंधरतीरंदाज अपने प्रतिद्वंदियों के सामने ढेर होते नजर आए. सबसे ज्यादा निराश किया महिला तीरंदाजों ने. उसमें भी लोग दीपिका से कुछ ज्यादा ही दुखी हैं, क्योंकि वह तो दुनिया की नंबर एक तीरंदाज हैं. यह खिताब ओलिंपिक में जाने से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें हासिल हुआ था. अफसोस कि दीपिका ने उसकी गरिमा को बरकरार नहीं रखा. आत्मविश्वास तो ठीक है, लेकिन अतिआत्मविश्वास ने दीपिका को डूबो दिया. ओलिंपिक के लिए रवाना होने से पूर्व दीपिका ने कहा था ओलिंपिक कोई भूत नहीं है, जिससे डर लगेगा.अब शायद उन्हें यह अहसास भली भांति हो गया होगा कि ओलिंपिक क्या बला है. जीत का दंभ भरने और जीतने में फर्क भी उन्हें मालूम हो गया होगा. उन्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि ओलिंपिक का मेडल पाने के लिए लक्ष्य भेदना पड़ता है सही निशाना लगाना पड़ता है. इसके लिए तीरंदाज के तरकश में कैसा तीरहोना चाहिए. भारतीय तीरंदाजों का तरकशतो खाली था, उन्हें भला मेडल कैसे मिलता? यह सवाल वे जब खुद से करेंगे तो इसका जवाब उन्हें खुद-ब-खुद मिल जाएगा कि क्या उनके तरकश में संकल्प का तीर था, मनोबल का तीर था, एकाग्रता का तीर था, जोश का तीर था. जवाब है नहीं.

ले डूबा अहंकार

काश, भारतीय खिलाड़ी थोड़ा और ज्यादा प्रेशर ङोलने का माद्दा रखते, तो आज ओलिंपिक मेडल लिस्ट में भारत के नाम के आगे लिखे मेडल की संख्या कुछ ज्यादा होती. काश, हमारे तीरंदाज अपनी अभ्यास को और धार देते और एकाग्रता को बनाये रखते तो आज कुछ और बात होती.

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

बिना पिये ही रूठ गये पिया, मनाऊं कैसे?

नंबर दो के भी अपने मजे हैं गुरु. कई लोग बिजनेस में ईमानदारी की रेजगारी से कंगाल होते-होते होश में आये और तुरंत नंबर दो का धंधा अपनाया तो आज करोड़ों में खेल रहे हैं. नंबर एक आदमी हमेशा सही-गलत के फेर में फंसा रहता है और तरक्की की सीढ़ियां चढने से पहले ही लुढ़क जाता है. आज के जमाने में ‘नंबर दो’ की क्या हैसियत यह किसी से छिपी नहीं है. थाने से लेकर दिल्ली में सत्ता के गलियारों तक की उन्हीं की चलती है.

खैर नंबर दो की महिमा अपनी जगह, मैं तो इस बात से हैरान हूं कि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार भला क्यों ‘नंबर दो’ का ओहदा चाहते हैं? वह तो केंद्र सरकार में ‘नंबरी आदमी’ हैं. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक उनकी खासी पूछ है. दरअसल, नेताओं को रूठ जाने की बीमारी होती है. कभी बहाने से, तो कभी बिना बहाने के रूठ जाते हैं. किसी को पार्टी में पदाधिकारी बना दिया जाये तो मुंह फुला लेते हैं. जैसे परिवार में शादी के कथित शुभ अवसर पर फूफा और जीजा ऐन घुड़चढ़ी के अवसर पर रूठ जाते हैं. जीजा रूठे तो थोड़ा जंचता भी है, पर फूफा? घरवाले तो घरवाले, दूल्हा भी जीजू को मनाने में लग जाता है. बारातें अक्सर रूठों को मनाने के चक्कर में रेलगाड़ियों की तरह घंटा दो-घंटे लेट हो जाती हैं. कुछ नेता तो रूठने के मामले में पत्नियों को भी पीछे छोड़ देते हैं. न उनकी मांगें कभी खत्म होती हैं और न उनके रूठने का सिलसिला. वैसे, कई बार तो पिया लोग बिन पिये ही रूठ जाते हैं. तब नारी के लिए प्रॉब्लम हो जाती है कि रूठे-रूठे पिया, मनाऊं कैसे? बाकी मुल्कों का तो पता नहीं, अपने मुल्क में प्रेयसी-पत्नी को मनाने के लिए गहने-लत्तों की दुकानें बेहद सहायक सिद्ध हुई हैं. कुछ महीने पहले स्वर्णकार हड़ताल पर चले गए थे. परिणास्वरूप तलाक के मामलों में खासा इजाफा हो गया था.

पुरानी बात क्यों, रूठने की ताजा घटना बताता हूं. अपने एशिया संस्करण में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की तस्वीर मुखपृष्ठ पर देते हुए टाइम पत्रिका ने शीर्षक दिया ‘द अंडरअचीवर’. सरकार के निंदक, योग से राजनीति में कूदे बाबा रामदेव ने इसका हिंदी अनुवाद फिसड्डी के रूप में किया है और अब मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा इस विशेषण को ही प्रसारित-प्रकाशित किया जा रहा है. फिसड्डी एक नकारात्मक भाव वाला शब्द है, जिसका अभिप्राय पिछड़ जाने से है. कक्षा में कुछ छात्र होशियार होते हैं, कुछ फिसड्डी. खेल में कोई विजेता होता है, कोई फिसड्डी. अंडरअचीवर का अगर थोड़ा सुसंस्कृत भाषा में अनुवाद किया जाता, तो इसे ‘उपलब्धिहीन’ कहा जा सकता है, अर्थात् जिसकी उपलिब्धयां कम हों. पर क्या कहें, अर्थ लगानेवाला तो अपने ‘दिमाग’ का इस्तेमाल करता है. जब से यह प्रकरण हुआ है, तब से कुछ लोगों का मुंह भी फूला हुआ है. मुङो तो लगता है यह ‘नमी’ का असर है.

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

पापा जल्दी मत आना

रांची से टाटा आ रही एसी बस में यात्र कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है. आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं. पर वे बिल्कुल जमाने से बेपरवाह. चांडिल आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है. ‘पापा हैं’, युवती युवक से कहती है. ‘जी पापा, बस अभी-अभी खुली है. आप बस स्टैंड आराम से मुङो लेने आना.’ लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं. उसने अपने पापा से झूठ बोला है. वह जमशेदपुर के इतने करीब पहुंच चुकी है और खुद को रांची में बता रही है. युवक, ‘तुमने पापा को अच्छा उल्लू बनाया.’ लड़की मुस्कुराती है.

यह महज एक वाकया नहीं बल्कि भविष्य का वह डरावना सच है जिसे स्वीकार करते हुए हमें हिचकिचाहट हो सकती है. क्योंकि हर पिता सिर्फ और सिर्फ यही सुनने का आदी है ‘पापा जल्दी आना.’ और नयी पीढी की यह सोच - पापा जल्दी मत आना..यहां तुमसे भी जरूरी कोई है. जिसके साथ मैं अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती/चाहता हूं. तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है. पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना..

आप मानिये या न मानिये समाज बहुत आगे निकल चुका है. आज पांच बरस के बच्चे को भी गले लगाते हुए डर लगता है. एक शिक्षक ने बताया ‘क्लासरूम में बच्चियां कहती हैं कि आप हमें बेटा क्यों कहते हैं सर.’ रिश्ते असहज हो रहे हैं. समय से पहले फल पक जाए तो स्वाद और सेहत दोनों ही पैमाने पर खरा नहीं उतरता. योग की कक्षाओं के लिए बहस भले न छिड़े, लेकिन यौन शिक्षा पर खुद को बुद्धिजीवी समझने वाला हर व्यक्ति इसकी पैरवी करता नजर आता है. इस पक्षधरता से वह अपने-आप को अभिजात्य और अधिक समझदार होने का दंभ भर सकता है.

आप कागज पर कानून बनाते रहिए और समाज की बखिया उघेड़ते रहिए. नतीजा वही होगा जो सामने है. ऊंचाई पर चढना और वहां अड़ना बहुत मुश्किल है. आसान है वहां से गिरना. यह समाज जिस रास्ते चल पड़ा है, उससे आगे का रास्ता भले चमकीला दिख रहा हो, लेकिन यह अंधेरे से पहले की चमक है. बहुत-से बुद्धिविलासियों को यह बात निगलने में मुश्किल होगी, लेकिन यह सच है. अब नानी-दादी की कहानियों का संबल नहीं है. चाचा-मामा तो अतिथियों की सूची में आ गए हैं. कौन संभालेगा इस टूटते-दरकते और बिखरते परिवार को, जो एक खोखले होते समाज की सबसे छोटी इकाई है! जब बचपन ‘पालना घर’ में और बुढापा ‘वृद्धाश्रम’ में बीतने लगे तो सोचने का समय है. बाजार हमें इसलिए तोड़ रहा है क्योंकि उसके लिए हम केवल उपभोक्ता हैं.

बुधवार, 11 जुलाई 2012

नाखून बढ़ गये हैं, तो काटते क्यों नहीं?

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सुप्रसिद्ध निबंध है- नाखून क्यों बढ़ते हैं. नाखून मनुष्य की आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है, जो बार-बार बढते हैं और आधुनिक मनुष्य उन्हें हर बार काट कर हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है. जीवन में ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों से आये दिन हमारा साबका पड़ता है. सभ्य समाज इनको नियंत्रित करने की कोशिश करता है. साधु-संत बुराइयों से दूर रहने के उपदेश देते हैं. सरकारें भी इन्हें रोकने के लिए कानून बनाती हैं. इसे एक तरह से नाखून काटना माना जा सकता है. बुराई को जड़ से खत्म करना तो संभव नहीं, लेकिन जो इनमें लिप्त होते हैं, वे समाज में प्रवाद माने जाते हैं.

इस लिहाज से यह दौर भयावह है. हम अपने चारों तरफ बड़े-बड़े नाखूनों को देख और महसूस कर सकते हैं. इस दौर में पल्लू के नीचे.., मुन्नी बदनाम हुई.. और शीला की जवानी.. जैसे गीत सिनेमा के परदे से उतर गलियों में गूंज रहे हैं. यहां नैतिकता की ठेकेदारी या संस्कृति की झंडाबरदारी का सवाल नहीं है. सवाल सामाजिक है. इस तरह के गीत, संवाद या दृश्य किस समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं? क्या इन गीतों, संवादों और दृश्यों का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किस समाज को गढ़ने की कोशिश की जा रही है? कौन-से आदर्श स्थापित किये जा रहे हैं?

चूंकि ‘पुरवइया’ से ज्यादा हमें ‘पछुआ’ पवन भाती है, इसलिए जो भी झोंका वहां से आता है, हमारे मन को खूब सुहाता है. शायद यह उन 200 बरसों का असर हो? हम कहां सोच पाते हैं कि झोंका अगर बवंडर बन गया? तो हमारी सारी जड़ें उखाड़ देगा. एक विज्ञापन के मुताबिक कोई विशेष शेविंग क्रीम चुंबन के लिए ही लगायी जाती है. अगर गौर किया हो तो एक विज्ञापन हम सबको चॉकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है. बात समझने में देर नहीं लगती कि हम क्या कहना और करना चाहते हैं. एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है.

एक से जी नहीं भरता, ये दिल मांगे मोर जैसे जुमले जब बच्चों और युवाओं के कानों में पड़ते हैं, तो उन्हें इनका अर्थ कोई नहीं समझाता, वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं. सड़क पर चलती हर लड़की-औरत उन्हें ‘मुन्नी’ और ‘चमेली’ ही नजर आने लगती है. उसके बाद जो होता है, वह चैनलों और अखबारों के लिए दिन भर की खबर बन जाता है.

...और अंत में, स्व सुभाष दशोत्तर की कविता की ये पंक्तियां : हमारी हथेलियां, हमारे कलाइयों के भीतर चली गयी हैं, बाहर असंख्य सुविधाएं हैं, मगर हमारे पास, अब वो उंगलियां नहीं हैं, जिनसे बटन दबता है, ऐसे ही हमारे पांव, हमारी टांगों के भीतर चले गये हैं, अब हम वहां नहीं पहुंच पायेंगे, जहां पांव ले जाना चाहते थे.

शनिवार, 7 जुलाई 2012

बोल बच्चन उर्फ बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें

जिसका कद जितना ही बड़ा उसकी बात भी उतनी ही बड़ी. यानि, बड़े लोगों की बड़ी बातें. या यूं कहिये कि ‘बोल बच्चन.’ यह बोल बच्चन जितना ही रोचक, उतना ही मजेदार. पेश है पिछले 24 घंटे के बोल बच्चन की झलकियां :

हरफनमौला क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग की सुनिये ‘विश्वकप अकेले धौनी के खेलने से हासिल नहीं हुआ, इसमें पूरी टीम का योगदान है.’ अब भला इस हरियाणवी छोरे से कोई यह पूछे कि यह भी कोई कहने व बताने की बात है. यह तो सब जाने हैं.

बांग्लादेश की चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन की खुशी थोड़ी प्राइवेट किस्म की है ट्विट किया ‘अभी-अभी एक उपन्यास खत्म किया है. ऐसा महसूस हो रहा है, जैसा जी-स्पॉट आर्गेज्म हासिल करने पर होता है.’

क्रिकेटर रोहित शर्मा ने कहा ‘मैं टीम इंडिया में वापसी के बारे में नहीं सोच रहा.’ लो कर लो बात आपको लेने की सोच कौन रहा है?

ममता बनर्जी का ताजा बयान ‘देश में कायर और कमजोर नेताओं की बाढ आ गयी है.’ इस बयान का मकसद और मतलब तो दीदी ही जानें पर है यह बात सोलह आना सच. वैसे दीदी बोलती खरी-खरी हैं. चाहे वह अपने पार्टी के नेताओं के खिलाफ हो या फिर केंद्र सरकार के. हालांकि एक मुद्दे पर उनके बोलने का इंतजार पूरे देश की जनता कर रही है. वह मुद्दा है राष्ट्रपति चुनाव. लोग यह जानने को बेताब हैं कि आखिर दीदी की ममता किस पर बरसेगी. एक तरफ प्रणब मुखर्जी खेमा दिनरात एक किये हुए है तो दूसरी तरफ पीए संगमा को दीदी पर पूरा भरोसा है. पर पब्लिक पसोपेस में है. उसे समझ में नहीं आ रहा दीदी क्या करने वाली हैं. उड़ते-उड़ते तो खबर यह भी आ रही है कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मन माफिक तय करवाने में नाकाम रही ममता इस जुगाड़ में हैं कि मुलायम के साथ मिल कर उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार अपनी पसंद का खड़ा करवा सकें.

उधर, प्रणब दा को कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाये जाने को मजाक बताते हुए भाजपा ने कहा ‘प्रणब को राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बना कर कांग्रेस ने उन्हें कोई इनाम नहीं दिया है बल्कि उनसे मुक्ति पा ली है. प्रणब वित्तीय प्रबंधन के मामले में पार्टी पर बोझ बन गये थे.’

लालू यादव ने भाजपा-जदयू गठबंधन पर चुटकी ली ‘घबराओ मत, मौका मिलेगा, डाइवोर्स होने ही वाला है.’ जदयू भी कहां चुप रहनेवाला था. आगामी चुनाव में राजद की तरफ से 50 प्रतिशत टिकट युवाओं को देने के लालू प्रसाद के बयान पर पलटवार किया ‘पुत्रमोह में युवाओं की बात कर रहे हैं लालू.’

और बिग बी यानि अमिताभ बच्चन की सुनिये ‘हम मिसाइल लांच करने में तो कामयाब हो जाते हैं पर एक बच्ची को बोरवेल से निकालने में नाकामयाब.’ सच्ची बात है मिस्टर बच्चन पर मशीन और इंसान में अंतर तो आपको मालूम ही होगा.

और अंत में मार्क ट्वेन के बोल बच्चन ‘अगर आप भूख से मरते एक कुते को उठा लाइये और उसका पालन-पोषण कीजिये तो वह आपको नहीं काटेगा. आदमी और कुत्ते में यही अंतर है. ’

गुरुवार, 28 जून 2012

महंगाई की तपिश और मॉनसून के नखरे

महंगाई की तपिश में मानसून नखरे दिखा रहा है. नल में पानी नहीं है. बीज और उर्वरकों में बेतहासा मूल्यवृद्धि के बाद उदासीन हो चुके किसानों के खाली खेतों में घोटाले की घास उग आयी है. बाजार में बिक रहा ‘आम’ लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है. बेइमानी की पानी से जला हुआ आदमी लस्सी भी फुंक-फुंक कर पी रहा है. यह बड़ा ही भयावह दौर है.
100 दिन में महंगाई को ‘मटियामेट’ कर द...ेने का दावा करने वाली सरकार आज कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं है. एक आंकड़ा देखिये- तब डीएपी 520 रुपये प्रति बोरी था आज 1000 रुपये है, पेट्रोल 49 रुपये प्रति लीटर से 79 रुपये और दाल 58 से 100 रुपये प्रति किलो बिक रहा है. अनाज के दाम भी अगर इसी रफ्तार में बढते रहे तो अभी हम बीन कर खाते हैं, आगे गिनकर खाना पड़ेगा. समझ में नहीं आ रहा इसके लिए सरकार दोषी है या पब्लिक? हर आदमी ‘आम’ हो गया है और परेशानियों से ‘पक’ गया है.
अभी कल की ही बात है. सब्जी मार्केट से लौटने के बाद श्रीमती जी का चेहरा लाल हुआ पड़ा था. सहमते हुए मैंने पूछा ‘क्या हुआ ‘भाग्यवान’? चेहरे पर गरमी का असर है या गरमी ही है.’ बोलीं- आप तो चुप ही रहिये. महंगाई का किस्सा अखबार में छाप-छाप के सबका दिमाग खराब कर रखा है. सब्जियों के दाम में आग लगी है, रिक्शे वाला 10 के बजाय 20 रुपये मांग रहा है. कहता है- मैडम, आपको पता नहीं क्या पेट्रोल का दाम बढ गया है. अब भला पेट्रोल के दाम बढने से रिक्शे का भाड़ा बढाने का क्या औचित्य?’ मन तो हुआ कि रिक्शे वाले के बचाव में दो शब्द कहूं पर श्रीमती जी के ‘शब्दबाण’ की डर से मेरी बात मेरे हलक में ही सूख गयी. मैंने एक गिलास ठंडा पानी उनकी खिदमत में पेश किया और बोला- छोड़ो जाने दो. पानी गला से जैसे-जैसे नीचे उतरा उनका गुस्सा कुछ कम हुआ. बोलीं ‘एक तो इतनी गरमी और उपर से इतनी महंगाई. आखिर कोई कैसे गुजर-बसर करे. सचमूच जिंदगी टफ हो गई है.’ मुझसे रहा नहीं गया ‘देखो, इतना भी निराश होने की जरू रत नहीं. यह महंगाई तो बस इस मौसम में चल रही तपिश की तरह है जो मॉनसून के आते ही छू मंतर हो जाएगी.’ जवाब था ‘पर मॉनसून भी तो नखरे दिखा रहा. लगता है सरकारी नीतियों से रू ठ गया है. कभी केरल तो कभी बंगाल में झलक दिखा कर कहीं छुप जा रहा. हमारी सरकार तो कुछ करने से रही. विपक्ष भी बावला हो गया है. यह कैसी व्यवस्था है जो दिन-रात मेहनत करने वाले मजदूर को या अन्न उपजाने वाले किसान को प्रतिदिन के 200 रुपए नहीं देती है, पर केवल क्रिकेट खेलने की काबिलियत के लिए किसी को 40 लाख रु पए देने को तैयार है?’

बुधवार, 13 जून 2012

फिक्रमंद मां-बाप यानि मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त


मेरे पड़ोसी बब्बन पांडेय का सबसे छोटका बेटा जब से मैट्रिक पास हुआ है तब से उसका पूरा परिवार कुछ परेशान रह रहा है. मिसेज पांडेय तो बेटे के पास होने की मनौती उतारने मंदिर और दरगाहों का चक्कर लगा रही हैं तो तथाकथित जानकारों के दर की खाक छान रहे हैं. दरअसल, वे इस बात को लेकर कुछ दिग्भ्रमित लग रहे हैं कि मैट्रिक के बाद बेटे का दाखिला कहां और किस सब्जेक्ट में करायें. इस माथापच्ची में उनके सिर का आधा बाल तो उड़ ही गया है समङिाये. थके-हारे पांडेयजी जब घर लौटते हैं तो उनकी मलिकाइन टेंशन भगाने वाला ठंडा-ठंडा, कूल-कूल तेल की मालिश खोपड़ी पर करती हैं. पर छोटका को इस सबसे कोई लेना-देना नहीं. वह तो परीक्षा देने के बाद से ही नानी के घर मौज काट रहा है. अभी कल की ही बात है, पांडेय जी कहने लगे ‘जाने कवन नछतर में पैदा हुआ था ससुरा. उसके हर काम में कुछ ना कुछ लमेट जरू रे लगता है.’

इतना सुनते ही मलिकाइन मछियाइल मछली की तरह बिफर पड़ीं ‘अपना कोख से जनमल लक्ष्का के बारे में कोई भला ऐसा कहता है.’ पांडेय जी को भी ताव आ गया ‘आपको कुछ बुझाता-उझाता तो है नहीं. हमको परवचन सुनाने से क्या फायदा, कभी लक्ष्कवा को भी कुछ काहे नहीं समझाती हो. दिनभर ससुर के नाती बहेंगवा के जइसन इधर-उधर छिछिआइल फिरता है. उसको अपने भविष्य का कुछ चिंता फिकिर भी है? ठीक से पढ लिख लेगा तो उसी को न फायदा होगा? तुम्हारे जंतर-मंतर कराने और उसके गले में गंडा-ताबीज की घंटी बांध देने से उसका कवनो भला नहीं होने वाला. भला तो तब होगा जब वह मन लगा के पढाई-लिखाई करेगा. अपने देश के प्रथम राष्ट्रपति रजिंदर बाबू (राजेंद्र प्रसाद) की योग्यता और बुद्धिमता किसी गंडा-ताबीज और टोना-टोटका की देन नहीं थी. वह उन्होंने अपने दम पर पाया था. तुम्हरा नइहर (मायका) भी तो रजिंदर बाबू के गांव के पासे न है. तुम्हरी खोपड़िया में यह सब बात काहे नहीं समाता. दूनो माई-बेटा एके जइसन हो.’

मलिकाइन भी कहां कम थीं. नइहर की बात सुनते ही बमक गईं ‘हमर बाबूजी पेशकार थे,भाई कलक्ट्रेट में बाबू है. आपके जइसा माहटरी में सिर नहीं खपाता.’ अब बारी पांडेय जी की थी ‘ कहे देते हैं, इहे हाल रहा तो बेटवा चपरासियो नहीं बन पावेगा.’

पति-पत्नी में यह सब चल ही रहा था कि छोटका लाल सर्ट और डेनिम जींस पहने अवतरित हुआ. देखा मां-बाबूजी दोनों का चेहरा तमतमाया हुआ है. उसे समझते देर नहीं लगी कि मुद्दा मैं ही हूं. उसने भी अपने तरकश का तीर चला दिया ‘बाबूजी, मैं कल मामू के बेटे के साथ पटना जा रहा हूं. कॉमर्स कॉलेज से एडमिशन फॉर्म लाने.’ पांडेय जी स्तब्ध थे. वे खुद को ही कोसने लगे ‘मैं तो बेवजह ही परेशान हो रहा था.’

सोमवार, 4 जून 2012

रिश्ते तोड़ रहा फेसबुक?


फेसबुक जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने आज की दुनिया में क्रांति ला दी है। जीवन के हर स्तर पर इन नेटवर्किंग साइट्स का अहम रोल है। फिर बात चाहे दो दिलों को मिलाने की हो या फिर दुनियाभर में चल रहे आंदोलनों और क्रांतियों की। मगर अब जबकि इंटरनेट पर्सनलाइज्ड हो चुका है यानि आपके साथ हमेशा बने रहने वाले फोन तक पहुंच गया है। ऐसे में इनके साइड इफैक्ट्स भी सामने आने लगे हैं। एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में एक तिहाई रिश्ते सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से टूट रहे हैं।

सर्वे में एक पत्नी की शिकायत थी कि उनके पति जब भी ऑफिस से आते थे तो फेसबुक पर लग जाते थे। उनकी चैटींग से वो परेशान थी, जिस वजह से उनके बीच झगड़े होते थे। उन महिलाओं की मानें तो फेसबुक को बंद कर देना चाहिए। फेसबुक से आने वाली जेनरेशन को बहुत प्रॉब्लम होने वाली है।

जबकि पति के मुताबिक मेरे मोबाइल में फेसबुक था जिसपर मैं चैट करता था। मैं अपनी एक महिला दोस्त से चैट कर रहा था। जो मेरी बीवी ने देखा। जिस पर काफी बवाल हुआ। एक महीने तक हमारी बातचीत बंद रही थी। मैंने उस महिला दोस्त को घर बुलाया और उसके बाद ही मामला शांत हुआ।

मुंबई में भी एक रिश्ता टूटने के कगार पर पहुंच गया था। दिन भर ऑफिस में काम करने के बाद शाम को पति घर आता था तो वो बीवी से बातचीत के बजाय अपने फोन में मौजूद फेसबुक के जरिए अपने दोस्तों से चैटिंग करने लगता। जाहिर है बीवी को पति का बर्ताव खटका। लिहाजा, उसने पति का फोन खंगाला तो पाया कि एक महिला से चैट की जा रही थी। लड़की से बातचीत पर पत्नी भड़क गई। मामला फैमिली कोर्ट तक पहुंच गया। फैमिली कोर्ट अगर मामला ना संभालता तो आज इनकी शादी-शुदा जिंदगी तबाह हो चुकी होती।

रिश्ते की डोर बड़ी नाजुक होती है और इसमें गलतफहमी की गुंजाइश बहुत कम है, क्योंकि सोशल नेटवर्किंग साइट गलतफहमी का एक बड़ा जरिया बनता जा रहा है। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्कींग साइट्स की वजह से दुनिया तो मुठ्ठी मे आ गई लेकिन रिश्तों मे दरार पड़ने लगी। इन साइट्स की वजह से नौबत ये आई है की पराए करीबी होने लगे हैं और करीबी पराए होने लगे हैं।

क्या आपकी राय में यह बात सही है की फेसबुक रिश्ते तोड़ रहा है?


बुधवार, 16 मई 2012

लोक कलाएं हमारी बड़ी धरोहर


वरिष्ठ साहित्यकार डॉ उदयन वाजपेयी पिछले दिनों जमशेदपुर (झारखंड) में प्रभात खबर द्वारा आयोजित लोककला प्रदर्शनी ‘भोली रंग रेखाएं’ में आये थे और उन्होंने ‘लोककलाओं के अंतसर्ंबंध और चुनौतियां’ विषय पर अत्यंत सारगर्भित व्याख्यान दिया. पेश है हू-ब-हू व्याख्यान -

लोक कला शब्द भारत में बहुत पहले से उपयोग में नहीं है, यह अंगरेजी के फोक आर्ट का अनुवाद है. फोक शब्द में पशु, पक्षी, पेड़-पौधे आते हैं, जबकि लोक शब्द में मनुष्य आते हैं. पहले इसे देशी कलाएं कहा जाता था. दो किस्म की कलाओं का उपयोग भारत में बहुत पहले से होता आ रहा है, भारत उन अनूठे देशों में से है, जिनमें कला और कलाकार पर विस्तार से चर्चा होती आ रही है. भारत में कलाओं की गहरी स्वीकृति बहुत पहले से रही है. यहूदी, ईसाई व इसलामिक परंपरा वाले देशों में स्वतंत्र सत्ता वाली कलाओं की स्वीकृति नहीं थी. इन सभ्यताओं का कोई दार्शनिक आधार नहीं था. आप जानते होंगे कि बहुत समय तक यूरोप में आंगिक अभिनय की स्वीकृति नहीं थी. क्योंकि वहां यह मान्यता थी कि ईश्वर की बनायी हुई सृष्टि परफेक्ट है और परफेक्ट की नकल नहीं की जा सकती. इसीलिए यूरोप की नाटय़कला लंबे समय तक अविकसित रही. आधुनिकता की शुरुआत में इस पर काम शुरू हुआ.

यूरोप में शेक्सपीयर के नाटकों को पढ़ने की आदत सी थी. नाटकों में लगभग खड़े होकर संवाद बोल दिया जाता था, क्योंकि वहां आंगिक अभिनय की इजाजत नहीं थी. आंगिक अभिनय करना ईश्वर का अपमान करना माना जाता था. भारत में जो तमाम कलाएं हैं, उनका दार्शनिक आधार हमेशा रहा है. यह बड़ी बात है. कलाओं की स्वतंत्र सत्ता का दार्शनिक आधार होना सभ्यताओं के लिए अच्छा माना जाता है. इसलिए आप देखेंगे कि भारत में लंबे समय तक देशी परंपराएं, लोक परंपराएं, नाटय़ कला बड़ी समृद्ध रही हैं. इसलिए यह समझ लें कि इन तमाम कलाओं की बहुलता, जो हमारे देश में है उसका आधार हमारी इस सभ्यता में ही है. यह इसलिए हो सका क्योंकि भारत में यह माना जाता रहा कि कलाएं भी दूसरी ज्ञान परंपरा की तरह सत्य को प्रकट करने का एक वैध माध्यम हैं. कलाओं को भी मनुष्य के सत्य को प्रकट करने का एक स्वतंत्र अधिकार है, यह स्वीकृति भारत में रही है. आप कहेंगे कि इसमें क्या खास बात है? खास यह है कि यूरोप में लंबे समय तक यह माना जाता रहा है कि सत्य खोजने का काम तो धर्म का है. कलाएं ज्यादा से ज्यादा खोजे गये सत्य के प्रचार का काम कर सकती हैं. वह सत्य को खोजने या उदघाटित करने का काम नहीं कर सकतीं. यह यूरोप की विडंबना थी कि क्योंकि उनका मानना था कि उन्होंने बड़ी मेहनत करके यह दुनिया बनायी है. ऐसी मान्यता के बाद भी वहां कलाओं का बाद के दिनों में व्यापक विकास हुआ.

भारत में कलाओं के अस्तित्व का स्वतंत्र आधार हमेशा रहा है. उदाहरण के लिए कालीदास को कोई इसलिए नहीं पढ़ता कि वे शैव दर्शन के उदाहरण मात्र हैं. कितनी भी टीकाएं पढ़ लीजिए कहीं यह बात आपको नहीं मिलेगी. बल्कि उनकी पहचान एक स्वतंत्र रचयिता के रुप में है. कलाएं हमारी बड़ी धरोहर हैं, लेकिन न समझने के कारण धीरे-धीरे ओझल होती जा रही हैं. मैं फिर वहीं आता हूं जहां से मैंने अपनी बात आरंभ की थी. हमारे देश में लोक परंपरा शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था, बल्कि देशी परंपराएं शब्द का इस्तेमाल होता था. वृहत देशी नाम से एक गं्रथ दसवीं सदी में लिखा गया था. मतंग मुनि ने उसकी रचना की थी. उसमें वे दो तरह की कलाओं का जिक्र करते हैं. एक को कहते हैं मार्गी और दूसरे को कहते हैं देशी. देश का मतलब स्पेश है. कंट्री बाद में हुआ. देशी कला यानी, दोहराव. इस कला का आधार दोहराव है. यह दोहराव से ही जिंदा रहती है. जैसे- करमा नृत्य और शहला नृत्य. आप कोई भी लोक नृत्य या लोक गीत देख लीजिए उसमें ज्यादातर दोहराव ही है. सब जानते हैं कि यह नृत्य क्या है. उस लोक गीत में, उस लोकनृत्य में सारे लोग शामिल होते हैं. साझा करते हैं. अगर आप ध्यान दें तो यह साझा करने, शामिल होने का ही नृत्य है. इसके जरिये पूरा समाज अपनी संबद्धता महसूस करता है. वह यह महसूस करते हैं कि वे एक हैं, हमारा एक-दूसरे से जुड़ाव है. देशी कलाओं के मूल में यह बात है कि उनमें से सामुदायिक चेतना का जन्म होता है. इससे हम अपनी सामुदायिक स्मृतियों को जिंदा रखते हैं. उसे साझा करते हैं. इस इलाके का मुङो नहीं पता पर भोपाल में गरबा नृत्य का आयोजन होता है. एक बड़े से अहाते में लड़के-लड़कियां गरबा करते हैं. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि ये जो नकली गरबा नृत्य करते हैं, आप इस बारे में क्या कहेंगे? मैंने कहा यह एक पूरक नृत्य है. आज शहरी सभ्यता में लोगों के पास समय नहीं है लोग एक साथ नाचना-गाना भूल गये हैं. आप बतायें कि शहर में कितने लोग एक साथ नृत्य करते हैं. हम शहरी लोग संबद्धता को भूल गये हैं. दरअसल हमारे जेनेटिक सिस्टम में, हमारी गहनतम अनुभूतियों में एक-दूसरे के प्रति चाहना है. यह चाहना कैसे पूरी होगी. तो इसलिए ये लोग गरबा करते हैं. फिल्मी डांस करते हैं. हमारे मित्र और मशहूर रंगकर्मी सत्यदेव दूबे का मानना था कि फिल्मी गीत एक तरह का शहरी गीत है. इस बात में एक टूटा-फूटा सच है. शहरों में जब हम आये तो संबद्धता लाने वाले ये लोक नृत्य, लोक गीत कहीं छूट गये. फिर हमने संबद्धता महसूस करने के लिए आधुनिक प्रतीक ईजाद किये, लेकिन उसका कुछ हो नहीं पा रहा है. उदाहरण के तौर पर राष्ट्रगान, झंडोत्ताेलन को ले लीजिए, पर इस सबसे हम महज औपचारिक तौर पर ही जुड़ाव महसूस करते हैं. जो जुड़ाव लोकगीत, लोकनृत्य से होता था वह दुर्भाग्य से शहरों में उपलब्ध नहीं है. एक लंबे समय से भारत ही नहीं पूरी दुनिया के गांवों में लोकगीत, लोकनृत्य एक सामाजिक संबद्धता का प्रतीक रहा है. सामाजिक संबद्धता को लोगों के भीतर जीवित रखते हैं सामुदायिक बोध को बनाये रखते हैं क्योंकि इसमें दोहराव है, क्योंकि इसमें सब तरह के लोग शामिल रहते हैं. यह एक तरह की कला है जिसे मतंग मुनि ने देशी कला कही. दूसरी तरह की कला मार्गी है. इन दोनों तरह के कलाओं में कोई छोटी या बड़ी नहीं है. दो अलग उपयोग है, दो अलग चरितार्थ हैं.

मार्गी शब्द मार्ग से बना है और मार्ग शब्द मृग्या से. मृग्या का अर्थ शिकार करना होता है. मार्ग का अर्थ दरअसल रोड नहीं होता. मार्ग का अर्थ होता है वह रास्ता जिससे जाकर शिकार करते हैं. मार्ग का अर्थ होता है नया रास्ता. क्योंकि शिकार अगर आप बने बनाये रास्ते से करेंगे तो वह भाग जायेगा. आपको लगातार नया रास्ता अन्वेषण करना होता है उसे मार्ग कहते हैं. मार्गी वह कला है जो हर बार अपने लिये नया मार्ग ढूंढती है, जो हर बार नये ढंग से बनती है, हम उन्हें शास्त्रीय कला भी कहते हैं. उदाहरण के लिए आप फणीश्वर नाथ रेणु का कोई उपन्यास पढं़े. रेणु ने उपन्यास उस तरह से नहीं लिखा जिस तरह से उनके पहले लिखा जाता. रेणु ने उपन्यास लिखने के लिए नया रास्ता ढूंढा. इसलिए रेणु एक मार्गी उपन्यासकार हैं. शास्त्रीय कला को क्लासिकल आर्ट भी कहते हैं. मैं आपको स्मरण करा दूं कि क्लासिकल शब्द यूरोप से आया है. चूंकि वहां की कला का कोई इतिहास नहीं था, वहां कलाओं पर पाबंदी थी तो वे ग्रीस से खींचकर ले आये और कहा कि यह हमारा अतीत है. क्लासिकल का मतलब क्लोज भी होता है पर हमारे यहां शास्त्रीय का मतलब मार्गी से है. शास्त्रीय कलाओं के तहत आप देखेंगे कि कोई भी नाटक या गायन चाहे कितनी बार भी हो, हर बार नये तरीके से होता है. आप जब भी उसे देखेंगे तो पायेंगे कि उसमें मूल बात वही है लेकिन उसे नये तरीके से पेश किया जा रहा है. चूंकि आप इसकी कल्पना पहले से नहीं करते हैं इसलिए आप उसमें शामिल नहीं होते हैं. दरअसल यह कला आपको विचारशील बनाती है, आप नये तरीके से सोचते हैं. यह आपको अपने आप से प्रश्न करना सिखाती है. गार्गी कला का निहितार्थ यह है कि यह हर बार खुद को नये ढंग से प्रस्तुत करती है/रचती है. यह आपको सजग बनाती है और आत्म सजग बनाना ही इस कला की बहुत बड़ी विशेषता है. इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि साहब हमें तो देशी कला ही चाहिए क्योंकि इसमें अधिक लोग शामिल होते हैं वे गलत करते हैं. देशी कला भले ही आपको ज्यादा से ज्यादा लोगों में शामिल करती हो पर आपको आत्म सजग बनाने का काम तो मार्गी कला ही करती है. और लोकतंत्र बिना व्यक्ति के आत्मसजग हुए सफल नहीं हो सकता. सिर्फ सामुदायिक बोध भर से समाज नहीं चला करता. समाज को सामुदायिक बोध चाहिए तो आत्मसजगता भी चाहिए.

भारत में देशी और मार्गी कलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है. दोनों कलाओं का निहितार्थ अलग-अलग है पर भूमिका एक है. दोनों तराजू पर एक बराबर हैं. जितनी भी ताकतवर सत्ताएं रहीं किसी ने भी मार्गी कला को प्रश्रय नहीं दिया. चाहे वह हिटलरशाही हो या नाजीवाद हो. इन्होंने हमेशा मार्गी कला को हासिये पर रखा. क्योंकि मार्गी कला हमेशा एक सजग नागरिक पैदा करती है. इन शासकों को खतरा तो लोक कला से भी महसूस होता था. इसीलिए उन्होंने जानबूझकर दोनों कलाओं को अलग-अलग तरीके से नुकसान पहुंचाया. यूरोप में तो एक खास तरक की कविता लिखने पर भी पाबंदी थी. दरअसल इन शासकों को यह लगता था कि अगर नागरिक सजग होंगे, जागरूक होंगे, तो सवाल करेंगे. सामाजिक और सत्ता की गड़बड़ियों के प्रति जवाबदेही तय करने के सवाल पैदा होंगे. सवाल पैदा होंगे तो उसके जवाब देने पड़ेंगे, जवाब देने पड़ेंगे तो प्रभुत्ता में दरार पैदा होंगे और दरार पैदा होंगे तो इससे सत्ता को खतरा हो सकता है.

जब तेजी से हमारी सभ्यता का शहरीकरण हुआ तो हम शहर तो आ गये पर लोककलाओं को गांवों में ही छोड़ आये. इस कारण ज्यादातर शहरों में सामाजिक संबद्धता धीरे-धीरे कम होती गयी. उसका परिणाम आज हम सभी महसूस करते हैं. हममें से बहुत सारे लोग यह महसूस करते हैं और यह सच भी है कि विभिन्न संस्थाओं में काम करने वाले लोगों को जैसे कहीं और से ज्यादा पैसा या बड़ा पद मिलता है वे वहां चले जाते हैं. यानि हमारे अंदर एक संगठन के प्रति, एक समाज के प्रति, एक संस्था के प्रति जवाबदेही खत्म हो रही है और ऐसा पढ़े-लिखे लोग कर रहे हैं. यानि बड़ी-बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के पास भी सामाजिक संबद्धता की युक्ति नहीं है. यह हमारे लिए बड़ा लॉस है. तभी तो कहीं कोई व्यक्ति राष्ट्रगान या राष्ट्रध्वज का अपमान करता है तो हमें आश्चर्य होता है. यह इसलिए है क्योंकि अधिकतर लोगों के अंदर सामुदायिक बोध या सामाजिक संबद्धता का घोर अभाव है. यह औद्योगिकीकरण के बाद तेजी से हुआ है. अब शहरों में जो कलाएं बची हैं वह ज्यातर मार्गी कला है. पर हमारे अधिकतर राजनेताओं को इसकी समझ नहीं है. हां, पहले हमारे कुछ नेता ऐसे थे जिनको कलाओं की समझ थी. अब तो अधिकतर ब्यूरोक्रेटस कला को साजो-सामान की वस्तु भर मानते हैं. उनको लगता है कला है तो ठीक है, नहीं है तो भी ठीक है. इसीलिए देश भर की कला संस्थाएं आज संकट के दौर से गुजर रही हैं.

अब हम कलाओं के दूसरे पक्ष पर आते हैं. कलाओं के अंतर संबंध का भी एक सैद्धांतिक आधार है. मैं यह लेखक की हैसियत से कहते हुए गर्व महसूस कर रहा हूं कि भारत में तमाम कलाओं के होने का एक सैद्धांतिक आधार मौजूद है और किसी दूसरी सभ्यता में यह सैद्धांतिक आधार आपको नहीं मिलेगा. यह भरत मुनि के नाटय़ शास्त्र से लेकर विष्णु धर्मोत्तर पुराण तक में मौजूद है. पुराण शब्द सुनते ही हम किसी धर्म ग्रंथ की कल्पना करने लगते हैं पर पुराण का अर्थ होता है पुराना. दरअसल, हमारे दिमाग में वही बातें हैं जो अंगरेज बता गये हैं. क्योंकि अंगरेजों का मानना था कि भारत में केवल धर्म है, ज्ञान तो है ही नहीं. पर मुङो यह लगता है कि वे भारत को समङो ही नहीं थे. यह बड़े आश्चर्य की बात है कि भारतीय सभ्यता को जितना कम भारतीय समझते हैं उतना दूसरी सभ्यता के लोग नहीं. इसकी वजह काफी कुछ अंगरेज ही हैं. ब्रिटिश बुद्धिजीवियों ने भारत की गलत छवि प्रस्तुत करने में जितनी मेहनत की उसका कोई सानी नहीं है. उन्होंने इसके लिए काफी मेहनत की ताकि पूरी दुनिया में भारत की गलत छवि बने. और हमने क्या किया? आज तक हमारे विश्वविद्यालयों में, हमारे शिक्षाविदों ने कभी इस चीज को समझने की कोई चेष्टा नहीं की.

बहरहाल, अब हम भरत मुनि के नाटय़शास्त्र पर आते हैं. आप उसमें देखते हैं कि नृत्य भी है, गायन भी है और चित्र भी पर है नाटक के संदर्भ में. वे मानते हैं कि नाटक में इन सभी विधाओं का होना अनिवार्य है. विष्णु धर्मोत्तर पुराण भी महत्वपूर्ण पुराण है. इसमें एक कहानी आती है. वह बड़ा महत्वपूर्ण और रोचक है. कहानी यह है कि राजा विष्णु को एक बार इच्छा हुई कि एक मंदिर बनवायें. मंदिर भव्य हो, कलात्मक हो. इसके लिए शिल्प की आवश्यकता थी तो वे महर्षि मार्कण्डेय के पास गये. उनसे आग्रह किया कि आप मुङो शिल्प सिखा दें. मार्कण्डेय ने कहा कि तुम शिल्प तब सीख सकते हो, जब तुम्हें चित्र बनाना आता हो. राजा ने कहा कि ठीक है आप मुङो चित्र बनाना सिखा दीजिये. मार्कण्डेय ने कहा कि चित्र तुम तभी बना पाओगे जब तुम्हें नृत्य आता हो. राजा बोले- अच्छी बात है, तो आप मुङो नृत्य सिखाइये. इस पर मार्कण्डेय ने कहा- नृत्य तुम्हें तब आयेगा जब तुम्हें संगीत आता हो. राजा बोले- अच्छी बात है. पहले संगीत सिखाइये तो मार्कण्डेय ने कहा- संगीत तभी सीख पाओगे जब गायन आता हो और गायन तब आयेगा जब काव्य आता हो. आप जानते होंगे कि नाटक को काव्य भी कहते हैं. कालीदास ने कोई स्वतंत्र काव्य नहीं लिखा पर उन्हें महाकवि कहते हैं. हमारे यहां नाटय़ कला को काव्य भी कहा जाता है. इस कहानी का अर्थ यह है कि हर कला एक-दूसरे से संबद्ध है. ऐसा कोई नृत्य नहीं जिसमें गायन न हो, चित्र न हो, शिल्प न हो और ऐसा कोई काव्य नहीं जिसमें नृत्य न हो, शिल्प न हो, चित्र न हो. भारत में यह पहली बार विष्णु धर्मोत्तर पुराण में प्रतिपादित किया गया कि हर कला में हर कला समाहित है. भले ही हर कला का अपना वजूद हो पर कलाएं एक-दूसरे में समाहित हैं. पाटकर कला भी एक तरह का सिनेमा आर्ट है. सिनेमा में ऑडियो-विजुअल ही होता है. पाटकर कला को देखकर क्या आप ऐसा महसूस नहीं करते कि सिनेमायी दुनिया से पूर्व यह कला मनुष्य के सिनेमा बनाने की आकांक्षा का प्रतिबिंब है. हम जानते हैं कि भारत में बहुत सी जातीय सभ्यताएं ऐसी थीं जिनमें कपड़ों को स्क्रॉल बनाकर चित्रों और गायन के माध्यम से कथाएं सुनाने का चलन था.

लोहा बनाने वाली जनजाति. 19वीं शताब्दी के अंत तक दुनिया का सबसे बढ़िया लोहा अगड़िया जाति बनाती थी. उनकी छोटी-छोटी भट्ठियां होती थी. इन अगड़ियों के लोहा बनाने पर बंदिश की गयी थी. यह बंदिश अंगरेजों ने लगायी थी. आश्चर्यजनक यह कि वह बंदिश आज भी है. अगड़िया समाज के जाति पुराण में एक कथा है बहुत ही रोचक. एक बार पृथ्वी हिलने लगी तो उसे स्थिर करने के लिए ईश्वर ने अगड़ियों को यह भार दिया कि वे एक ऐसा तीर बनाएं जो पृथ्वी के आर-पार हो जाए ताकि उसे स्थिर किया जा सके. आप कल्पना कीजिये आजकल पृथ्वी का चित्र गुगल वर्ल्ड पर देखते रहते हैं. तो पृथ्वी को हिलाइये और फिर उसमें कील डालिये. सोचिये क्या कल्पना है अपने बारे में. और पृथ्वी हिलना बंद हो गयी. अगड़िया जाति पुराण में इसे गाकर सुनाते हैं. ये जो अगड़िया थे ये लोहे के नगर में रहते थे. इसमें गर्म लोहे के लाल वृक्ष होते थे. गर्म लोहे की नदी बहती थी. मैंने जब यह कहानी सुनी तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये. इस नदी में अगड़िया झुककर गर्म लोहे का पानी निकालकर पीते थे. ऐसी थी अगड़िया जाति. तो ये पूरे जाति पुराण सुनाये जाते थे. ये चित्रित होते थे. बड़े खूबसूरत चित्र और बड़ी खूबसूरती से गाये जा सकते थे. ये इसलिए होता था क्योंकि चित्र में गान उपस्थित होता था और गान में चित्र. और ये बात इस परंपरा के लोगों को सहज पता थी. ये सामान्य जानकारी थी, यहां मैं विश्वविद्यालयों में उपस्थित जानकारी की बात नहीं कर रहा है. मैं रोजमर्रा में साधारण लोगों के जीवन की जानकारी की बात कर रहा हूं. हमें यह गलतफहमी है कि भारत में अंगरेजी पढ़े-लिखे लोगों को या यूनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे लोगों को कि ज्ञान यूनिवर्सिटीज के रास्ते ही आता है. यूरोप में यूनिवर्सिटीज ने बड़ी भूमिका निभायी है. दुर्भाग्य से यह भारत में नहीं हुआ है. भारत में आज भी संगीत के 300 कॉलेज हैं. पिछले 50 साल से हैं. यहां के एक भी विश्वविद्यालय या कॉलेज ने, एक भी बड़ा गवैया पैदा नहीं किया. भीमसेन जोशी हों या जिया मोहिउद्दीन डागर साहब या आप कोई भी नाम गिनाते जाइये, मैं आपको उनके गुरुओं के नाम बताते जाता हूं, जो विश्वविद्यालय या कॉलेज व्यवस्था के सदस्य नहीं थे. हमारी कॉलेज व्यवस्था ने कभी भी कला में कोई अनोखा बड़ा व्यक्तिव पैदा किया इसके बड़े कम उदाहरण हैं. हमारे यहां आज भी जो आप सीखते हैं अपने परिवेश से, घर से, घरानों से. इसलिए संगीत घरानों की बात होती है. यहां तक कि पहाड़ी मेनेचर चित्रों के भी हमारे यहां घराने हैं. एक बीएन गोस्वामी करके बड़े इतिहासकार हैं, उन्होंने कहा कि ये जो राजाओं के नाम पर हमने घरानों या चित्र शैलियों के नाम दिये हैं, वो गलत हैं. और उनकी स्थापना बहुत सुंदर है, उनका कहना है कि ये जो घराने हैं यह घरों में रहकर लोगों ने कलाएं सीखी हैं. ये विश्वविद्यालयों या सार्वजनिक संस्थाओं में नहीं सीखे गये हैं. इसका अर्थ यह है कि अब तक हमें वे संस्थाएं बनाना नहीं आया, जो भारतीय कलाओं की ठीक से शिक्षा-दीक्षा दे सकें.

बहरहाल, ये दूसरी बात है, लेकिन एक बड़ी बात जो भारत में हुई कि हमारे यहां यह समझ पैदा हुई कि हर कला, हर एक कला में मौजूद है और एक-दूसरे से जुड़ी हैं. इसका एक अंतिम उदाहरण आपको देकर अपनी बात समाप्त करूं गा. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश में जो जातियां हैं उनमें एक बड़ा आदिवासी समुदाय है गोंड़ जब मैं आदिवासी शब्द कह रहा हूं तो आप ये मानकर चलिए कि मैं कितनी कठिनाई से कह रहा हूं. आदिवासी शब्द 19वीं शताब्दी में बना था. यह ट्राइबल शब्द का अनुवाद है. हिंदी में सबके नाम लिये जाते थे. कोई आदिवासी या ट्राइबल कहकर अलग कैटेगरी नहीं बनायी गयी थी. क्योंकि हिन्दुस्तान में यह तमाम व्यापक समाज के अंग की तरह ही देखे जाते थे. ट्राइबल शब्द का किसी भी भारतीय भाषा में 19वीं सदी के पहले का अनुवाद मुङो बता देंगे तो मैं हार जाउंगा. मैंने रिसर्च किया है, नहीं है. आदिवासी शब्द बनाया हुआ शब्द है. कहीं से आदी ले आये और कहीं से वासी. जोड़कर बनाया गया शब्द है यह. पहले निषाद शब्द इस्तेमाल होते थे, उसी तरह हर समुदाय के लिए अलग-अलग शब्द इस्तेमाल होते थे. ये कैटेगरी जो है वो अंगरेजों ने बनाये थे. उनकी जो पॉलिसी थी कि हिन्दुस्तान को अलग-अलग कोटियों में बांटकर फिर आपस में झगड़ा कराओ, वही था. उसके लिए वो मेहनत करते थे. उनके एंथ्रोपोलॉजिस्ट थे, वे बताते थे कि वे अलग लोग हैं, आप अलग लोग हैं. फिर उनमें द्वंद्व शुरू हो जाता. इससे उन्हें रू ल करने में आसानी होती थी. आप हाटिंगटन को पढ़िये, अपनी किताब में उन्होंने लिखा है कि हम तो हमेशा रिबेल ग्रुप को सपोर्ट करते थे. अमेरिकन और यूरोपियनों का काम ये है कि पहले तोड़ो और जब टूट जाये तो उसमें जो सबसे छोटा वाला ग्रुप है उसे सपोर्ट करो. तो उसमें क्या होता था कि जो विध्वंस है वह बड़ा जल्दी हो जाता था, और ऐसा जो पूरी सत्ता को हिला दे. बहरहाल, तो एक बड़ा आदिवासी समुदाय है गोंड. मुङो लगता है यह भारत का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. और इसने काफी लंबे समय तक भारतवर्ष में शासन भी किया है. काफी शक्तिशाली समुदाय था. इस समुदाय में इनके सात सब ट्राइब्स (उपवर्ग) थे. उनमें से एक उपवर्ग को परधान कहते हैं. और ये परधान काम ये करते थे कि ये गोंडों के घर में हर तीन साल में जाकर गीत गाते थे. और गीत में एक तरह से गोंडों की जो सामूहिक स्मृति है उसकी वो उन्हें याद दिलाते थे. ये गीत गोंडों की चेतना को जागृत करने का काम करता था. दूसरा ये यदि किसी की मृत्यु हो गयी हो तो उसको पुरखों में मिलाने का काम करते थे. जो बहुत सारे लोग यहां गया जाकर करते हैं. भारत में यह वेदों से ही मान्यता रही है कि किसी आदमी की मृत्यु हो रही हो तो पुरखे आकर उसे ले जाते हैं. क्योंकि आदमी पहली बार मरता है तो उसको थोड़ा अटपटा लग रहा होता है तो इसलिए उसको रिसीव करने के लिए पुरखे आते हैं. ये बहुत जगह आपको नाटकों में भी मिलेगा. क्योंकि यह जो विचार है कि मृत्यु के क्षण में क्या होता है, हर सभ्यता इसका कयास लगाती है. हर बड़ा दार्शनिक इस पर चिंतन करता है. तो इसी परंपरा के चलते हमारे यहां हर समुदाय में यह मिलेगा आपको कि मृतकों को पुरखों में मिलाया जाता है ताकि जो मृतक हैं वो पुरखों का जो एक बड़ा ब्रrांड है उसके सदस्य बन सकें. एक उदाहरण और ले सकते हैं. यदि आप गृह प्रवेश करते हैं तो जो उसकी पूजा होती है यदि उसे आप ध्यान से देखें और यह भूल के कि आप बड़े आधुनिक शिक्षा संपन्न हैं, तो आप पायेंगे कि दरअसल नये घर को ब्रrांड का नागरिक बनाया जाता है. पहले उस स्थान की पूजा होती, फिर गांव की और फिर एक देवता की और फिर ब्रrांड के जो देवता हैं ब्रrा-विष्णु-महेश उनकी. तो गोंडों में मृतकों को पुरखों के साथ मिलाने का काम परधान करते थे. ये जो परधान थे खुद कभी खेती नहीं करते थे. ये सिर्फ अपना बाना बजाते थे. यह सारंगी तरह का ही एक वाद्य होता है, जिसमें सिर्फ एक तार होता है. और वे बाना बजाकर ये गीत गाते थे और कथाएं कहते थे. यह शताब्दियों से हो रहा था. गोंड इन्हें आर्थिक सहायता देते थे. जब वे इनके घर जाते थे गाना गाने, कहानी कहने तो गोंड परिवार उन्हें गेहूं देते, बरतन देते. और उसमें एक व्यवस्था यह भी थी कि यदि इस बीच कोई मर गया हो तो उसके आधे बरतन, आधे कपड़े, आधे जेवर वह भी परधान को दे देगा, ताकि उसका जीविकोपाजर्न हो सके. यह समाज की एक व्यवस्था है कि वे अपने कलाकारों को किस तरह संभालता है. लेकिन जब गोंडों की ही हालत बिगड़ गयी. वे इस हालत में नहीं बचे कि वे परधानों का समर्थन कर सकें, उन्हें संभाल सकें. उनकी देखभाल कर सकें. तो ये परधान जो सिर्फ गाना गाया करते थे, वे धीरे-धीरे मजदूर होते गये और बहुत बुरी हालत में चले गये. फिर क्या हुआ, 20वीं शताब्दी में अभी से महज 30 वर्ष पहले एक अदभुत घटना घटी और चित्रकला की दुनिया में मैं समझता हूं कि उस शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना भारत के लिए तो यह रही ही रही. हुआ यह कि इन परधान संगीतकारों में जो अब मजदूर हो चुके थे, जो विपन्न हो चुके थे, जिनके पास गीत गाने के अवसर नहीं थे, उनमें से एक लड़के ने चित्र बनाने शुरू कर दिये. उसका नाम जनगढ़ सिंह श्याम था. और उसने जैसे ही चित्र बनाना शुरू किया, बहुत बड़ी संख्या में परधान गायकों ने चित्र बनाने शुरू कर दिये. उनके भीतर का जो संगीत था वह चित्रों में अंकित होने लगा. यह एक ऐसी घटना है कि आप गुगल पर जाकर जनगढ़ सिंह श्याम टाइप करेंगे तो डेढ़-दो सौ पóो उस पर मिलेंगे. ये चित्र अनूठे हैं. इसकी जो शैली है वे एकदम अनूठे. धीरे-धीरे वे कहानियां जो वे गाते थे वह चित्रों में आने लगे. उनकी बहुत सारी सामाजिक स्मृति की जो चीजें थीं, वह चित्रों में आने लगी. जब मैं इस पर काम कर रहा था तो मुङो लगा कि यह घटना तब घटी होगी जब वेदों से शुरू होकर शिल्प बने होंगे. वैदिक देवी-देवता जितने भी हैं वे तो शब्द हैं. वेदों में तो काई डिस्क्रिप्शन नहीं है कि वे दिखते कैसे होंगे. ठीक यही घटना वाचिक से चीजों के चित्रों में आने में हुई. और यह इसलिए हुआ क्योंकि उस गीत में चित्र तो पहले से मौजूद था. और इस अदभुत घटना को भारत के विष्णु धर्मोत्तर पुराण के जरिये ही समझा जा सकता है, कि आखिर ये कैसे हो गया. रवींद्रनाथ टैगोर अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में चित्र बनाना शुरू कर देते हैं, ये कैसे समझायेंगे आप. आज तक यूरोप के आर्ट हिस्टोरिस्ट इस बात को नहीं समझा सके कि रवींद्रनाथ टैगोर इतना बड़ा कवि, उपन्यासकार अचानक कैसे चित्र बनाने लग सकता है. और उन्होंने अनोखे चित्र बनाये. और यह इसलिए हुआ क्योंकि टैगोर के काव्य में चित्र की संभावना पहले से थी. सिर्फ उन्होंने जो नजर नहीं आ रहे थे, उसे पेज पर दृश्य कर दिया. धन्यवाद




डॉ उदयन वाजपेयी : परिचय

दो कविता-पुस्तकें, तीन कहानी संग्रह, दो निबंध संग्रह, प्रकाशित. फिल्मों व नाटकों के लिए भी लेखन. कुमार शहानी और रवींद्र नाथ टैगोर के उपन्यास चार अध्याय पर आधारित फिल्म और उन्हीं की बांसुरी पर फिल्म में संवाद लेखन. हाल ही में परधान चित्रकला पर सुदीर्घ निबंध जनगढ़ कलम प्रकाशित. कविताओं के अनुवाद तमिल, ओड़िया, बांग्ला, फ्रांसीसी, पोलिश, स्वीडिश समेत अनेत भाषाओं में. वर्तमान में भोपाल में रह कर साहित्य, कला और सभ्यता की पत्रिका समास का संपादन. पेशे से डॉक्टर और मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते भी हैं.





रविवार, 13 मई 2012

साइबर जगत में ‘सत्यमेव जयते’ की धूम

मशहूर अभिनेता आमिर खान के पहले टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ को दर्शकों का जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है और एक सप्ताह के अंदर ही यह टीवी शो सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों पर छा गया है. दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर ‘सत्यमेव जयते’ के पेज को 747,572 लोगों ने अब तक ‘लाइक’ किया है और 356,838 लोग इस शो की चर्चा कर रहे हैं. प्रत्येक रविवार को सुबह 11 बजे प्रसारित हो रहे इस टीवी शो की लोकप्रियता का आलम यह है कि बच्चे, बूढे, जवान सभी इस शो को न केवल देख रहे हैं बल्कि आमिर खान द्वारा उठाये गये मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं. ‘चुप्पी तोडो’ के नारे के साथ बाल यौन शोषण पर आज दिखाये गये शो को अब तक 3504 लोगों ने फेसबुक पर ‘लाइक’ किया है और 353 लोगों ने इस शो पर अपनी टिप्पणियां दी हैं. आमिर ने आज ‘सत्यमेव जयते’ के दूसरे एपिसोड में बालयौन शोषण का मुद्दा उठाते हुए कहा कि बालयौन शोषण एक डरावनी वास्तविकता है और शोध बताते हैं कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे या दो में से एक बच्चा बाल यौन शोषण का शिकार रहा है.







मंगलवार, 8 मई 2012

चिंतित हूं कि मेरे पास कोई चिंता नहीं है

थोबड़ापोथी (फेसबुक) के सभी मुरीदों को मेरा हार्दिक अभिवादन. मित्रों! कई लोग मुझ अनामदास से नाराज हैं क्योंकि इससे उन्हें मेरे सरनेम का अंदाजा लगाने में मुश्किल हो रही है. ऐसे लोगों को मैं कबीर काका की याद दिलाते हुए कहना चाहूंगा, ‘जात न पूछो साधु की.’ मेरे अनुसार तो इसका अभिप्राय यह कि जिसकी कोई जाति नहीं होती, वह साधु होता है. यह तो सभी जानते हैं कि साधुओं की कोई जाति नहीं होती. पर इसका अभिप्राय आप यह कतई न लगायें कि मैं साधु हूं. अब छोड़िए भी, मैं कहां इस ‘धर्मसंकट’ में फंस गया.

दरअसल, मैं यहां इसलिए अवतरित हुआ हूं कि आप सभी से अपनी परेशानी बांट सकूं. परेशानी यह है कि इन दिनों मुङो एक चिंता खाये जा रही है. चिंता यह है कि मुङो कोई चिंता ही नहीं होती, जबकि कई लोग हमेशा चिंता में डूबे रहते हैं. चुनाव हो रहा हो तो चिंता, नहीं हो रहा तो चिंता. चुनाव में हार गये तो चिंता, जीत गये तो चिंता. प्रत्याशी का नमा तय करना हो तो चिंता, प्रत्याशी का नाम तय न हो रहा तो चिंता. किरपा बरसे तो चिंता, किरपा बरसाने वाले पर धन बरसे तो चिंता. अन्ना हजारे अनशन पर बैठें तो चिंता, न बैठें तो भी चिंता. किसी पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता उल्टा-सीधा बयान दें तो चिंता, कई महीने मौन साधे रखें तो चिंता. बारिश हो तो चिंता, बारिश न हो तो चिंता. मंत्री महोदय कुछ न करें तो चिंता और कुछ ‘कर’ दें तो और भी चिंता.

चिंता होने या न होने का मामला केवल बाहरी नहीं है, यह भीतर तक समाया हुआ है. तभी तो मैं अंदर से चिंतित होना चाहता हूं लेकिन हो नहीं पाता. पता है क्यूं? क्योंकि मेरी चिंता की वजह खुद ही चिंतित रहती है. वजह एक नहीं कई. बच्च स्कूल जाये तो चिंता, न जाये तो चिंता. शोरगुल मचाये तो चिंता, चुप रहे तो भी चिंता. मुङो ऑफिस में देर हो जाये तो चिंता और किसी दिन अगर ऑफिस न गया तो चिंता. खाने की तारीफ कर दूं तो चिंता, कुछ न बोलूं तो चिंता. अपने माता-पिता की बात करूं तो चिंता, ससुराल की बात करूं तो चिंता. थोड़ा ठीक-ठाक होकर घर से निकलूं तो चिंता, फटीचर बना घर में आलसी की तरह पड़ा रहूं तो भी चिंता.

मैं चिंता के इतने आयाम देख चुका हूं कि चिंता मुङो देख कर दूर से ही प्रणाम करने लगती है. अब भला आप ही बताइए इस रचना में मैंने इतनी चिंताएं गिनायीं, आप चिंतित हुए क्या? इसलिए मैं थोबड़ापोथी (फेसबुक) के मित्रों से गुजारिश करता हूं कि नाम, उपनाम और पदनाम में क्या रखा है, भावनाओं को समङिाए. ‘भावना’ अच्छी हो तो ‘किरपा’ अपने आप आयेगी. भावनाओं का ‘समागम’ कीजिए. बरफी, गोलगप्पे, समोसा, हरी चटनी, लाल चटनी, खीर और बताशे को बतकही की मलाई में लपेट कर ‘भक्तों’ पर ‘न्योछावर’ कर दीजिए. देखिये चारो तरफ से बा-बा की पुकार सुनायी देगी.

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

नयी टेक्नोलॉजी और नये जेनरेशन से डर कैसा?

आजकल सोशल साइटस-फेसबुक, चैटिंग और इंटरनेट को लेकर कई तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं. क्या यह सच नहीं कि नयेपन को हमेशा ही संदेह भरी दृष्टि से देखा जाता है. इतिहास में झांक कर देखिये तो पता चलेगा कि रेलगाड़ी, महिलाओं की शिक्षा, फिल्मों और रेडियो सुनने तक पर कितना हंगामा हुआ. फिल्मी गाने सुनने वालों को बड़े-बुजुर्ग हिकारत भरी नजर से देखते थे. रेडियो और फिल्मों के प्रति आकर्षण जिनमें पैदा हो गई वे ‘नालायक पुत्र’ घोषित कर दिये जाते थे. पर जैसे ही टेलीविजन क्रांति आई मां-बाप पूरे परिवार के साथ बैठकर दूरदर्शन पर चित्रहार देखने लगे. बहुसंख्य परिवारों ने महाभारत और रामायण सीरियल में दिखाये गये अंतरंग दृश्यों को भी बड़े-बुजुर्गो और बच्चों के साथ श्रद्धाभाव से खूब देखा और वर्षो तक देखते रहे. कुछ उसी तरीके का डर इन दिनों न जाने कितने मां-बाप के मन में घर बना चुका है. यानि, उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि इंटरनेट हमारे बच्चों को बिगाड़ रहा है. वह यह समझते हैं कि हमारे बच्चे इंटरनेट पर ईल सामग्री देख रहे हैं, नशीली सामग्री लेने के तरीके सीख रहे हैं. पर इंटरनेट के प्रादुर्भाव से पहले बच्चों को ईल पत्रिकाएं देखने से कितने मां-बाप रोक पाते थे? किशोरावस्था में सिगरेट पीने का रोमांच किसके अंदर नहीं पैदा हुआ? दरअसल, किशोरावस्था और युवावस्था के दौरान ऐसा दौर हर किसी की जिंदगी में आता है. हम सभी अपने अनुभवों से जानते हैं कि उम्र के साथ इस सबका आकर्षण भी स्वत: ही खत्म हो जाता है. यह सच है कि टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के दौरान विवेक की जरू रत होती है पर यह तो व्यक्ति के स्व विवेक से ही उपजता है. मैंने बचपन में अपने परिवार में चीटियों को चीनी देने, पक्षियों को दाना देने और गर्मियों में राहगीरों के लिए शीतल जल की व्यवस्था करने की परंपरा देखी है. मेरा ऐसा मानना है कि इसके पीछे उपकार करने या मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने की लालसा नहीं, बल्कि अन्यान्य प्रजातियों पर मनुष्य की निर्भरता को स्वीकार करने का बोध ही रहा होगा. आज जब अपनी छह वर्षीया बेटी को गौरेयों के पीछे भागते और उनको दाना खिलाते देखता हूं तो अपना बचपन याद आता है. ॅ हम सभी को मालूम है कि मां-बाप ही बच्चे के पहले गुरु होते हैं. इसीलिए मां-बाप जन्म से बच्चों को संस्कारों की घुट्टी पिलाते हैं. अपने गलत कामों को बच्चों से छुपकर अंजाम देते हैं और न जाने क्या-क्या इंतजाम करते हैं. हमें उसे बचपन से ही सच को सच और झूठ को झूठ बताने की आदत डाल लेनी चाहिए ताकि जिंदगी में सबकुछ साफ-सुथरा रहे. यह तो सर्वविदित है कि आपको जिस काम के लिए रोका जाए उसे करने की इच्छा बलवती होती जाती है. तो नयी जेनरेशन और नयी टेक्नोलॉजी को फलने-फूलने दीजिए. उससे डरिये नहीं समङिाये.

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

यह अँधा कानून है

मिस्र में पतियों को जल्द ही क़ानूनी तौर पर उनकी मृत पत्नियों के साथ सेक्स करने की इजाजत होगी- उनकी मौत के बाद 6 घंटे तक के लिए. यह विवादस्पद नया कानून उन उपायों का एक हिस्सा है जिसे इस्लामी-बहुल संसद द्वारा शुरू किया जा रहा है. नए कानून के तहत शादी की न्यूनतम उम्र को घटाकर 14 किया जायेगा और महिलाओं को मिलने वाले पढाई और रोजगार के अधिकारों को ख़त्म किया जायेगा.

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

गोया शादीशुदा होना कोई गुनाह हो

अहले सुबह ‘सात बजे’ मेरे एक अजीज मित्र का फोन आया. मैं गहरी नींद में था. मैं अभी ‘हेलो’ बोलता उससे पहले ही वह उधर से शुरू हो गया. बोला, तुमलोग क्या लट-पट खबर छापते रहते हो. सुबह-सुबह मूड खराब कर दिया. अब तक मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया था. कभी-कभार मिस्ड कॉल करने वाला बंदा आज इतना सुबह फोन कैसे कर दिया. और तो और गुस्सा इतना कि उसे यह भी याद नहीं कि कॉल लंबा हुआ जा रहा है. अब तक शायद उसके डेढ-पौने दो रुपये तो खर्च हो ही गये होंगे. मामला समझ से परे था. अब मेरे अंदर भय का प्रवेशीकरण हो चुका था. मैं यह तय मानने लगा था कि भईया आज तो मेरी खैर नहीं. मैंने थोड़ा संभलते हुए पूछा ‘क्या बात हो गई?’ ‘बात क्या होगी? तुम तो लंबी तान के सो रहे हो. अरे निक्कमे, खबर छापते वक्त यह भी सोचते हो कि इसका लोगों पर असर क्या होगा?’ मैंने पूछा, किस खबर की बात कर रहे हो भाई? ‘केंद्र सरकार के नये नियम के मुताबिक अब शादी का रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य होगा. यानि, अब शादी-विवाह भी सरकार से पूछ कर करना होगा. यह तो हद हो गई. जिस देश में शादी पहले से ही एक समस्या हो वहां इस पर इतना कायदे-कानून बनाना कहां तक व्यवहारिक है. तुमलोग इस बारे में भी कुछ छापोगे या नहीं? मुङो तो अब अंदर ही अंदर हंसी आने लगी थी. मैंने खुद पर काफी कंट्रोल किया फिर भी मुंह से बरबस ही निकल गया ‘बस इतनी सी बात है. इसके लिए सुबह-सुबह नींद खराब कर दी.’ ‘इतनी सी बात. यह तुम्हें इतनी सी बात लग रही है. अच्छा, मैं तो भूल ही गया था तुम्हारी तो शादी हो चुकी है न. तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. भइल बियाह मोर करबे का. तुम तो यह भी भूल गये होगे कि मैंने तुम्हारी शादी में रू माल का बीन बनाकर धूल-मिट्टी की परवाह किये बगैर रोड पर लोट-लोट कर नागिन डांस किया था. कमबख्त मेरा सफेद सफारी सूट ऐसा गंदा हुआ कि ड्राई क्लीन वाला भी फादर-फादर कर गया पर दाग न गया. तुम्हें तो यह भी याद नहीं होगा कि मैंने अपने पिताजी की परवाह किये बगैर मेरे यार की शादी है गाने पर ऑरकेस्ट्रा वाली लड़की के साथ खुलेआम डांस किया था. खैर तुम यह सब क्यों याद रखोगे. बिना शादी के बैंड तो मेरी बज रही है न. तुम तो बस सोते रहो.’ मैं अब बचाव की मुद्रा में आ गया.‘भाई मेरे इतना मत भड़को. बात अगर नाचने की है तो मैं भी चिकनी चमेली और मुन्नी बदनाम गाने पर लोट-लोट कर नाचूंगा. शादी तो करो..’ बात अधूरी ही रह गयी क्योंकि मोबाइल डिस्चार्ज हो कर स्वीच ऑफ हो गया. मानो वह भी मेरे मित्र का फेवर कर रहा हो. गोया शादीशुदा होना कोई गुनाह हो.