आज कल देश में जिसे देखो सवाल पूछता नजर आ रहा है. बाबा रामदेव से शुरु हुई यह परंपरा अन्ना हजारे से होते हुए अरविंद केजरीवाल तक आ पहुंची. अब कुछ लोग अरविंद केजरीवाल से भी सवाल पूछ रहे हैं- बताओ, आंदोलनकारी हो या उदारवादी? इस पर केजरीवाल ने तपाक से कहा-मैं एनी कोहली (प्रश्नकर्ता) को नहीं जानता इसलिए मैं उनके सवालों के उत्तर देने को जवाबदेह नहीं हूं. मेरी बेटी अक्सर मुझसे सवाल पूछती है. शुक्र है भाई केजरीवाल के पास सवाल से बचने को एक विकल्प तो है पर मेरे पास तो वह भी नहीं है. मुङो मेरी बेटी के हर सवाल का जवाब देना पड़ता है वह भी ईमानदारी से और उसी समय. वरना वह नाराज हो जाती है, और मैं उसे नाराज या दुखी नहीं करना चाहता. सवाल कभी भोलेपन से भरे तो कभी शरारत से सराबोर.
खैर, रोजमर्रा की जदोजहद से दो-चार होते कुछ सवाल मेरे जेहन में भी उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. कभी-कभी ये सवाल इतने घनीभूत हो उठते हैं कि जवाब पा लेने को मन आतूर हो उठता है. एक वाकया पेश है- दवा दुकान पर करीब 20 साल का एक युवक अपनी मां के साथ आया. दुकान में भीड़ थी. इतने में मोबाइल की घंटी बजी उसने जेब से जैसे ही अपना मोबाइल निकाला वह जमीन पर गिरा और बिखर गया. युवक बेचैन हो उठा, अपनी मां पर चिखने-चिल्लाने लगा. दुकान पर खड़े ग्राहक उसकी ओर देखने लगे. बीमार मां असहज हो उठी. उसे समझ में नहीं आ रहा था वह उसे कैसे शांत करे. थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद युवक वहां से बाहर आया और अपनी पल्सर बाइक से तेजी से कहीं निकल गया. उसकी मां निढाल हो कर दुकान में रखी एक टूटी प्लास्टिक चेयर पर बैठ गयी. मेरी जिज्ञासा बढ गयी थी. मैंने पास जाकर पूछा मैडम, वह आपको यूं छोड़कर कहां चला गया. जवाब मिला ‘वह मेरा इकलौता बेटा है. मैं एक सप्ताह से बीमार हूं. बहुत कहने पर वह मुङो डॉक्टर के पास लेकर आया था. यहां उसकी महंगी मोबाइल गिरने से टूट गयी. वह उसे बनवाने गया है.’ ‘और आप?’ ‘मेरा क्या, मैं ऑटो करके घर चली जाउंगी.’ मैं सोचने लगा- क्या जिंदगी में मोबाइल की अहमियत मां से ज्यादा है? वह युवक मोबाइल खराब होने से इतना बेचैन हो उठा पर मां की तबियत खराब होने से उस पर कोई अंतर क्यों नहीं पड़ा?
क्या मनुष्य केवल देह है जो मात्र भौतिक सुखों से संतुष्ट हो जाये? हमारे भीतर की चेतना, संवेदनशीलता, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति कहां विलुप्त हो गयी? क्या भोगवादी इस अवधारणा में इन अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या यह केवल दैहिक सुखों पर टिकी है? इन हालात पर तो कवि प्रदीप की पंक्तियां याद आ रही हैं-देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान!
खैर, रोजमर्रा की जदोजहद से दो-चार होते कुछ सवाल मेरे जेहन में भी उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. कभी-कभी ये सवाल इतने घनीभूत हो उठते हैं कि जवाब पा लेने को मन आतूर हो उठता है. एक वाकया पेश है- दवा दुकान पर करीब 20 साल का एक युवक अपनी मां के साथ आया. दुकान में भीड़ थी. इतने में मोबाइल की घंटी बजी उसने जेब से जैसे ही अपना मोबाइल निकाला वह जमीन पर गिरा और बिखर गया. युवक बेचैन हो उठा, अपनी मां पर चिखने-चिल्लाने लगा. दुकान पर खड़े ग्राहक उसकी ओर देखने लगे. बीमार मां असहज हो उठी. उसे समझ में नहीं आ रहा था वह उसे कैसे शांत करे. थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद युवक वहां से बाहर आया और अपनी पल्सर बाइक से तेजी से कहीं निकल गया. उसकी मां निढाल हो कर दुकान में रखी एक टूटी प्लास्टिक चेयर पर बैठ गयी. मेरी जिज्ञासा बढ गयी थी. मैंने पास जाकर पूछा मैडम, वह आपको यूं छोड़कर कहां चला गया. जवाब मिला ‘वह मेरा इकलौता बेटा है. मैं एक सप्ताह से बीमार हूं. बहुत कहने पर वह मुङो डॉक्टर के पास लेकर आया था. यहां उसकी महंगी मोबाइल गिरने से टूट गयी. वह उसे बनवाने गया है.’ ‘और आप?’ ‘मेरा क्या, मैं ऑटो करके घर चली जाउंगी.’ मैं सोचने लगा- क्या जिंदगी में मोबाइल की अहमियत मां से ज्यादा है? वह युवक मोबाइल खराब होने से इतना बेचैन हो उठा पर मां की तबियत खराब होने से उस पर कोई अंतर क्यों नहीं पड़ा?
क्या मनुष्य केवल देह है जो मात्र भौतिक सुखों से संतुष्ट हो जाये? हमारे भीतर की चेतना, संवेदनशीलता, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति कहां विलुप्त हो गयी? क्या भोगवादी इस अवधारणा में इन अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या यह केवल दैहिक सुखों पर टिकी है? इन हालात पर तो कवि प्रदीप की पंक्तियां याद आ रही हैं-देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान!