सोमवार, 24 जून 2013

कोई बिकने में मशगूल है, तो कोई बेचने में

अलस्सुबह कल्लू चायवाले की दुकान पर जुम्मन मियां गला फाड़-फाड़ के चिल्ला रहे हैं, ‘‘जैसे मजबूर किसान की जमीन बिकती है, जैसे मजबूर औरत की अस्मत बिकती है, जैसे आजकल बच्चे बिकते हैं, जैसे कोयला और लौह अयस्क जैसी देश की दौलत बिकती है, जैसे किसी का जमीर बिकता है, जैसे कोई नेता बिकता है या फिर नेताओं का समर्थन बिकता है, जैसे हाकिम बिकते हैं, उनकी कलम बिकती है, जैसे नौकरियां बिकती हैं, जैसे सरकारी कंपनियां बिकती हैं, वैसे ही अगर खिलाड़ी भी बिक गये तो ताज्जुब कैसा? अगर बाकी सबकुछ बिकना जायज है, तो खिलाड़ियों का बिकना गलत कैसे हुआ?’’
दुकान पर बैठे अन्य ग्राहक चुपचाप चाय सुड़क रहे हैं. जुम्मन मियां की बात का जवाब देने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही. मैं समझ गया कि आज फिर सुबह-सुबह ये जनाब अखबार पढ़ कर ‘चाजर्’ हो गये हैं. यह यहां का आम दृश्य है. कलक्ट्रेट ऑफिस में बड़ा बाबू पद से सेवानिवृत्त होने के दस साल बाद भी जुम्मन मियां बेबाकी और जिंदादिली के मामले में सबसे अलग हैं. कुछ लोग उन्हें ‘मुंहफट’ की संज्ञा भी दे देते हैं. मुङो देखा तो फिर शुरू हो गये. अखबार लहरा कर बोले, ‘‘हल्ला मचा है कि देखो खिलाड़ी बिक गये! पर खिलाड़ियों को तो बिकना ही था. पहले अर्थव्यवस्था देश की होती थी, अब बाजार की होती है. पहले सब कुछ सरकार तय करती थी, अब बाजार तय कर रहा है. खुद सरकार ने बाजार को इतना सम्मान दे दिया है, ऐसी खुली छूट दे दी है कि बाजार उद्दंड हो गया है. वह छुट्टा सांड़ की तरह घूम रहा है. फिर खिलाड़ी ही बेचारे उससे कब तक बचते? उनका बिकना तो उसी दिन तय हो गया जिस दिन आइपीएल की योजना बनी थी. हालांकि जब वे विज्ञापनों में कोल्ड ड्रिंक बेच रहे थे, तेल-साबुन बेच रहे थे या चड्ढी-बनियान बेच रहे थे, असल में तो वे तब भी बिक ही रहे थे. हमें लगता था कि वे ये चीजें बेच रहे हैं. पर वास्तव में वे अपने को ही बेच रहे थे, अपने हुनर से हासिल सम्मान बेच रहे थे, दर्शकों और खेल प्रेमियों से मिला प्यार बेच रहे थे, खेल से प्राप्त अपना ऊंचा स्थान बेच रहे थे. अर्थात वे खुद ही बिक रहे थे.  अरे, इस देश में क्या-क्या नहीं बिक रहा. कोई ‘विश्वास’ बेच रहा है तो कोई ‘विश्वासमत’ बेच रहा है. कोई ‘समर्थन’ बेच रहा तो कोई वोट बेच रहा. कहीं कुरसी बिक रही, तो कहीं पद बिक रहा. कोई बेचने में मशगूल है तो कोई खरीदने में मग्न..’’
मैंने उन्हें बीच में टोका, ‘‘काका चाय खत्म हो गयी हो तो चलो पान खिलाता हूं.’’ बोले, ‘‘हां, चलिये जनाब! यहां सब फटीचर हैं. पर चूना जरा कम लगवाइयेगा. मुंह में छाले हो गये हैं. परसों एक सज्जन ने कारबाइड से पका आम खिला दिया था.’’

1 टिप्पणी:

  1. मस्त व्यक्ग है ... जब सब कुछ बिकने को तैयार है तो किसी एक का क्या कसूर ... भई वाह ...

    जवाब देंहटाएं