रविवार, 9 सितंबर 2012

माई पापा इज माई एटीएम

माई पापा इज माई एटीएम.. बिष्टुपुर के कमानी सेंटर में एक हमउम्र युवक का हाथ पकड़ कर घूम रही युवती के टी-शर्ट पर यही लिखा था. सात वर्षीय मेरी बेटी ने उस स्लोगन को पढने के बाद मुस्कराते हुए मेरा ध्यान उसकी ओर आकृष्ट कराया तो मेरे चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गई. पापा जो बचपन में हमारा ख्याल रखते हैं. पापा जो युवावस्था में हमें सही मार्ग दिखाते हैं और दुनिया से बचाते हैं. वही पापा एक दिन हमारे लिए ‘वस्तु’ हो जाते हैं. वस्तु, जी हां क्योंकि किसी वस्तु का ही हम उपयोग करते हैं. जिनसे हमें प्यार होता है, उनके लिए तो हमारे दिल में सम्मान और समर्पण की भावना होती है, लेकिन आधुनिकता की होड़ में शामिल युवा पीढी में मां-बाप को सिर्फ ‘वस्तु’ बनाने की होड़ है. मानसिकता सिर्फ पाने की, बदले में कुछ देने की नहीं. माई पापा इज माई एटीएम.. महज टी-शर्ट पर लिखा एक स्लोगन भर नहीं है. यह यंग जेनरेशन की सोच को प्रतिबिंबित करता एक वाक्य भी है जिसके गंभीर निहितार्थ हैं.

एक भयावह तथ्य से आपको वाकिफ कराता चलूं. केवल जमशेदपुर ही नहीं झारखंड व बिहार के दूसरे शहरों तथा कोलकाता के साथ-साथ दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई, पुणो, चेन्नई, कटक, भुवनेश्वर सब जगह युवाओं में आत्महत्या की प्रवृति में बेतहासा वृद्धि हो रही है. जमशेदपुर में तो महीने के तीसो दिन यानि, औसतन हर रोज आत्महत्या की कोई न कोई घटना जरू र होती है. कभी पॉकेटमनी के लिए, कभी खेलने से मना करने पर, कभी स्कूटी न खरीदने पर, कभी नये मोबाइल के लिए.. और न जाने कितने बेवजह कारण. हद तो यह कि मां-बाप की जरा-सी भी बात बरदाश्त नहीं होती. संवादहीनता का दायरा व्यापक होता जा रहा है. दोस्तों से फोन पर घंटों बातें करने में कोई गुरेज नहीं रखने वाले बच्चों को अपने अभिभावकों से बात करने में जाने कैसी हिचक होती है. हां, इनकी जिंदगी में सबसे अहम कोई चीज है तो वह है मनी (पैसा). पावर और पैसे के पीछे भाग रही यह पीढी रिश्ते-नाते सबको पीछे छोड़ती जा रही है. सोचा, आखिर यह दिशाभ्रम क्यों है? तभी टीवी पर आ रहे एक विज्ञापन का जिंगल मेरे कानों में गुंजने लगा- ‘हर एक फेंड्र जरू री होता है.’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन आज खुशहाल जीवन के नुस्खे बांट रहे हैं, जिसकी कीमत एक निश्चित रकम से तय होती है. इन विज्ञापनों की कोशिश ‘पैसा बोलता है’ जैसे मुहावरे को जायज ठहराने के साथ उसे स्थापित करने की भी होती है. पैसे के बोलने का मतलब स्नेह, ममता, प्रेम जैसे शब्दों का बाजारीकरण है. क्या सचमूच हमारी जिंदगी में माता-पिता, दादा-दादी, भैया-दीदी, चाचा-चाची के लिए कोई स्थान नहीं रहा. यह क्षरण हमें कहां ले जाएगा?  क्या 'पिज्जा'  हमें ‘पकवान’ से दूर करता जा रहा है?