सच कहिये तो इ राजनीति भी ससुरी बड़ी टूच्ची चीज है. सहा भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता. लोकतंत्रवासी जानबूझ के मक्खी निगलने के आदी हो चुके हैं. निकम्मे नेताओं को खुद ही वोट देते हैं और फिर पांच बरिस तक गाली देते रहते हैं. अरे, नेता लोगन पर गोसाने से क्या फायदा? उ काहे काम करेगा, संसद हो या बाहर. ओके मरजी, नहीं करेगा काम. किसके डर से करेगा काम. न लोग (जनता) का डर है लोक (संसद) का. सत्ता पक्ष बरजोरी कर रहा और विपक्ष जोकरई. संसद में भूकंप न आ जाये इस डर से राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अकेले में मिलते हैं. पर उ कहे या बताये क्या? मालूम नहीं चल पाता. इ तो गजबे हो गया भईया! दुनिया में एह से बढ़कर अचरज और का होवेगा कि संगीन आरोप लगावे के डूगडूगी पीटे वाला आदमी आरोपी के कान में बुदबुदा के हंसत-खेलत घर आ गवा. असल भूकंप त एही है! अब आप अगर अइसा सोचते हैं कि काम नहीं तो पइसा नहीं (संसद के शीतकालीन सत्र में एक भी दिन काम नहीं हुआ तो सांसदों को उतने दिन का वेतन नहीं मिलना चाहिये) तो सोचते रहिये. किसने मना किया है. टाइम तो आखिर आप ही के पास है. उन लोगन जइसन आप बिजी थोड़ी न हैं!
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