शनिवार, 20 अप्रैल 2013

यह गिरने-गिराने का दौर है, जरा बच के!


जो जितनी तेजी से उठता है, वो एक दिन उतनी ही तेजी से धड़ाम भी होता है. यह नियम है. फिर प्यारे क्यों दुखी हो सोने-चांदी की इस गिरावट पर? अब तलक सोने-चांदी की छलांग के मजे लिए, अब थोड़े दिन उसकी गिरावट का दर्द भी ङोलो. ताकि पता तो चल सके गिरने का दर्द कैसा होता है. सोने-चांदी के मूल्य में गिरावट से लोग इतने दुखी हैं, पर समाज की नैतिकता में जाने कब से कितनी गिरावट आ चुकी है, वह किसी को नहीं दिखती. जहां देखो वहीं, कहीं किरानी तो कहीं फूड इंस्पेक्टर तो कहीं किसी बाबू के घर से लगातार चल-अचल संपत्ति बरामद हो रही है. नोट गिनने की मशीन न हो तो छापे मारनेवाली टीम का जाने क्या हाल होगा? मैं सच बताऊं तो बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुङो पहले कभी नजर नहीं आए थे. आज मुङो अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो रहा है, वो पीड़ा कालीदास की शकुंतला की पीड़ा से भी बड़ी है. अपने अल्प अनुभव और सीमित ज्ञान से मैं बाबुओं के विषय में जितना जानता था, वो तमाम भ्रांतियों की दीवारें ताश के पत्ताें के महल के समान भरभरा कर गिर रही हैं.
बाबुओं के घर से निकलती यह करोड़ों रु पयों की बरात, फाइलों के बोझ तले दुबके हुए बैठे अन्य बाबुओं को भी संशय के घेरे में ला रही है. जिन कार्यालयीन बाबुओं ने दिनभर में दो-तीन पान चबा लेने को रईसी समझा हो, जिन्होंने सब्जी मंडी में लौकी-नेनुआ के भाव-ताव में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो, ऐसे पवित्र बाबुओं के बारे में समाज की राय का एकाएक बदल जाना चिंतनीय विषय है. यह अजीब दौर है. चारों तरफ गिरने-गिराने का दौर जारी है. पर गिरने की भी हद होती है. अरे! इनसानों को छोड़िए, सोने-चांदी को देखिए. इत्ता गिरे, इत्ता गिरे कि गिर-गिर कर अपना नाम और दाम दोनों ही डुबो दिया. सोना-चांदी खुद तो डूबे ही, साथ में न जाने कितने निवेशकों, व्यापारियों, कारीगरों को ले डूबे. देख रहा हूं सब डूब-डाब कर मातम मना रहे हैं.
हो सकता है, सर्राफा बाजार की गिरावट से धोखा खा चुके लोग भविष्य में सोने-चांदी से मुंह फेर लें या इसके प्रति उनमें अरुचि पैदा हो जाये, पर एक बात तो तय है कि जगह-जगह  बाबू बनानेवाले कोचिंग क्लासेस के बड़े-बड़े होर्डिग लग जायेंगे. बच्चे भी शायद अब बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना न चाहें. बड़े ओहदों पर जाने की तैयारियों में भी कोई व्यर्थ ही अपना अर्थ और श्रम क्यों जाया करेगा? जब पहले पायदान पर ही लक्ष्मी जी भर-भर के कृपा दृष्टि लुटाने को आतुर बैठी हों, तब ऊपरी पायदान को लक्ष्य बनाने का क्या फायदा? या यूं कहें कि जब खिड़की से ही चांद के दर्शन हो रहे हों, तो छलनी लेकर छत पर टहलने का क्या मतलब?

3 टिप्‍पणियां: