सोमवार, 29 अप्रैल 2013
मुंह में गांधी और बगल में गोडसे!
मैडम जी, जय हिंद! आज देश का माहौल क्या हो गया है. अपने को पार्टी का आदमी कहने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है. पहले तो पाटी मेंबर जानते ही लोग प्यार करते थे, महात्मा-सी जयजयकार करते थे. आज मालूम पड़ते ही अपराधी जैसा व्यवहार होता है, जूतों से, गालियों से सत्कार होता है. ये कैसे हुआ कि लोकतंत्र में ‘बाबा’ और ‘अन्ना’ लोग देशहित के लिए आगे आ रहे हैं, लेकिन आपके मुंशी-मैनेजर कहते हैं कि बाबा फ्र ॉड है, अन्ना बेईमान है. पर मैडम जी अगर ये लोग ऐसे हैं, और आपके ‘मौनमोहन’ संत हैं, महात्मा हैं, तो देश में इतना भ्रष्टाचार कैसे हो गया? यह तो वही बात हुई कि ‘मुंह में गांधी और बगल में गोडसे!’
ये जो आपके ‘मौनमोहन’ हैं न, उनको कॉलेज में किसी ने पढ़ा दिया कि मंदी उर्फ रिसेशन बुरी चीज है इसलिए इसे आने देना ही नहीं चाहिए. यह बात गांठ बांध कर ‘मौनमोहन’ ने रख ली है और यही मुसीबत की जड़ है. मुख्य बात यह कि पिछली बार जब मंदी आयी तो आपके ‘मौनमोहन’ ने उससे बचने के लिये नोट छाप कर बाजार मे ढकेल दिये. उससे महंगाई बढ़ गयी. और इस बार ‘मौनमोहन’ बैंक की ब्याज दरों के साथ-साथ पेट्रोल और अन्य चीजों के भाव भी बढ़ा रहे हैं, ताकि अतिरिक्त पैसा मार्केट से बाहर हो जाये. पर इससे फायदा हो नहीं
रहा. उल्टे आम आदमी का तेल निकल जा रहा है.
अगला लोकसभा चुनाव सिर पर है. यह साल भी बीतते देर न लगेगी. पिछली बार तो अपने राजकुंवर कुछ कर नहीं पाये. यूपी चुनाव में भी उनका हश्र आप देख ही चुकी हैं. अगला चुनाव किसके भरोसे है, यह अभी तक आम कार्यकर्ता जान नहीं पाया है. आपने पार्टी में दो प्रकार के लोगों को प्रमुखता दे रखी है, कमाने के लिए अर्थशास्त्री और बचाने के लिए वकील. अब हम भला आपको क्या सलाह दें? वैसे अपने ‘मौनमोहन जी’ को कहिये कि पेट्रोल- डीजल का भाव कम करवा दें, तो कुछ तो राहत मिलेगी. आशा है, आपका स्वास्थ अच्छा होगा और आप कुशल से होंगी. कोई गलती हो गयी हो, तो माफ करें और लौटती डाक से अपनी चरणधूलि भेजने की कृपा करें.
आपका अपना
आपकी ही पार्टी का एक अनाम सेवक
(यह गुमनाम पत्र अभी दो दिन पहले ही मुङो प्राप्त हुआ है. मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही कि आखिर यह पत्र मेरे पते पर क्यों आया? यह ऐसा अजीबोगरीब पत्र है, जिस पर न तो पानेवाले का पता दर्ज है और न ही भेजनेवाले का. फिर भी डाकिया न जाने यह पत्र मेरे घर क्यों डाल गया? खैर मैं कब तक इस उधेड़बुन में रहूं. अंतत: मेरे एक मित्र ने यह सुझाव दिया कि क्यों न इस पत्र को सार्वजनिक किया जाये. समझनेवाले समझ जायेंगे, जो न समङों वो अनाड़ी हैं!)
शनिवार, 20 अप्रैल 2013
यह गिरने-गिराने का दौर है, जरा बच के!
जो जितनी तेजी से उठता है, वो एक दिन उतनी ही तेजी से धड़ाम भी होता है. यह नियम है. फिर प्यारे क्यों दुखी हो सोने-चांदी की इस गिरावट पर? अब तलक सोने-चांदी की छलांग के मजे लिए, अब थोड़े दिन उसकी गिरावट का दर्द भी ङोलो. ताकि पता तो चल सके गिरने का दर्द कैसा होता है. सोने-चांदी के मूल्य में गिरावट से लोग इतने दुखी हैं, पर समाज की नैतिकता में जाने कब से कितनी गिरावट आ चुकी है, वह किसी को नहीं दिखती. जहां देखो वहीं, कहीं किरानी तो कहीं फूड इंस्पेक्टर तो कहीं किसी बाबू के घर से लगातार चल-अचल संपत्ति बरामद हो रही है. नोट गिनने की मशीन न हो तो छापे मारनेवाली टीम का जाने क्या हाल होगा? मैं सच बताऊं तो बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुङो पहले कभी नजर नहीं आए थे. आज मुङो अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो रहा है, वो पीड़ा कालीदास की शकुंतला की पीड़ा से भी बड़ी है. अपने अल्प अनुभव और सीमित ज्ञान से मैं बाबुओं के विषय में जितना जानता था, वो तमाम भ्रांतियों की दीवारें ताश के पत्ताें के महल के समान भरभरा कर गिर रही हैं.
बाबुओं के घर से निकलती यह करोड़ों रु पयों की बरात, फाइलों के बोझ तले दुबके हुए बैठे अन्य बाबुओं को भी संशय के घेरे में ला रही है. जिन कार्यालयीन बाबुओं ने दिनभर में दो-तीन पान चबा लेने को रईसी समझा हो, जिन्होंने सब्जी मंडी में लौकी-नेनुआ के भाव-ताव में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो, ऐसे पवित्र बाबुओं के बारे में समाज की राय का एकाएक बदल जाना चिंतनीय विषय है. यह अजीब दौर है. चारों तरफ गिरने-गिराने का दौर जारी है. पर गिरने की भी हद होती है. अरे! इनसानों को छोड़िए, सोने-चांदी को देखिए. इत्ता गिरे, इत्ता गिरे कि गिर-गिर कर अपना नाम और दाम दोनों ही डुबो दिया. सोना-चांदी खुद तो डूबे ही, साथ में न जाने कितने निवेशकों, व्यापारियों, कारीगरों को ले डूबे. देख रहा हूं सब डूब-डाब कर मातम मना रहे हैं.
हो सकता है, सर्राफा बाजार की गिरावट से धोखा खा चुके लोग भविष्य में सोने-चांदी से मुंह फेर लें या इसके प्रति उनमें अरुचि पैदा हो जाये, पर एक बात तो तय है कि जगह-जगह बाबू बनानेवाले कोचिंग क्लासेस के बड़े-बड़े होर्डिग लग जायेंगे. बच्चे भी शायद अब बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना न चाहें. बड़े ओहदों पर जाने की तैयारियों में भी कोई व्यर्थ ही अपना अर्थ और श्रम क्यों जाया करेगा? जब पहले पायदान पर ही लक्ष्मी जी भर-भर के कृपा दृष्टि लुटाने को आतुर बैठी हों, तब ऊपरी पायदान को लक्ष्य बनाने का क्या फायदा? या यूं कहें कि जब खिड़की से ही चांद के दर्शन हो रहे हों, तो छलनी लेकर छत पर टहलने का क्या मतलब?
बुधवार, 10 अप्रैल 2013
समंदर में सू-सू करने से सुनामी नहीं आती!
अभी कल की ही बात है मार्केट में रुसवा साहब मिल गये. मैंने खैर मकदब के बाद पूछा इधर कैसे आना हुआ चाचू? मुंह में पान की गिलौरी चबाते रुसवा साहब ने मुङो उपर से नीचे तक देखा. मानो आरबीआइ गवर्नर सुब्बाराव की तरह वे भी बढती महंगाई के लिये मुङो दोषी मान रहे हों. वे धीरे से बोले ‘बस यूं ही.’ मैंने पूछा- रांची में सब कैसा है, चाय पीना पसंद करेंगे? वे कुछ बोले तो नहीं पर मेरे साथ चाय की दुकान की तरफ हो लिये. चाय की पहली चुस्की के साथ ही मैंने पूछा-
चाचू, महंगाई के लिये आप किसे दोषी मानते हैं?
पब्लिक को. महंगाई सरकार ने नहीं बढ़ाई. महंगाई को बढ़ाया ज्यादा खाने-पीने वाले लोगों ने! अंट-संट कमाने वाले लोगों ने! हद है, खुद के पेट पर कंट्रोल है नहीं और सरकार से कहते हैं कि महंगाई को कंट्रोल करे. सरकार भला महंगाई को कैसे कंट्रोल कर सकती है. हालांकि सरकार की हरदम यह कोशिश रहती है कि वो जनता को महंगाई से मुक्त रखे मगर क्या करे, उसकी हर कोशिश पर विरोधी विरोध शुरू कर देते हैं. उसे जन-विरोधी करार देते हैं. उसे बाजारवाद और पूंजीवाद का हितैषी कहते हैं.
लेकिन चाचू ये पब्लिक इतना खाती क्यों है?
भतीजे, खाते रहना पब्लिक की जरूरत या मजबूरी नहीं, उसकी नियति होती है. पब्लिक अच्छा खाना खाये. यह सरकार की सेहत के लिए भी अच्छा नहीं माना जाता. इसलिए सरकार इतना चिंतित हो जाती है.
लेकिन चाचू पब्लिक के अच्छा खाने से सरकार को क्या नुकसान होता है?
दरअसल, पब्लिक के अच्छा खाने से सरकार का काम-धाम और उसकी जवाबदेही बढ़ जाती है. बाजार में दूध, मीट, दाल, फल और सब्जियों की कीमतों में भी इजाफा हो जाता है. शेयर बाजार के सूचकांक हिलोरे मारने लगते हैं.
लेकिन चाचू सरकार महंगाई न सही भ्रष्टाचार तो रोक सकती थी?
भ्रष्टाचार को रोकने में सरकार फेल हुई लेकिन कथित ईमानदार लोग भी भ्रष्टाचार को कहां रोक पाए? जोर तो बहुत लगा लिया ईमानदारों ने कभी रामलीला मैदान, कभी जंतर-मंतर पर हो-हल्ला काटके मगर रहे ढाक के तीन पात. हो-हंगामे का असर इत्ता हुआ कि ईमानदारों ने अपना राजनीतिक दल खड़ा कर लिया.
इतने में चाय खत्म हो गयी और रुसवा चाचू पान की दुकान की तरफ बढ लिये. मैंने पूछा चाचू-चाचू आप तो पूरी तरह संप्रग सरकार के पक्ष में खड़े दिखते हैं. कहीं 2014 का चुनाव लड़ने का इरादा तो नहीं? वे फिर मुङो उपर से नीचे तक देखते हुए बोले- बाल सफेद हो जाने से नादानी नहीं जाती और समंदर में सू-सू करने से सुनामी नहीं आती.
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