शनिवार, 28 जून 2014

यह जमूरे हैं या जम्हूरियत..?

अब बता रहा हूं पर बात पुरानी है. आप चाहें तो मेरी इस अज्ञानता पर हंस भी सकते हैं. दरअसल, मैं जमूरे और जम्हूरियत को समानार्थी शब्द समझता था. अच्छा हुआ मेरी इस अज्ञानता से परदा उठ गया. पर हाल के दिनों में एक बार फिर मुङो यह दोनों शब्द एक जैसे लगने लगे हैं. क्या करूं मुल्क की हालात ही कुछ ऐसी होती जा रही है. लोगबाग सोच रहे हैं क्या यह नयी सरकार है? क्या यह वही प्रधानमंत्री हैं जो पिछले वाले पीएम को कोसते हुए पानी भी नहीं पीते थे? क्या यह वही एनडीए है जो यूपीए गंठबंधन को सबसे निकम्मी सरकार बताती थी? अगर वाकई सबकुछ बदल गया है तो दिखता क्यों नहीं सिवाय कागज के. अगर आप भूले नहीं हो तो भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने चुनाव प्रचार के दौरान सिंह गजर्ना की थी ‘हमारे पास इस देश के हर मर्ज की दवा है-मोदीसीन.’ यूपीए से थकी-हारी इस देश की अवाम ने उनकी बात पर भरोसा किया. पर एक महीना बीतने के बाद आज मोदी सरकार के पास जनता से किये गये वादे पूरे करने के नाम पर बताने के लिए है क्या बाबाजी का ठुल्लू..! यही वजह है कि मुङो जैसे अज्ञानी देशवासियों को आज भी जमूरे और जम्हूरियत में अंतर समझ में नहीं आ रहा. लग तो यही रहा कि कोई मदारी तमाशा दिखा रहा है. जो बस छलावा है..आप चाहें तो इसे नजरबंद का खेल भी कह सकते हैं. यानी जो होता दिख रहा है वह हो नहीं रहा. दर्शक वही देख पा रहा जो मदारी दिखाना चाह रहा है. शो खत्म होने के बाद सब कुछ फिर से वैसा ही हो जायेगा जैसा पहले था. तो लीजिए जनाब..शो चालू आहे..
जमूरे तमाशा दिखायेगा..हां, उस्ताद.
तो बता इस देश की बेरोजगारी का इलाज क्या है..मोदीसीन उस्ताद.
इस देश से भ्रष्टाचार मिटाने की मशीन क्या है..मोदीसीन उस्ताद.
स्विस बैंक में जमा काला धन कैसे आयेगा..मोदीसीन उस्ताद.
महंगाई पर कैसे लगेगी लगाम..मोदीसीन उस्ताद.
बस कर..बच्चे की जान लेगा क्या?
सबकुछ आज ही बता देगा तो बाकी दिन की रोजी-रोटी कैसे चलेगी? चल जा सामने वाले बाबू लोगों से दस-दस रुपये का नोट लेकर आ. बच्चे लोग चलो बजाओ ताली..
‘तो भाइयों और बहनों! इस देश में अब हर मर्ज की बस एक ही दवा है मोदीसीन. क्या आप बेरोजगारी से परेशान हैं, क्या आप महंगाई के मारे हुए हैं,क्या आपकी जिंदगी में आज तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ..हां भई हां. तो मोदीसीन क्यों नहीं लेते. हर बीमारी का रामबाण. एक बार अवश्य अपनाएं.’ लोग चकित इस बात से भी हैं  कि आखिर इतनी प्रचारित दवा असर क्यों नहीं कर रही?  कहीं यह भी अब सरकारी तो नहीं हो गयी? क्योंकि इस देश में हर सरकारी चीज बेकार हो जाती है. इसलिए इससे लोगों का भरोसा उठ जाता है.

गुरुवार, 12 जून 2014

आइआइटी बेहतर या चाय बेचना?

बीते आम चुनाव ने सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका निभायी है. कांग्रेस की करारी हार और भाजपा की चौतरफा जीत ने लोगों के सोचने का तौर-तरीका बदल दिया है. कुछ बदले या न बदले नयी पीढ़ी की सोच जरूर बदल गयी है. हालिया परिदृश्य में लोगबाग कन्फ्यूज्ड हैं कि वे अपने बच्चों को आइआइटी में दाखिला दिला कर अरविंद केजरीवाल बनायें या चाय की दुकान में काम करा कर नरेंद्र मोदी. और तो और, अब बच्चे अपनी मां-बहन की बात भी सुनने को तैयार नहीं, कहते हैं- ‘मुङो राहुल गांधी नहीं बनना.’ सुनने में आया है कि अर्थशास्त्र पढ़नेवालों की तदाद भी घटने लगी है. जब एक पिता ने अपने बेटे से कहा कि ‘तुम अर्थशास्त्र क्यों नहीं पढ़ते?’ तो छात्र ने टका सा जवाब दिया- ‘यह सब्जेक्ट अब किसी काम का नहीं रहा. एक वक्त था जब देश के नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को केंद्रीय कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाया जाता था. अब तो इसकी जरूरत ही नहीं रही.’ बीच में जब पिता ने टोका, ‘क्यों, डॉ मनमोहन सिंह इतने बड़े अर्थशास्त्री थे तो प्रधानमंत्री  बने कि नहीं?’ बेटा बीच में ही बोल पड़ा, ‘पापा! क्या आप नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कम बोलने की अपनी योग्यता के कारण प्रधानमंत्री बनाये गये?’ हां, वकालत के पेशे को अब प्रतिष्ठा की नजर से अवश्य देखा जाने लगा है. बात भी सही है- जिस पेशे ने देश को रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, कानून मंत्री, दूरसंचार मंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन मंत्री वगैरह दिये हों, उसे तो इतनी प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए. इस बात को वर्तमान सरकार से लेकर पिछली सरकार तक में देखा जा सकता है. वकालत पेशे का एक अहम पहलू यह भी है कि किसी भी सरकार में यह आपको मंत्री तो बनाता ही है, खुदा न खास्ता कहीं अगले चुनाव में आपकी पार्टी की सरकार नहीं बनी या आप हार गये या मान लो आपको मंत्री नहीं बनाया गया, तो बेफिक्र होकर फिर से अदालतों में प्रैक्टिस शुरू कर दो. अभिभावकों का यह भी मानना है कि एक बात का खतरा भविष्य में अवश्य मंडरा सकता है. खतरा यह कि नयी पीढ़ी कहीं यह न सोचने लगे कि ज्यादा लिख-पढ़ कर क्या फायदा, जब हमारी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ही सिर्फ इंटर पास हैं. डर यह भी है कि लड़कियां कहीं पढ़ने से ज्यादा टीवी सीरियल, एक्टिंग या मॉडलिंग में रुचि न प्रदर्शित करने लगें. नयी पीढ़ी के एक बड़े वर्ग को यह भी लगने लगा है कि आज जमाना योग्यता का नहीं, किसी का विश्वासपात्र होने का है. अगर आप किसी के विश्वासपात्र हैं तो किसी और योग्यता की आवश्यकता शायद न हो. यानी, मुरली मनोहर जोशी होने से अच्छा है स्मृति इरानी होना! यह एक खतरनाक वक्त है, यह संक्रमणकाल भी है. यह दौर है खुद को खो देने और किसी को जीत लेने का. जो इस दौर को समझ जायेगा, इसे आत्मसात कर लेगा. सिकंदर वही कहलायेगा. आप क्या सोचते हैं..?

सोमवार, 9 जून 2014

अगर मैं कवि नहीं होता तो ट्रेन चला रहा होता : अरुण कमल


अरुण कमल की गणना आधुनिक कवियों की पहली पंक्ति में की जाती है. उनकी कविताओं में नए बिंब, बोलचाल की भाषा, खड़ी बोली के अनेक लय-छंदों का समावेश है. इनकी कविता में वर्तमान शोषण मूलक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश, नफरत और उसे उलट कर एक नई मानवीय व्यवस्था का निर्माण करने की आकुलता सर्वत्र दिखाई देती है. इन्हें कविताओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से नवाजा चुका है. एक साहित्यिक आयोजन में शिरकत करने जमशेदपुर (झारखंड) आये हिंदी के इस ख्यातिलब्ध कवि से बात की अखिलेश्वर पांडेय ने. पेश हैं इस इंटरव्यू के मुख्य अंश.


अरुण कमल (जन्म :1954 रोहतास, बिहार)  
प्रमुख कृतियां हैं : अपनी केवल धार, सबूत नए इलाके में, पुतली में संसार तथा कविता और समय. 
पुरस्कार-सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1980), सोवियत भूमि पुरस्कार (1989), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1990), रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1996), शमशेर सम्मान (1997) एवं कविता संग्रह ‘नए इलाके में’ के लिए (1998) साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित.

खुद के अभी तक के रचनाकर्म से संतुष्ट हैं? 
नहीं, कतई संतुष्ट नहीं हूं, क्योंकि संतोष हो जाएगा तो लिखना बंद हो जायेगा. मुङो हमेशा लगता है कि कविता बिल्कुल वैसी होनी चाहिए जैसे कबीर और तुलसीदास की कविता हैं, जिनकी पंक्तियां गांव-गांव, शहर-शहर में लोगों की जुबान पर हैं. जो लोगों के सुख-दुख की सहचर हो. अभी तक मैंने ऐसा नहीं लिखा है.

आप कवि नहीं होते तो क्या होते?
रघुवीर सहाय की एक कविता है-मैं तोता होता तो क्या होता. वैसे ही अगर मैं कवि नहीं होता तो तोता होता. हो सकता है कि मैं कोई बड़ा स्मगलर होता. कोई मंत्री या प्रधानमंत्री भी हो सकता था. जब हम कोई एक निर्णय लेते हैं तो फिर उसी पर अडिग रहना पड़ता है/रहना चाहिए. एक साथ बहुत काम नहीं कर सकते. जैसे मैं कविता लिखता हूं तो यह तो नहीं हो सकता कि मैं किसी दूसरे देश की खुफियागीरी करूं, हत्यारों के साथ पार्टियों में जाऊं. भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का शागिर्द बन जाऊं. जब आप सड़क पर चल पड़ते हैं तो आपका ध्यान सिर्फ पेड़-पौधों पर होता है, वही आपके सहचर होते हैं. वैसे तो मैं पेशे से शिक्षक हूं, पर मेरी दिली ख्वाहिश रही है कि काश मैं रेलगाड़ी चला पाता. तो मुङो यह लगता है कि अगर मैं कवि नहीं होता तो मैं रेलगाड़ी का ड्राइवर होता. दरअसल, मुङो बचपन से ही ट्रेन को देखकर बड़ा कौतूहल होता था. मैं सोचता था कि आखिर कोई इतनी बड़ी ट्रेन को कैसे चला पाता है?

क्या कवि कोई विशिष्ट प्राणी है?
कवि का काम है कविता लिखना. कविता लिखने के लिए उसे तमाम तरह के यत्न  करने पड़ते हैं. उसे अपने तरह की जिंदगी जीनी पड़ती है. अगर वह हमेशा सजा-संवरा, माला-दुशाला में रहेगा तो उसका अजीब तरह का स्वांग होगा. कवि के लिए सबसे अच्छा तो यही होता है कि उसे कोई न जाने कि वह कवि है, लोग उसकी कविताओं को जानें, यही कवि की विशिष्टता है. मेरी एक पंक्ति है- सितारा बनने से अच्छा है, गंदी गली का लैंपपोस्ट बनो.

इसी साल आपने जिंदगी का 60वां पड़ाव पार किया है? कुछ स्पेशल लग रहा है?
हां, इसका एक रोचक वाकया है. जिस दिन मैंने 60 साल पूरे किये, उसी दिन मैं रेलवे स्टेशन गया और वरिष्ठ नागरिक वाला एक रियायती टिकट खरीदा. हालांकि मुङो कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैंने रियायती टिकट खरीदा और फिर दूसरे दिन जाकर वापस कर आया. थोड़े दिन रियायती टिकट लेकर बनारस गया और अब जमशेदपुर आया हूं. मुङो अच्छा लगा कि चलो उम्र बढ़ने का यह फायदा तो हुआ. मैं इस बात का हिमायती नहीं हूं कि उम्र बढ़ने से कोई विशिष्ट या बड़ा हो जाता है. इंसान बड़ा होता है अपने कर्म से, अपने गुण से. जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु इतनी कम उम्र में गुजर गये, लेकिन लोग उनकी रचनाओं को याद करते हैं. अंग्रेजी में शेली, किट्स और फ्रांस में रैम्बो. रैम्बो की तो सारी बेहतर कविताएं 20-21 की उम्र तक आ चुकी थीं. मेरा मानना है कि उम्र का न तो विशिष्टता से संबंध है और न ही गुणवत्ता से.

अब आगे क्या प्लानिंग है, कोई इच्छा?
मेरी बहुत इच्छा है कि मैं कैलाश-मानसरोवर देखूं, माउंट एवरेस्ट जाऊं, लेकिन मुङो पता है कि मैं अब यह नहीं कर सकता. लेकिन मेरी यह इच्छा अवश्य है कि मैं दुनिया का वह श्रेष्ठ साहित्य अवश्य पढूं जो अब तक नहीं पढ़ पाया या ठीक से नहीं पढ़ पाया. जैसे-महाभारत, रामचरित मानस, कालीदास, भवभूति आदि को ध्यान से पढ़ने की प्रबल इच्छा है. शेक्सपीयर भी मेरे प्रिय रचनाकार हैं, उन्हें भी और पढ़ना चाहता हूं. हां, एक बात और है - मैं ऐसी जगह रहना चाहता हूं जहां सामने नदी और पीछे पहाड़ हो, आसपास पेड़ हों. लेकिन यह ऐसी इच्छा है जो पूरी होनी मुश्किल है. मैं घाटशिला भी इसीलिए जाना चाहता हूं-जहां विभूति भूषण बंदोपध्याय रहते थे.

नये रचनाकारों के लिए कोई संदेश?
कभी भी सत्ता के पीछे न जाएं. रोजी-रोटी के लिए ज्यादा चिंतित न हों. हमारे पुरखे जो कहते थे वही बात मैं भी दोहराऊंगा कि जब भगवान ने मुंह चीर दिया है तो आहार भी मिल जायेगा. सत्ता और धन के प्रति हिकारत तो होनी ही चाहिए, उसके बिना कविता नहीं लिखी जा सकती. जिंदगी को अच्छे से जीने के लिए एक उन्मुक्तता जरूरी है. अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए. जो कुछ भी दुनिया में सर्वोत्तम है उसे हासिल करने का प्रयत्न करना चाहिए. आप चाहे जिस भी क्षेत्र में हों, वहां अपना सर्वश्रेष्ठ दें.

वर्तमान राजनीति को आप कैसे देखते हैं?
अभी जो कुछ भी बदलाव हुआ है उसे मैं इस रूप में देखता हूं कि आम आदमी की जिंदगी में क्या बदलाव आया है. अगर उसकी जिंदगी में अच्छा बदलाव आया है तो समङिाये अच्छा हो रहा है. लेकिन अगर सिर्फ अरबपतियों की जिंदगी में अच्छा बदलाव आ रहा है तो समङिाये अच्छा नहीं है. जैसा व्यवहार आप मनुष्य के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार आप प्रकृति के साथ भी करते हैं. सिर्फ कुर्सी बदलना बदलाव नहीं है. बदलाव इंसानों में होना चाहिए. सबसे कमजोर आदमी की जिंदगी बेहतर हुई है तो समङिाये बदलाव हुआ है. सबको रोजी-रोटी मिले, किसी को रोजगार की चिंता न सताये. जब इंसान अपनी नौकरी जाने की चिंता छोड़, इत्मीनान से मछली मारे, अच्छा म्यूजिक सुने, सुकून की जिंदगी जीये, तब समङिाये कि अच्छे दिन आ गये.

आदिवासी साहित्य को बढ़ावा दे टाटा समूह
झारखंड की संताली और मुंडा कविता भी मुङो बहुत पसंद है. खासकर जगदीश त्रिगुणायत ने आदिवासी लोकगीतों का संग्रह तैयार किया ‘बांसुरी बज रही है’ नाम से. वह बहुत अच्छी है. उसने मुङो प्रभावित किया. मेरा मानना है कि आदिवासी भाषाओं की कविता को और ज्यादा प्रचारित-प्रकाशित किया जाना चाहिए. यह काम सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को भी करना चाहिए. टाटा समूह को भी इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए.

मिठाइयां खाने का शौक
मुङो खाने का बहुत शौक है. मैं जब भी केरल जाता हूं, ढेर सारे मसाले ले आता हूं. आलू दम का तो मैं दीवाना हूं. मुङो सभी तरह की मिठाइयां भी बहुत पसंद हैं. खासकर पुरानी मिठाइयां जैसे- गुड़ से बनी जलेबी, लाई, शक्करपाला, लक्ठो.

आमंत्रित करता शहर है जमशेदपुर
मैं दूसरी बार जमशेदपुर आया हूं. इस बार लंबे अरसे बाद आना हुआ है. खुला-साफ शहर है यह. पटना में मैं जिस इलाके में रहता हूं वहां आप शाम को भीड़ के मारे निकल नहीं सकते. यहां खाली व साफ सुथरी सड़कें मुङो आकर्षित करती हैं. सुबह जब मैं स्टेशन पर उतरा तो मुङो बहुत अच्छा लगा. झारखंड-बिहार में ऐसा शहर दूसरा नहीं है. यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है, शुरू से ही है. खास बात यह है कि इस शहर ने आरंभ से ही अपनी गुणवत्ता बरकरार रखी है. हर तरीके से यह एक आमंत्रित करता शहर है.

बुधवार, 4 जून 2014

काश!अच्छे दिनों की उम्र लंबी होती

नयी दिल्ली में मोदी सरकार को काम-काज संभाले एक सप्ताह हो चुका है. इस देश के लोगों के ‘अच्छे दिन’ आये कि नहीं यह तो पता नहीं, पर इस बार इस कॉलम में एक ऐसे ‘अच्छे दिन’ की चर्चा जिससे अधिकांश लोग वाकिफ हैं. आपने गौर किया हो तो सैलरी (वेतन) मिलते ही हमारी जिंदगी कितनी खुशनुमा हो जाती है. मन मयूर नाचने लगता है, दिल में मधूर संगीत बजने लगता है. यह दुनिया कितनी हसीन लगने लगती है. बीबी-बच्चों पर कितना प्यार उमड़ने लगता है. मोबाइल फोन में फुल टॉक टाइम का बैलेंस डलवा कर पहली फुरसत में मां-बाबूजी, भइया-भाभी, मामी-मामा, दीदी-जीजा और न जाने किस-किस रिश्तेदार समेत यार-दोस्तों से लंबी बातचीत कर उनके घर में क्या पक रहा है से लेकर कितना नमक डाला जा रहा है तक का हालचाल जान लेना आवश्यक जान पड़ता है. लगता है हम कितने ऊर्जावान हैं, कितनी जवाबदेही है हमपर. हम अधिक सजग और व्यवस्थित हो जाते हैं. इसे कहते हैं ‘अच्छे दिन’. पर यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहती. अचानक सबकुछ तेजी से बदलने लगता है. जैसे-जैसे एकाउंट से पैसा खत्म होता जाता है, वैसे-वैसे हमारे अंदर परिवर्तन होना शुरू हो जाता है. फिर छोटी-छोटी बातें हमें परेशान करने लगती हैं. लगने लगता है कि महंगाई जरूरत से ज्यादा बढ़ गयी है. घर में बच्चों की किलकारी भी शोर का शक्ल अख्तियार कर लेती है. पत्नी की मीठी बातें भी कड़वी लगने लगती हैं और कहीं अगर कुछ खरीदने वगैरह की फरमाइश हो गयी, तो लगता है जैसे कोई ताना मार रहा हो. खाद्य वस्तुओं से सजा घर का रसोईघर और फ्रिज धीरे-धीरे खाली होने लगता है. बाहर निकलते वक्त कहीं बच्चे ने साथ जाने की जिद कर दी, तो लगता है  बच्च कुछ खरीदने के लिए न कह दे. सो, बच्चे को तरह-तरह की बातों से बहलाने की जुगत लगानी पड़ती है. मोबाइल में बैलेंस सिर्फ मिस्ड कॉल के लायक ही बचा होता है. ऐसे में अगर कोई दूसरा मिस्ड कॉल करता है, तो आप सोच सकते हैं खुद पर क्या गुजरती है. मन कुछ उचाट-सा हो जाता है. लगने लगता है कि जिम्मेदारियों का बोझ कुछ ज्यादा ही हो गया है. यह दुनिया बेरहम-सी लगने लगती है. तब बस मन में एक ही ख्याल आता है..काश! यह महीना जल्दी से खत्म हो जाये. म्यूजिक से तो जैसे चिढ़ ही हो जाती है.. लगता है किसी ने मन वीणा के तार तोड़ दिये हों. सब कुछ बेसुरा-बेलय-सा हो जाता है. यानी, अच्छे दिन शीघ्र ही बीत जाते हैं. कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने भी तो कहा ही है ‘वेतन तो पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह है, जो महीने के हर दिन खर्चे के कारण घटता जाता है.’
    कभी-कभी ख्याल आता है.. कितना अच्छा होता इन अच्छे दिनों की उम्र थोड़ी और लंबी होती. तो सबकुछ यूं ही अच्छा-अच्छा सा रहता. या कम से कम अच्छे का अहसास तो रहता.