सोमवार, 16 मार्च 2009

शिवगंगा में संगम

उफ... ऐसे नहीं... क्‍या कर रहे हो... मेरा पैर ढको... जैसी विचलित करने वाली आवाज से मैं जूझ ही रहा था कि धडाधड पप्पियों-झप्पियों की बारिश होने लगी। यह सब कुछ हो रहा था मेरे सामने वाली बर्थ पर। बात 14 मार्च की है। मैं शिवगंगा एक्‍सप्रेस से वाराणसी से गाजियाबाद आ रहा था। चूकि मुझे कनफर्म बर्थ नहीं मिल पाया था इसलिए मैं अपर बर्थ पर एक उम्रदराज महिला से इजाजत लेकर बैठ गया था, उस महिला की उम्र लगभग 70 साल की रही होगी। हालांकि मैं काफी थका हुआ था पर सो पाने की कोई गुंजायश कतई नहीं थी। पूरा डिब्‍बा यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था। गेट से लेकर बर्थ तक। जो जहां बैठ सकता था, बैठा था। रात काफी हो रही थी, सारे यात्री लाइट आफ कर सो रहे थे इसलिए मैं कुछ पढ भी नहीं सकता था। मैं जिस बर्थ पर बैठा था वह महिला कुछ-कुछ बीमार सी लग रही थी। मैंने महसूस किया कि वह पूरे टाइम जगी ही रही। अब तक मैं सामने वाले बर्थ से थोडी-थोडी देर पर पप्पियों-झप्पियों की आवाज सुनने का लगभग आदी हो चुका था।
सुबह चार बजे मुझे उस महिला ने लगभग गुजारिश के लहजे में कहा, बेटा मुझे बाथरुम पहुंचा दो। इससे पहले वह नीचे की बर्थ पर सो रहे अपने घरवालों को कई बार पुकार चुकी थी। खैर, मैंने सहारा देकर उसे बर्थ से नीचे उतारा। उसने अपने चप्‍पल पर से उठाकर कोई वस्‍तु मुझे देते हुए कहा- देखना यह किसी का कोई सामान गिर गया लगता है। मैं अवाक रह गया। वह कंडोम का खाली रैपर था। जब मैं उसे बाथरुम से लेकर लौट रहा था, उसने मुझसे स्‍वाभाविक सवाल किया- बेटा वह क्‍या था, तुम्‍हारा था। मैंने सहज होते हुए जवाब दिया, नहीं अम्‍मा जी वह चाकलेट का खाली पैकेट था, किसी बच्‍चे ने खाकर फेंका होगा।
उसके बाद मैं असहज महसूस करता रहा। अब मुझे सुबह होने का इंतजार था।
खैर प्रतीक्षा खत्‍म हुई, सुबह हो चुकी थी। ट्रेन अलीगढ जंक्‍शन पार कर चुकी थी। मेरे सामने वाली अपर बर्थ पर सो रहे युगल को जगाने उनके कई दोस्‍त आए। मैंने पत्रकारीय गुण का इस्‍तेमाल किया। तस्‍वीर साफ हो चुकी थी। दरअसल, वे दोनों ग्रेटर नोएडा की किसी इंस्‍टीच्‍यूट के कंप्‍यूटर साइंस के स्‍टूडेंट थे व प्रेमी युगल भी। होली के अवकाश के बाद घर से लौट रहे थे। लडका बनारस का था, लडकी इलाहाबाद की। दोनों की प्रेम कहानी उनके कालेज कैंपस में काफी मशहूर है। लगभग दस छात्रों का समुह अब तक वहां जमा हो चुका था। वे सभी उन दोनों को जिस तरह से मुस्‍कराकर देख रहे थे उससे मुझे अपने सारे सवालों को जवाब मिल गया था। गाजियाबाद में ट्रेन चार नंबर प्‍लेटफार्म पर रुकी और मैं उतर गया।
इससे मेरा यह विश्‍वास तो पुख्‍ता हो ही गया कि नये युवा प्रेमियों का दिल, जिगर, गुर्दा सब फौलाद का बना है। वह जहां चाहें, जो चाहें कर सकते हैं। जब वे प्‍यार में होते हैं तो उन्‍हें किसी की भी परवाह नहीं होती। उन्‍हें जो करना है, वे बिना परवाह के कर गुजरते हैं। हम तब भी कमजोर थे और अब भी हैं। जिसे वर्षों से चाहते रहे उसका हाथ पकडने तक का साहस नहीं जुटा पाए। इजहार करने का तरीका कहां-कहां नहीं ढूंढा। पार्क में झाडियों के पीछे छिप कर कुछ करने का आइडिया अब तक नहीं आया। घंटों फूलों का लुत्‍फ उठाकर खुशी-खुशी घर लौट आते थे, जैसे कोई बहुत बडी उपलब्धि हासिल कर ली हो। पर इन प्रेमी युगल जैसा साहस कभी नहीं हुआ।

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