शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

अब समझा मोदी की बात का मर्म

उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश था. एक मित्र को स्टेशन छोड़ कर रात में घर लौट रहा था. घर से करीब दो सौ कदम दूर एक बंद गली से किसी प्रतिद्वंद्वी को परास्त कर या परास्त होकर तेजी से एक कुत्ता मेरी मोटरसाइकिल के अगले चक्के में घुस आया. गाड़ी फिसली और मैं धड़ाम. मुङो ठीक-ठीक इतना ही याद है. बाकी का घटनाक्रम इतनी तेजी से हुआ कि मुङो पता ही नहीं चला. मुङो आसपास के लोगों ने उठाया और मैं किसी तरह वहां से घर पहुंचा. रातभर दर्द से परेशान रहा. रातभर आपकी जगह दर्द की याद आती रही.. दूसरे दिन जब डॉक्टर से सामना हुआ, तो पता चला कि पैर में फ्रैर है. प्लास्टर करवा कर घर लौटा. मित्रों, रिश्तेदारों व जाननेवालों की तरफ से कुशलक्षेम जानने का सिलसिला शुरू हुआ. कुछ घर पहुंचे और कई ने फोन किया. अजीब लगता है, एक ही बात का रिपीट टेलीकास्ट करते रहो. किसी से विस्तृत, तो किसी से संक्षेप में. एक अलग तरह का अनुभव है यह. इस दौरान कई लोगों ने मुझसे यह भी जानना चाहा कि उस कुत्ते का क्या हुआ? वह जिंदा है या..? उसका पैर सलामत है या..? इन सवालों का सामना करते हुए शुरू में तो मुङो थोड़ा अजीब लगा, पर बाद में मैं इसे लेकर संजीदा हो गया. मैं इसे स्वाभाविक सवाल के रूप में देखने लगा.
तब मुङो याद आया नरेंद्र मोदी का वह बयान- ‘अगर हम गाड़ी चला रहे हैं या कोई और ड्राइव कर रहा है और हम पीछे बैठे हैं, फिर भी छोटा सा कुत्ते का बच्चा भी अगर गाड़ी के नीचे आ जाता है तो हमें पेन फील होता है.’ मैं सोच में पड़ गया कि मैं तो अपने दर्द से ही परेशान हूं. मुङो अपनी ही तकलीफें महसूस हो रही हैं. मैं इस बात से दुखी हूं कि मेरा आर्थिक नुकसान हुआ, स्वास्थ्य का नुकसान हुआ. मेरी छुट्टियां बरबाद हुईं. पर मुङो उस कुत्ते की एक बार भी चिंता नहीं हुई कि उसका क्या हुआ? क्या वाकई उसका भी पैर टूट गया होगा? कहीं उसकी जान पर तो नहीं बन आयी? उसकी देख-रेख कौन कर रहा होगा? वह कहां होगा, कैसे होगा? अब मुङो अपना दर्द कुछ कमतर लगने लगा. मैं सोच में पड़ गया. मुङो आत्मग्लानि महसूस होने लगी, पर मेरे सामने मुश्किल यह थी कि मैं खुद ही चल नहीं पा रहा था ऐसे में उस कुत्ते की शिनाख्त करना या उसके बारे में ठीक-ठीक पता लगा पाना मुश्किल था. बाद में मैंने खुद को दृढ़ करते हुए यह निश्चय किया कि मैं उस अज्ञात कुत्ते की सलामती के लिए प्रार्थना करूंगा. अफसोस तो मुङो भी है कि एक निदरेष कुत्ता मेरी गाड़ी के नीचे आ गया. मैं तो दोहरा गुनहगार हूं क्योंकि गाड़ी भी मेरी थी और ड्राइव भी मैं ही कर रहा था. इस पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए एक डर फिर भी मुङो परेशान कर रहा है कि कहीं फिर कोई मुझसे यह न पूछ ले कि ‘उस कुत्ते का क्या हुआ?’

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

आप से भी खूबसूरत ‘आप’ के अंदाज हैं

‘दिल्ली दूर है’ वाली कहावत झूठी साबित हो चुकी है. आम आदमी ने यह साबित कर दिखाया है कि उसे सिर्फ राजनीति का छिद्रान्वेषण करना ही नहीं, बल्कि लाइलाज हो चुके मर्ज का इलाज करना भी आता है. हालिया संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) को नयी दिल्ली में भले ही सिर्फ 28 सीटें ही मिल पायीं, पर उसने 15 वर्षो से सत्तासीन कांग्रेस को खदेड़ दिया. इस चक्कर में भाजपा कहीं की नहीं रह गयी. सबसे अधिक 32 सीटें हासिल करके भी भाजपा की स्थिति ‘सब धन 22 पसेरी’ वाली है. लेकिन यहां हम बात करेंगे ‘आप’ की. जी हां, आम आदमी पार्टी की. तमाम कयासों के बाद भी कांग्रेस और भाजपा ‘आप’ को वोटकटवा समझते रहे और जब रिजल्ट आया तो गच्चा खा गये. चुनाव परिणाम आने से पूर्व तक अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘को जीभर गरियानेवाली कांग्रेस अब उससे बिना शर्त समर्थन लेने की चिरौरी कर रही है. जाहिर सी बात है उसे दिल्ली के पब्लिक की चिंता नहीं बल्कि अपना हित दिख रहा है. कांग्रेस आप की सरकार बनवा कर दिल्ली के लोगों की सिम्पैथी हासिल करना चाहती है. साथ ही आप के प्रकोप से बचने का रास्ता भी ढूंढ रही है. पर केजरीवाल कांग्रेस की यह होशियारी खूब समझते हैं. वह सतर्क हैं. इधर कई टीवी चैनलों पर दिखाये जा रहे सरकार बनाने के फामरूले की तर्ज पर किरन बेदी ने भी अपनी मुफ्त सलाह हवा में उछाल दिया ‘भाजपा और आप मिल कर सरकार बनायें.’ पर इस फ्री सलाह को भी न तो भाजपा ने तवज्जो दी और न ही आप ने. इधर आयुर्वेद की महंगी दवाएं बेचने और मोटी फी लेकर योग सलाह देने वाले बाबा रामदेव ने भी केजरीवाल को एक मशविरा फ्री में दे दिया ‘जब कांग्रेस समर्थन दे रही है तो केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए आगे आना चाहिए.’ इस सब चीजों को नजरअंदाज कर आप के लोग जंतर-मंतर पर जीत का जश्न मनाने में लगे रहे. दरअसल, राजनीति के आंगन में उतरने के बाद इसकी ‘टेढ़ी चाल’ और ‘ननु नच’ के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी आप वालों को भी हो गयी है. वे जानते हैं कि दूसरे के कंधे पर रखकर  बंदूक चलाने वालों की यहां कोई कमी नहीं है. सच तो यह है कि कई राजनीतिक धुरंधरों को ‘दृष्टि दोष’ है, पर अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी अपने दूरदृष्टि का इस्तेमाल कर रही है. दिल्ली में जीत से दोगुने हुए जज्बे के साथ आप ने लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है. उन्हें पता है दिल्ली में दोबारा चुनाव ही अब एकमात्र विकल्प है. झाड़ू आप का राष्ट्रीय चुनाव चिन्ह बन गया है. अब आपका मिशन है ‘कश्मीर से कन्याकुमारी.’ सचमूच सफाई तो जरूरी है.  इन दिनों कुछ गीत खासे लोकप्रिय हो रहे हैं- आप यहां आये किसलिए.., आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं.. आप भी इसका आनंद लीजिए.

शनिवार, 23 नवंबर 2013

विचारों की कब्र पर मूर्तियों की होड़

भारत में मूर्ति-निर्माण और मूर्ति-पूजा सदियों से चली आ रही है, लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए मूर्तियों का इस्तेमाल इस वक्त जैसा हो रहा है, वैसा कभी नहीं हुआ. सरदार पटेल की राजनीतिक विरासत में सेंध लगा कर उस पर अपना हक जमाने की कोशिश के चलते नरेंद्र मोदी उनकी विशाल मूर्ति बनवा रहे हैं. तो कांग्रेस पटेल को अपनी पार्टी का नेता बता कर यह मुद्दा मोदी से छीनना चाहती है. इससे पहले भी कभी शिवाजी की बड़ी सी प्रतिमा लगा कर उनकी वीरता को सीमित अर्थो में बांधने की राजनीति की गयी, तो कभी बाबा भीमराव आंबेडकर को संविधान-निर्माता की जगह एक वर्ग का हितैषी बता कर प्रस्तुत किया गया. गांधीजी की मूर्तियां तो देश के कोने-कोने में हैं. चश्मे और लाठी के साथ उनकी मूर्तियों को उतनी ही आसानी से खड़ा कर दिया गया है, जितनी आसानी से बरगद के पेड़ के नीचे पत्थर को लाल सिंदूर लगा कर हनुमान की मूर्ति बना दी जाती है. गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी साफ-सफाई हो जाती है, अन्यथा वर्ष भर वे उपेक्षित खड़ी रहती हैं. कभी मूर्ति का चश्मा टूटता है, कभी उसके नीचे बैठ कर मदिरापान या जुए का खेल होता है. संसद भवन में गांधीजी की जो मूर्ति लगी है, उसके सामने खड़े होकर सांसद अपना विरोध, प्रदर्शन आदि करते हैं. इस सब में गांधीजी की विचारधारा कहां दबा दी जाती है, उसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं. किसी भी महान व्यक्ति की मूर्ति लगा कर उसके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करना भावनात्मक अभिव्यक्ति का एक तरीका है,किंतु जब इसमें स्वार्थ जुड़ जाता है, तो यह तय है कि जिन विचारों और कर्मो से वह व्यक्ति महान कहलाया, उससे जनता को दूर करने की कोशिश हो रही है. भारत में मूर्तियों का इतिहास बहुत पुराना है. सिंधु घाटी सभ्यता के काल से मूतियों का वर्णन मिलता है. इनसान जिज्ञासाओं का जवाब ढूंढ़ता रहता है, और जहां वह अनुत्तरित हो जाता है, या यह महसूस करता है कि मुझसे ज्यादा कोई शक्तिशाली, श्रेष्ठ शक्ति इस ब्रrांड में विद्यमान है, तो उसे पूजना शुरू कर देता है. मूर्तियों का राजनैतिक प्रयोजन भारत में तब प्रारंभ हुआ, जब यूरोप में पुनर्जागरण हुआ. पर दुख की बात तो यह है कि निराकार को साकार करने की जगह अब साकार को ‘पाषाणकार’ किया जाने लगा है. कई मूर्तियां तो महज राजनैतिक स्वार्थो के चलते बनायी जा रही हैं. किसके नेता की ज्यादा बड़ी मूर्ति बनती है, ऐसी अविचारित होड़ देश में चल रही है. भारत में गांधी, नेहरू, भगत सिंह, शास्त्री, पटेल, आंबेडकर आदि महापुरुषों की जितनी मूर्तियां लगी हैं, अगर सचमुच उनका कोई असर होता, तो आज देश में जो वैचारिक शून्यता की स्थिति बनी है, वह कभी नहीं होती. हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने मूर्तियों को खड़ा कर उनके नीचे विचारों को दफन कर दिया है?

शनिवार, 9 नवंबर 2013

तुम्हारा दाग मेरे दाग से बड़ा कैसे?

अभी चुनावी मौसम है. जिसे देखो वह राजनीति की बातें कर रहा है. गांव हो या शहर, घर हो या बाहर, स्कूल हो कॉलेज, मंदिर हो या मसजिद सब जगह बस राजनीति की ही बातें हो रही है. वैसे तो लोकसभा चुनाव में अभी कुछ महीने वक्त है, पर इन दिनों पांच राज्यों में विधानसभा की चुनावी सरगरमी है. वो कहावत है न.. बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. वही हाल हमलोगों का भी है. चुनाव है छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में, और बावले हुए जा रहे हैं हम. रोज नये-नये सर्वे की लत लग गयी है. आज का नया सर्वे क्या है? किस पार्टी को ज्यादा सीटें मिल रही हैं, किसको कम? यह जानने की उत्कंठा में टीवी का रिमोट घिसे जा रहे हैं या अखबारों के पन्ने चाट रहे हैं. हालत यह है कि जब पटना में सीरियल बम ब्लास्ट हुए, कई लोग मरे, कई घायल हुए. तब भी हमारे अंदर की संवेदना घास चरने गयी थी. हम इस बात में उलङो रहे कि कौन सांप्रदायिक है और कौन नहीं. हम यह भूल गये कि ब्लास्ट में जो मरे वह इंसान भी थे. पता नहीं हम किस राजनीति की बातें करते हैं, कैसे करते हैं? एक तरफ तो हमारे नेता ऐसे हैं जिनको जनता के बजाय अपनी जान की फिक्र ज्यादा है. विस्फोट होता है कई निदरेषों की जान चली जाती है, कई बेगुनाह जख्मी होकर वहीं पड़े तड़पते रहते हैं, पर इन नेताओं को तो फिक्र है अपनी. खुद की सुरक्षा के लिए बड़े लाव-लश्कर, एसपीजी सुरक्षा, ब्लैक कमांडो, कई-कई राज्यों की पुलिस..और न जाने क्या-क्या?
वैसे, राजनीति है बड़ी अजीब. यहां वैसे तो कोई दूध का धुला है नहीं, पर सब एक-दूसरे को दागदार बताने में मशगूल हैं. हाल यह हो गया है कि बस सब एक-दूसरे के दाग ढूंढ़ते फिर रहे हैं. दागी सभी हैं, पर अब लड़ाई इस बात की है कि कोई कम दागी है तो कोई अधिक दागी है. जो खुद को कम दागी समझता है, वह दूसरे को अधिक दागी बता कर ही ईमान की लड़ाई जीतना चाहता है. जो कम दागी है, वह अधिक दाग वाले प्रभावशाली व्यक्तित्व से जलन करता है. इतने बड़े-बड़े घोटाले के दाग देख कर वह अपने छोटे घोटालों वाले दागों पर शर्मिदा हो रहा है. कुछ लोग हैं जो दागी तो हैं, पर खूबसूरती से उसे कमीज के नीचे छिपाए हुए हैं. लोग देखते हैं तो बस सफेद ही सफेद ही नजर आता है. इस सफेदी के पीछे छिपा वह स्याह चेहरा लोग देख ही नहीं पाते, जो उसका असली चेहरा है. वोट मांगने के लिए यह एक कारगर हथियार है. वैसे वोट मांगने के और भी कई तरीके हैं. इस सीजन में कई बड़े नेता अपनी दादी, पिताजी, मां, चाचा, भाई-भाभी, बेटा-बेटी आदि के नाम पर भी वोट मांगते देखे जा रहे हैं. आखिरकार, यह लोकतंत्र है, वोट मांगना उनका अधिकार है और देना आपका. आप राजनीति या नेताओं को पसंद करें या न करें, नजरअंदाज नहीं कर सकते.

शनिवार, 2 नवंबर 2013

रिश्तों की मिठास : कुछ खास है, कुछ बात है

वर्षो बीत गये दीपावली और छठ में घर गये. जब भी यह अवसर आता है, घर की बहुत याद आती है. याद आती है इस त्योहार के उत्साह की, उमंग की, सामूहिकता की और बचपन की भी. जीवन की आपाधापी में आप चाहे जितना भी आगे चले जायें, मन में एक कोना ऐसा अवश्य होता है जहां जिंदगी के कुछ खुशनुमा पलों की यादें रची-बसी होती हैं.  ये यादें ऐसी धरोहर होती हैं, जो आपके जमीर को मरने नहीं देतीं. ये यादें ही जमीर को जिंदा रखती हैं और आपको ऊर्जावान व संजीदा बनाये रखती हैं. अभी शहर से लेकर गांव तक दीपावली-धनतेरस को लेकर बाजार गरम है. कोई साजो-सामान खरीद रहा तो कोई गिफ्ट,  कोई पूजा-पाठ की तैयारियों में मग्न है तो कोई व्यापार में तल्लीन. प्रशासन चाहे कितना भी आगाह कर ले, लाखों-करोड़ों रुपये के पटाखे हवा में उड़ाये जाएंगे. यह जानते हुए भी कि यह न सिर्फ पैसे की बरबादी है बल्कि प्रदूषण की वजह भी. कोई मानता नहीं है. मेरी बेटी तेज आवाज वाले पटाखों से तो डरती है पर फुलझड़ी और रंग-बिरंगी रोशनी वाले आइटम उसे बेहद पसंद हैं. मुङो याद है, मैंने भी बचपन में खूब पटाखे चलाये हैं. छोटे चाचाजी (काका) कोलकाता से मेरे लिए ‘स्पेशल’ पटाखे लाते थे. साथ में ढेरों टॉफियां भी, जिन्हें मैं मित्रों को भी खिलाता था. हम सफल होने की जल्दबाजी में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज खो रहे हैं वह है रिश्ते-नाते. आप सफलता की चाहे जितनी सीढ़ियां चढ़ लें, कुछ रिश्ते आपको सदा ही लुभाते हैं. मेरे बचपन की स्मृतियों में भी कुछ ऐसे ही रिश्ते बसे हैं. मैं अपने पिताजी के बजाय चाचा लोगों के बहुत करीब रहा. पेशे से शिक्षक रहे बड़े चाचाजी से मिला अपार स्नेह आज भी मेरी जिंदगी की धरोहर है. मैं सोचता हूं क्या हम अपने बच्चों को संयुक्त परिवार के स्नेह की वह खुशबू दे पा रहे हैं! एकल परिवार की व्यवस्था में यह सब शायद एक सपने की तरह है. भाई और बहनों से भरा-पूरा परिवार, दादी का लाड़-प्यार सब कुछ आज एक सपना ही तो है. छठ के अवसर पर मां के हाथ का बना ठेकुआ का स्वाद आज के किसी भी महंगी मिठाई में मिलना नामुमकिन है. मां के साथ शाम और सुबह के अघ्र्य के वक्त छठ घाट जाने में जो खुशी मिलती थी वह किसी पर्यटन स्थल पर जाकर हासिल नहीं हो सकती. रिश्तों के स्मरण की बात चल रही है तो एक हालिया घटना का जिक्र छेड़ना जरूरी हो जाता है. चार दिन पहले की बात है, रायपुर में रह रहे मेरे बचपन के एक मित्र सुबोध (राणा) ने फोन किया. बोला पहचान रहे हो या नहीं? मैं थोड़ी देर के लिए हतप्रभ रह गया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या प्रतिक्रिया दूं. अचानक से ढेर सारी स्मृतियां उमड़ने-घुमड़ने लगी. लंबी बातचीत के बाद मैंने उसे फोन करने के लिए धन्यवाद दिया. वाकई, रिश्तों का रिनुअल करना कितना अच्छा है, जरूरी है! आइये, इस दीपावली एक खूबसूरत पहल करें.

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

ये सोना अगर मिल भी जाये तो क्या है?

दुर्गापूजा का उफान फैलिन तूफान से भी फींका नहीं पड़ा. रेनकोट पहने और छाता लगाये श्रद्धालुओं का रेला जगह-जगह मेलों में देखा जा सकता था. धर्म-अध्यात्म के जानकार बताते हैं कि ऐसे त्योहारों, आयोजनों के दौरान लोगों का उत्साह दोगुना हो जाता है. ‘कुंडलिनी’ जाग्रत हो जाती है. मैंने भी इसे ‘महसूस’ किया. महिलाओं-बच्चे, बीमार- स्वस्थ, बड़े-बूढ़े सभी उत्साह से लबरेज दिखे. यहां तक कि चोर-उचक्के भी. दुर्गापूजा के दौरान लौहनगरी में चोरी-लूट की घटनाएं भी बढ गयी थीं. किसी का पर्स चोरी, तो किसी का जेवर. किसी की स्कूटी चुरा ली, तो किसी की कार गायब कर दी.
मेला देखने के जोश में होश खो बैठी श्रीमती जी का मंगलसूत्र किसी उचक्के ने उड़ा लिया. उन्हें दुखी देख कर मैंने समझाने की कोशिश की- ‘इसमें इतना अफसोस करने की क्या बात? त्योहार का दिन है, इंज्वाय करो.’ वह बोलीं- ‘क्या खाक इंज्वाय करूं, माता के दरबार में आयी थी और ऐसा हो गया.’ मैंने कहा- ‘कोई जरूरतमंद रहा होगा, माता ने उसकी सुन ली. अब चलो, दूसरा ले लेना.’ श्रीमती जी मां चंडी की तरह मुझ पर बरस पड़ीं- ‘दूसरा कहां से ले लेंगे. इस महंगाई में दो वक्त की सब्जी तो खरीद नहीं पाते, जेवर कहां से खरीद लेंगे?’
मैंने अपना ज्ञान (या शायद अज्ञान) बघारने की कोशिश की. सोचा कि शायद इससे बात बन जाये. बोला- ‘देखो, उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में 1000 टन सोना मिलने वाला है. आज के बाजार मूल्य के मुताबिक, इस सोने की कीमत तीन लाख करोड़ रुपये होगी. हमारे रिजर्व बैंक के पास 550 टन सोने का रिजर्व है और वह इस मामले में दुनिया में 11वें नंबर पर है.  खजाने से मिलने वाले सोने को जोड़ देने पर आरबीआइ दुनिया में 8वें नंबर पर आ जायेगा. इससे हमारे रु पये की आंतरिक कीमत भी बढ़ जायेगी. कुल मिला कर कहें, तो हमारा देश अमीर हो जायेगा. सोने की कीमत घट जायेगी. इस प्रकार इसे आम आदमी भी आसानी से खरीद पायेगा.’ पर वह कहां मानने वाली थीं. बोलीं- ‘जिस देश में आालू-प्याज आम आदमी की पहुंच से दूर हो, वहां सोना किस प्रकार सहजता से उपलब्ध होगा? कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस देश में आज चिड़िया जितना भी सोना नहीं रहा.’ मैं चुप हो गया. मुङो इसी में अपनी भलाई लगी.
अब भला उन्हें कौन समझाये कि हमारा देश साधु-संतों का देश है. संत जो कह दें, वह पत्थर की लकीर होती है. आखिर शोभन सरकार ने जो सपना देखा है, वह गलत तो नहीं होगा. हम ताउम्र देखे-अनदेखे सपनों को पूरा करने के लिए ही तो भागते रहते हैं. वैसे राजनीति के जानकार यह भी कह रहे हैं कि इस सोने की खुदाई के पीछे नेताजी (मुलायम सिंह यादव) का दिमाग है. आगामी लोस चुनाव में ‘मोदी प्रकोप’ से बचने के लिए नेताजी का यह ‘खोदी दावं’ है.

बुधवार, 4 सितंबर 2013

नया जमाना, गिरने से क्या घबराना

सुबह उठते ही, चाय पीते वक्त दूध और चीनी की महंगाई याद आती है. दोपहर और रात को, भोजन करते वक्त सब्जी-आटा-चावल-दाल की महंगाई सताती है. तो क्या हुआ.. यह क्षणिक आवेग है जनाब! थोड़ा ठंड रखिए. गुस्सा पी जाइए. क्या हुआ जो टमाटर आपको लाल आंखें दिखा रहा है, प्याज का दाम सुन कर ही आंसू आ रहे हैं? वह दिन दूर नहीं जब प्याज भी सेंसेक्स और रुपये की मंडली में शामिल हो जायेगा. फिलहाल तो आप ‘भारत निर्माण’ का विज्ञापन देखिए और देश में तरक्की का चढ़ता ग्राफ महसूस कीजिए. हो सके तो उस ढाबे या होटल की तलाश कर लीजिए, जहां 12 या 5 रु पये का खाना मिल सके. वैसे परिवार को ढूंढ़ कर उसकी जीवनशैली अपनाइए जो 27 या 33 रु पये में गुजारा कर रहा है. केंद्रीय मंत्रियों और सत्तासीन पार्टी के नेताओं का यह दावा बस यूं ही नहीं है. आखिर वे जो कह रहे हैं उसका पुख्ता आधार होगा. उन पर ‘भरोसा’ कीजिए. ठीक उसी तरह जिस तरह पिछले दस साल से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री पर भरोसा कर रहे हैं. इस उम्मीद के साथ कि आज नहीं, तो कल देश की अर्थव्यवस्था जरूर ठीक हो जायेगी. पर हो इसका उल्टा रहा है. रुपया दिनोदिन रसातल में जा रहा है. दलाल पथ से लेकर राजपथ तक भयंकर गिरावट का दौर जारी है. दलाल पथ पर सेंसेक्स गिर रहा है, तो राजपथ पर नेता लोग. किसी को अपनी गिरावट पर ‘अफसोस’ नहीं है. पर इस गिरावट को आप हल्के में मत लीजिए. इसमें तमाम अंदरूनी रहस्य छिपे हैं. सेंसेक्स इसलिए गिर रहा है, ताकि निवेशकों के दिल मजबूत हों. रु पया इसलिए गिर रहा है, ताकि लोग फिजूलखर्ची कम करें और अपना माल बचा कर निर्यात किया जाये. नेता इसलिए गिर रहे हैं, ताकि राजनीति के प्रतिमान कुछ बदल सकें.  अगर आप समझ सकें तो असल बात यह है कि नेताओं के लिए देश की जनता और राजनीति दोनों ही मनोरंजन का सामान बन गयी हैं. इस मनोरंजन का लुत्फ वे अक्सर अपने बयानों में लेते रहते हैं. गरीब, गरीबी और भूख तीनों में उन्हें मनोरंजन नजर आता है. स्त्री उन्हें ‘टंच माल’ दिखायी पड़ती है. उनकी जुबान और बयान का कोई भरोसा नहीं; कब, किसे, क्या कह-बना दें. दरअसल, यह अंतर भूखे पेट होने और पेट भरे होने के बीच का है. यह भरे पेट का ‘टंचत्व’ है. अगर खुद का पेट भरा हो, तो सब तरफ सुख-शांति और अमन-चैन ही नजर आता है. अमीरी-गरीबी में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. फर्क है तो सिर्फ गिरने में. कुछ लोग ऊंचाई पर पहुंचने के लिए गिर रहे हैं, तो कुछ लोग ऊंचाई पर पहुंचने के कारण गिर रहे हैं. दरअसल, गिरना टैक्स और ब्याज से मुक्त है. पर उसका क्या जो हर गिरावट की मार खा कर बीच बाजार में खड़ा है. बाजार में खुद को औने-पौने दामों में बिकवा रहा है, ताकि किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट भर सके.

शनिवार, 10 अगस्त 2013

नवाज को एक शरीफ हिंदुस्तानी का खत

मियां नवाज शरीफ जी! आपको और आपके मुल्क पाकिस्तान की अवाम को ईद मुबारक. आज ईद के ही दिन हमारे देश की आइबी ने अलर्ट किया है कि आपके मुल्क के जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद दिल्ली के लालकिले पर फिर से हमले की योजना बना चुके हैं. वह पाकिस्तानियों को भारत के खिलाफ उकसा रहे हैं. उन्होंने ट्विटर पर ईद की शुभकामना देते हुए भारत के खिलाफ सख्त संदेश जारी किया है.  अब क्या बतायें कि यह संदेश पाकर हमारे देश में ईद कैसे मन रही है. ईद के उसी चांद को हिंदुस्तान ने भी देखा, जिसे पाकिस्तानियों ने देखा. पर इस बार हमारी ईद जरा फीकी है. हमारा मुल्क अभी गम और गुस्से के दौर से गुजर रहा है. सरहद की निगहबानी करने के दौरान अपने पांच जवानों को खो देने के गम में हम अभी डूबे हैं. उन जवानों के घर-गांव में पिछले चार दिनों से चूल्हा नहीं जला. अन्न का एक निवाला तक बच्चों ने नहीं खाया.
आप तो ‘शरीफ’ हैं, यह तो पता ही होगा कि हिंदुस्तान के कई परिवारों की मौसी, बुआ, बहनें और भाई पाकिस्तान में रहते आ रहे हैं. सोचिए, उनकी ईद कैसी गुजरी होगी. अरे हां! आपको शुक्रिया कि आप हमारे इस गम में शरीक हुए और अफसोस जताते हुए ‘रिश्ते को मजबूत और भरोसेमंद बनाने की पहल’ करने पर जोर दिया. पर रिश्ते की कीमत भला तुम क्या जानो शरीफ बाबू! तुम्हारा मुल्क तो सिर्फ धोखेबाजी और फरेब की राजनीति करता है. दरअसल, पाकिस्तान की सियासी आबोहवा ही कुछ ऐसी है जहां अमन को लेकर ईमानदार लोगों के लिए गुंजाइश जरा कम है. पर हमारा गम जरा जुदा है. हम पाकिस्तान से बार-बार छले गये एक ऐसे मुल्क के वाशिंदे हैं, जहां के हुक्मरान गंदी और स्वार्थ की राजनीति में मशगूल हैं. उन्हें यह तक पता नहीं कि एलओसी पर हमला आतंकियों ने किया या पड़ोसी मुल्क के सैनिकों ने. हमारे सांसदों, विधायकों, मंत्रियों को बोलने तक नहीं आता. जिनकी मानसिकता यह है कि ‘सैनिक तो होते ही हैं शहीद होने के लिए’, उनसे भला किस प्रकार की उम्मीद की जा सकती है.
खैर, यह तो हमारा ऐसा दर्द है जिसे सुन कर आप हमारी हंसी ही उड़ायेंगे. हमारे यहां बच्चों को शुरुआती कक्षा में ही एक कविता पढायी जाती है- ‘मां मुझको बंदूक दिला दो मैं भी लड़ने जाऊंगा.’ यहां लड़ने से अभिप्राय देश की रक्षा करने से है. कुछ ऐसी ही पंक्तियां आपके भी मुल्क में भी बच्चों को सिखायी जाती हैं, पर उसका अभिप्राय शायद कुछ और होता होगा. चलते-चलते एक चर्चित शेर अर्ज करना चाहूंगा, पर जरा बदले अंदाज में -
न दिल्ली में याद रखना, न लाहौर में याद रखना/ हो सके तो हमें बस दुआओं में याद रखना.
        आपका, एक शरीफ हिंदुस्तानी

बुधवार, 10 जुलाई 2013

कर न सके हम सौदा पनीर का

कर न सके हम प्याज का सौदा, कीमत ही कुछ ऐसी थी/ लाल टमाटर छोड़ आये हम, किस्मत ही कुछ ऐसी थी.. आजकल हर ‘मैंगो मैन’ (आम आदमी) की व्यथा कुछ ऐसी ही है. कुछ दिन पहले तक दाल-चावल की महंगाई का रोना रोनेवाले लोग सब्जियों की कीमतों में भारी इजाफे के बाद अब उसी दाल की दुहाई दे रहे हैं, ‘‘शुक्र है कि दाल है, वरना शनिवार से गुरुवार तक उपवास ही करना पड़ता.’’
आज हर कोई भले ही महंगाई से परेशान हो, पर एक शख्स ऐसा है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा. आप जानना चाहेंगे उसके बारे में? वह है ‘ईमानदार आदमी.’ उसे कल भी वस्तुएं महंगी लगती थीं, आज भी लगती हैं. वह कहता है, ‘‘जमीर बेच कर पनीर नहीं खरीद सकता. भले ही भूखा रहना पड़े. जब जमीर ही मर जायेगा तो शरीर जिंदा रह कर क्या करेगा? आखिर बापू का प्रिय भजन वैष्णवजन तो तेणो कहिए जो पीर परायी जाणो रे.. कब काम आयेगा.’’ बापू तो रहे नहीं, लाचारी में अन्ना हजारे को अपना आदर्श माननेवाला यह ईमानदार आदमी कभी अनशन, तो कभी उपवास, तो कभी धरना-प्रदर्शन के बहाने भोजन से मुक्ति पाने का बहाना ढूंढ़ता है. कल की ही बात है, एक टीवी चैनलवाले ने उसके मुंह में माइक ठूंसते हुए पूछा, ‘‘आपको भूख हड़ताल से इतना लगाव क्यूं है भला?’’ बोला, ‘‘आज भी जिस देश की एक चौथाई आबादी को भूखे पेट सोना पड़ता हो, उस देश में भूख हड़ताल से बेहतर विरोध का कोई साधन नहीं हो सकता. इस देश की सरकार सो रही है. हमारे ही वोटों से जीत कर ‘जन प्रतिनिधि’ का तमगा पहने ज्यादातर सांसद और विधायक संसद और विधानसभा की कैंटीनों में भयंकर सब्सिडीवाला खाना खाते हैं. इसलिए उन्हें लगता है कि जब इतना सस्ता खाना मिल रहा है, तो भला आम जनता महंगाई का हल्ला क्यों मचा रही है?’’
भले ही प्राकृतिक विपदा से तबाह उत्तराखंड को सरकार राहत न दिला सकी हो, पर बढती महंगाई और सब्जियों और दूध के दाम में हो रही बेतहाशा वृद्धि के मद्देनजर ‘कैलेंडर और पोस्टर योजना’ शुरू करने की योजना बना रही है. लोग सब्जियों की शक्ल न भूल जायें इसलिए इनके पोस्टर छपवा कर घर-घर पहुंचाये जायेंगे. दूध भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है. बड़ों के लिए तो नहीं, पर बच्चों को इसकी खास जरूरत होती है. ऐसे में सरकार पोलियो ड्राप्स की तरह ‘दूध ड्राप्स’ पिलाने के लिए ‘मिशन दूध’ शुरू करने की तैयारी में है. महीने में एक दिन तय किया जायेगा, जब लोग अपने बच्चों को नजदीकी केंद्रों पर ले जा कर दूध ड्राप्स पिलवायेंगे. इसका स्लोगन भी ‘दो बूंद जिंदगी की’ रखा जायेगा. ये बात अलग है कि इससे बच्चों को जिंदगी मिले न मिले, सरकार को जरूर मिलेगी.

सोमवार, 24 जून 2013

कोई बिकने में मशगूल है, तो कोई बेचने में

अलस्सुबह कल्लू चायवाले की दुकान पर जुम्मन मियां गला फाड़-फाड़ के चिल्ला रहे हैं, ‘‘जैसे मजबूर किसान की जमीन बिकती है, जैसे मजबूर औरत की अस्मत बिकती है, जैसे आजकल बच्चे बिकते हैं, जैसे कोयला और लौह अयस्क जैसी देश की दौलत बिकती है, जैसे किसी का जमीर बिकता है, जैसे कोई नेता बिकता है या फिर नेताओं का समर्थन बिकता है, जैसे हाकिम बिकते हैं, उनकी कलम बिकती है, जैसे नौकरियां बिकती हैं, जैसे सरकारी कंपनियां बिकती हैं, वैसे ही अगर खिलाड़ी भी बिक गये तो ताज्जुब कैसा? अगर बाकी सबकुछ बिकना जायज है, तो खिलाड़ियों का बिकना गलत कैसे हुआ?’’
दुकान पर बैठे अन्य ग्राहक चुपचाप चाय सुड़क रहे हैं. जुम्मन मियां की बात का जवाब देने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही. मैं समझ गया कि आज फिर सुबह-सुबह ये जनाब अखबार पढ़ कर ‘चाजर्’ हो गये हैं. यह यहां का आम दृश्य है. कलक्ट्रेट ऑफिस में बड़ा बाबू पद से सेवानिवृत्त होने के दस साल बाद भी जुम्मन मियां बेबाकी और जिंदादिली के मामले में सबसे अलग हैं. कुछ लोग उन्हें ‘मुंहफट’ की संज्ञा भी दे देते हैं. मुङो देखा तो फिर शुरू हो गये. अखबार लहरा कर बोले, ‘‘हल्ला मचा है कि देखो खिलाड़ी बिक गये! पर खिलाड़ियों को तो बिकना ही था. पहले अर्थव्यवस्था देश की होती थी, अब बाजार की होती है. पहले सब कुछ सरकार तय करती थी, अब बाजार तय कर रहा है. खुद सरकार ने बाजार को इतना सम्मान दे दिया है, ऐसी खुली छूट दे दी है कि बाजार उद्दंड हो गया है. वह छुट्टा सांड़ की तरह घूम रहा है. फिर खिलाड़ी ही बेचारे उससे कब तक बचते? उनका बिकना तो उसी दिन तय हो गया जिस दिन आइपीएल की योजना बनी थी. हालांकि जब वे विज्ञापनों में कोल्ड ड्रिंक बेच रहे थे, तेल-साबुन बेच रहे थे या चड्ढी-बनियान बेच रहे थे, असल में तो वे तब भी बिक ही रहे थे. हमें लगता था कि वे ये चीजें बेच रहे हैं. पर वास्तव में वे अपने को ही बेच रहे थे, अपने हुनर से हासिल सम्मान बेच रहे थे, दर्शकों और खेल प्रेमियों से मिला प्यार बेच रहे थे, खेल से प्राप्त अपना ऊंचा स्थान बेच रहे थे. अर्थात वे खुद ही बिक रहे थे.  अरे, इस देश में क्या-क्या नहीं बिक रहा. कोई ‘विश्वास’ बेच रहा है तो कोई ‘विश्वासमत’ बेच रहा है. कोई ‘समर्थन’ बेच रहा तो कोई वोट बेच रहा. कहीं कुरसी बिक रही, तो कहीं पद बिक रहा. कोई बेचने में मशगूल है तो कोई खरीदने में मग्न..’’
मैंने उन्हें बीच में टोका, ‘‘काका चाय खत्म हो गयी हो तो चलो पान खिलाता हूं.’’ बोले, ‘‘हां, चलिये जनाब! यहां सब फटीचर हैं. पर चूना जरा कम लगवाइयेगा. मुंह में छाले हो गये हैं. परसों एक सज्जन ने कारबाइड से पका आम खिला दिया था.’’

रविवार, 2 जून 2013

सुनो ससुर जी अब जिद छोड़ो

बीसीसीआइ अध्यक्ष श्रीनिवासन पर इस्तीफा देने का चौतरफा दबाव इन दिनों इस कदर है मानो मानसून का पश्चिमी विक्षोभ बंगाल की खाड़ी पर दबाव बना रहा हो. श्रीनिवासन को सोते-जागते, खाते-पीते बस इस्तीफे का भूत ही सता रहा है. जानकारों का मानना है कि वे अवश्य ही उस मुहूर्त को कोस रहे होंगे, जब उन्होंने ‘सुयोग्य’ मयप्पन को अपना दामाद बनाया. कुछ ऐसी ही सोच मयप्पन की भी है. मयप्पन आज जिस हालात (जेल) में हैं, उसमें वे अपने ससुर श्रीनिवासन के बारे में भला अच्छा कैसे सोच सकते हैं. सूत्र बताते हैं कि ‘सुयोग्य’ दामाद ने अपने ससुर की ‘काबिलीयत’ पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि होशियारी आती नहीं तो किया क्यों? और पकड़े ही गये तो अब जिद कैसी, इस्तीफा क्यों नहीं देते?
मयप्पन का यह भी मानना है कि उन पर इतना शिकंजा इसीलिए कसा, क्योंकि वे श्रीनिवासन के दामाद हैं. अगर वे ‘आम आदमी’ होते तो बड़े ही आराम से सारा माल हजम कर जाते और डकार भी नहीं लेते. मयप्पन का दावा सुन कर आपको उनके हाजमे का अंदाजा तो लग ही गया होगा. पर इस प्रकरण को लेकर उल्टी-दस्त करने वाले भी बहुतेरे हैं. कोई क्रिकेट को कोस रहा है तो कोई सट्टेबाजों को, कोई बीसीसीआइ को कोस रहा है तो कोई क्रिकेटरों को. ये सब लोग वही हैं जिन्हें कुछ भी हजम नहीं होता. बात चाहे इनके प्रिय टीम के हारने की हो या इनके पसंदीदा क्रिकेटर के बिना रन बनाये आउट हो जाने की. इनके लिए किसी भी परिस्थिति को हजम करना मुश्किल होता है. आज क्रिकेट के फैन भले ही दुखी हों और ससुर दामाद भले ही एक-दूसरे को कोस रहे हों, पर मीडिया को आजकल खूब मसाला मिल रहा है. कुछ दिनों पूर्व ही एक बड़े पत्रकार ने अपने लेख में इस प्रकरण पर अपनी टिप्पणी कुछ यूं दी -
‘‘टी-20 में भागीदार सभी को मालूम था कि इसके जन्म के समय से ही इससे दरुगध आ रही है. कुछ सट्टेबाज शायद इसी बदबू के कारण इसकी ओर आकर्षित हुए. एक शीर्ष अधिकारी जो अब इस लीग से बाहर है, अपने लोगों के सामने कहता था कि जब भी उसकी पसंदीदा टीम हारती है, वह सट्टेबाजों के जरिये जीत जाता है. पार्टी में होनेवाली ऐसी बातें दौलत के पुजारियों की ओह-आह से बाहर निकलीं. आइपीएल में सभी भ्रष्ट नहीं हैं. अधिकतर मालिक और मैनेजर मजे और मनोरंजन के नये तरीके के जरिये कानूनी तरीके से पैसा कमाने की चाह में इससे जुड़े. अधिकतर क्रि केटरों को अपना बैंक बैंलेंस देखने पर अपने भाग्य पर यकीन नहीं होता होगा. उन्होंने कभी सपने में भी ‘लॉटरी’ से मिलनेवाली ऐसी अमीरी के बारे में नहीं सोचा होगा. लेकिन इसकी कीमत थी चुप्पी. लेकिन क्या किया जाये, कुछ लोग बात न पचा पाने के लिए अभिशप्त होते हैं.’’

गुरुवार, 23 मई 2013

वो कत्ल करे हैं या करामात करे है...


अपने गांव गया था. एक बस यात्रा में बड़ा ही रोचक अनुभव हुआ. अगर आप गौर करें तो बस यात्रियों की आपस में बातचीत, खलासी-ड्राईवर के संवाद और यात्रा के दौरान तरह-तरह की आवाज से एक खास तरह का कोलाज बन उठता है. महसूस कीजिये..
  एक सवारी-एक सवारी, रोक के..रोक के. चल.. ए.. भाई, ए साइकिल.. उपर..अरे तनिक बैगवा उहां रखिये..हां अरे बच्चा है तो उसे गोद में लेकर बैठिए. टिकस लिया है तो बच्चे का लिया है पूरे का नहीं. सीट पर आप बैठ जाईये. मां जी..हां.कहां जाना है. ऐ रिक्शा.. अरे तोहरी हरामी के आंख.. चांपे चले आवत हउव..
  न दामन पे कोई छींटा/ न खंजर पे कोई दाग/ वो कत्ल करे हैं..या करामात करे हैं..बड़ा शायरी मारत बाड़..कॉलेजवा में इहे पढाई होता है का.. रउरा ना बुझाई ए बाबा..
    ललुवा के रैली फेल हो गइल..ए भाई तनिक गाड़ी साइड होखे द तब थूकिह. हवा इधरे का है. ऐ बाबा तनी होने खसकिये. ए साल सरजू बावन बोना है, सोनालिका भी ठीक है.उपज ठीके है. एक निबंध.. विज्ञान ने हमारे जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किया है..अब बताओ..आमूल तो आमूल ये चूल क्या है. रोक के..रोक के..उतरना है. ए भाई सामान आगे करो.. आप वहां बईठिये.. अरे तो आधे पर ही बईठो भाई जल्दीऐ पहुंच जाओगे. काहे जल्दीयाये हो. सामान पर जोर मत डालिए..फूटेगा नहीं.. अरे चिंता मत करो..
  पप्पू यादव बाइज्जत बरी..अपने देश में कानून सबके लिए अलग-अलग है.. अरे कानून के किताब में करिया-करिया शब्द का भारी-भारी अर्थ समझना सबके वश में नहीं नू है भाई..सही कह रहे हैं, इ काम खाली वकीले लोग कर सकता है..वह भी पईसा लेकर.. बीड़ी छूआ जाएगा. हाथ उधरे रखिये. कुरता बड़ा कटाह पहिनले बाड़ ससुरारी जात हऊव का..अरे तोहरी बहिन के. इहां काहे भीड़ है भाई..बारात निकलल है का. सीवान के बाबू बजरंगी के यहां परसो बड़ा स्वागत सत्कार हुआ. फायरिंग से पूरा सामियाना फाड़ दिया सब.. साइड होखिये.. बैल हइस का रे..मारेब कि मरिये जइब.
 कमरिया करे लपालप..लॉलीपप लागेलू.. अरे तनी गनवा धीरे बजाइये.. महाराजगंज के उपचुनाव में के जीतेगा एह बार.. जीते केहू लेकिन नीतीश आउर लालू के प्रतिष्ठा दांव पर लागल बा..
  हां भाई. आइये..उतरिए जल्दी..उतर रहे हैं नू. लग रहा है कि हवाई जहाज चला रहे हैं.. ढेर कानून मत बतिआइये..जाइये घरे.. ऐ लल्लन भईया आपका मोबाइल गिर गया..रिक्शा पकड़ के स्टेशन काहे नहीं चले जाते हैं, पैदल त लू मार देगा.. ट्रेनवा में अभी लेट है का..

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

मुंह में गांधी और बगल में गोडसे!


मैडम जी, जय हिंद! आज देश का माहौल क्या हो गया है. अपने को पार्टी का आदमी कहने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है. पहले तो पाटी मेंबर जानते ही लोग प्यार करते थे, महात्मा-सी जयजयकार करते थे. आज मालूम पड़ते ही अपराधी जैसा  व्यवहार होता है, जूतों से, गालियों से सत्कार होता है. ये कैसे हुआ कि लोकतंत्र में ‘बाबा’ और ‘अन्ना’ लोग देशहित के लिए आगे आ रहे हैं, लेकिन आपके मुंशी-मैनेजर कहते हैं कि बाबा फ्र ॉड है, अन्ना बेईमान है. पर मैडम जी अगर ये लोग ऐसे हैं, और आपके ‘मौनमोहन’ संत हैं, महात्मा हैं, तो देश में इतना भ्रष्टाचार कैसे हो गया? यह तो वही बात हुई कि ‘मुंह में गांधी और बगल में गोडसे!’
ये जो आपके ‘मौनमोहन’ हैं न, उनको कॉलेज में किसी ने पढ़ा दिया कि मंदी उर्फ रिसेशन बुरी चीज है इसलिए इसे आने देना ही नहीं चाहिए. यह बात गांठ बांध कर ‘मौनमोहन’ ने रख ली है और यही मुसीबत की जड़ है. मुख्य बात यह कि पिछली बार जब मंदी आयी तो आपके ‘मौनमोहन’ ने उससे बचने के लिये नोट छाप कर बाजार मे ढकेल दिये. उससे महंगाई बढ़ गयी. और इस बार ‘मौनमोहन’ बैंक की ब्याज दरों के साथ-साथ पेट्रोल और अन्य चीजों के भाव भी बढ़ा रहे हैं, ताकि अतिरिक्त पैसा मार्केट से बाहर हो जाये. पर इससे फायदा हो नहीं
रहा. उल्टे आम आदमी का तेल निकल जा रहा है.
अगला लोकसभा चुनाव सिर पर है. यह साल भी बीतते देर न लगेगी. पिछली बार तो अपने राजकुंवर कुछ कर नहीं पाये. यूपी चुनाव में भी उनका हश्र आप देख ही चुकी हैं. अगला चुनाव किसके भरोसे है, यह अभी तक आम कार्यकर्ता जान नहीं पाया है. आपने पार्टी में दो प्रकार के लोगों को प्रमुखता दे रखी है, कमाने के लिए अर्थशास्त्री और बचाने के लिए वकील. अब हम भला आपको क्या सलाह दें? वैसे अपने ‘मौनमोहन जी’ को कहिये कि पेट्रोल- डीजल का भाव कम करवा दें, तो कुछ तो राहत मिलेगी. आशा है, आपका स्वास्थ अच्छा होगा और आप कुशल से होंगी. कोई गलती हो गयी हो, तो माफ करें और लौटती डाक से अपनी चरणधूलि भेजने की कृपा करें.
आपका अपना
      आपकी ही पार्टी का एक अनाम सेवक
 (यह गुमनाम पत्र अभी दो दिन पहले ही मुङो प्राप्त हुआ है. मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही कि आखिर यह पत्र मेरे पते पर क्यों आया? यह ऐसा अजीबोगरीब पत्र है, जिस पर न तो पानेवाले का पता दर्ज है और न ही भेजनेवाले का. फिर भी डाकिया न जाने यह पत्र मेरे घर क्यों डाल गया? खैर मैं कब तक इस उधेड़बुन में रहूं. अंतत: मेरे एक मित्र ने यह सुझाव दिया कि क्यों न इस पत्र को सार्वजनिक किया जाये. समझनेवाले समझ जायेंगे, जो न समङों वो अनाड़ी हैं!)

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

यह गिरने-गिराने का दौर है, जरा बच के!


जो जितनी तेजी से उठता है, वो एक दिन उतनी ही तेजी से धड़ाम भी होता है. यह नियम है. फिर प्यारे क्यों दुखी हो सोने-चांदी की इस गिरावट पर? अब तलक सोने-चांदी की छलांग के मजे लिए, अब थोड़े दिन उसकी गिरावट का दर्द भी ङोलो. ताकि पता तो चल सके गिरने का दर्द कैसा होता है. सोने-चांदी के मूल्य में गिरावट से लोग इतने दुखी हैं, पर समाज की नैतिकता में जाने कब से कितनी गिरावट आ चुकी है, वह किसी को नहीं दिखती. जहां देखो वहीं, कहीं किरानी तो कहीं फूड इंस्पेक्टर तो कहीं किसी बाबू के घर से लगातार चल-अचल संपत्ति बरामद हो रही है. नोट गिनने की मशीन न हो तो छापे मारनेवाली टीम का जाने क्या हाल होगा? मैं सच बताऊं तो बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुङो पहले कभी नजर नहीं आए थे. आज मुङो अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो रहा है, वो पीड़ा कालीदास की शकुंतला की पीड़ा से भी बड़ी है. अपने अल्प अनुभव और सीमित ज्ञान से मैं बाबुओं के विषय में जितना जानता था, वो तमाम भ्रांतियों की दीवारें ताश के पत्ताें के महल के समान भरभरा कर गिर रही हैं.
बाबुओं के घर से निकलती यह करोड़ों रु पयों की बरात, फाइलों के बोझ तले दुबके हुए बैठे अन्य बाबुओं को भी संशय के घेरे में ला रही है. जिन कार्यालयीन बाबुओं ने दिनभर में दो-तीन पान चबा लेने को रईसी समझा हो, जिन्होंने सब्जी मंडी में लौकी-नेनुआ के भाव-ताव में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो, ऐसे पवित्र बाबुओं के बारे में समाज की राय का एकाएक बदल जाना चिंतनीय विषय है. यह अजीब दौर है. चारों तरफ गिरने-गिराने का दौर जारी है. पर गिरने की भी हद होती है. अरे! इनसानों को छोड़िए, सोने-चांदी को देखिए. इत्ता गिरे, इत्ता गिरे कि गिर-गिर कर अपना नाम और दाम दोनों ही डुबो दिया. सोना-चांदी खुद तो डूबे ही, साथ में न जाने कितने निवेशकों, व्यापारियों, कारीगरों को ले डूबे. देख रहा हूं सब डूब-डाब कर मातम मना रहे हैं.
हो सकता है, सर्राफा बाजार की गिरावट से धोखा खा चुके लोग भविष्य में सोने-चांदी से मुंह फेर लें या इसके प्रति उनमें अरुचि पैदा हो जाये, पर एक बात तो तय है कि जगह-जगह  बाबू बनानेवाले कोचिंग क्लासेस के बड़े-बड़े होर्डिग लग जायेंगे. बच्चे भी शायद अब बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना न चाहें. बड़े ओहदों पर जाने की तैयारियों में भी कोई व्यर्थ ही अपना अर्थ और श्रम क्यों जाया करेगा? जब पहले पायदान पर ही लक्ष्मी जी भर-भर के कृपा दृष्टि लुटाने को आतुर बैठी हों, तब ऊपरी पायदान को लक्ष्य बनाने का क्या फायदा? या यूं कहें कि जब खिड़की से ही चांद के दर्शन हो रहे हों, तो छलनी लेकर छत पर टहलने का क्या मतलब?

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

समंदर में सू-सू करने से सुनामी नहीं आती!


अभी कल की ही बात है मार्केट में रुसवा साहब मिल गये. मैंने खैर मकदब के बाद पूछा इधर कैसे आना हुआ चाचू? मुंह में पान की गिलौरी चबाते रुसवा साहब ने मुङो उपर से नीचे तक देखा. मानो आरबीआइ गवर्नर सुब्बाराव की तरह वे भी बढती महंगाई के लिये मुङो दोषी मान रहे हों. वे धीरे से बोले ‘बस यूं ही.’ मैंने पूछा- रांची में सब कैसा है, चाय पीना पसंद करेंगे? वे कुछ बोले तो नहीं पर मेरे साथ चाय की दुकान की तरफ हो लिये. चाय की पहली चुस्की के साथ ही मैंने पूछा-
चाचू, महंगाई के लिये आप किसे दोषी मानते हैं?
पब्लिक को. महंगाई सरकार ने नहीं बढ़ाई. महंगाई को बढ़ाया ज्यादा खाने-पीने वाले लोगों ने! अंट-संट कमाने वाले लोगों ने! हद है, खुद के पेट पर कंट्रोल है नहीं और सरकार से कहते हैं कि महंगाई को कंट्रोल करे. सरकार भला महंगाई को कैसे कंट्रोल कर सकती है. हालांकि सरकार की हरदम यह कोशिश रहती है कि वो जनता को महंगाई से मुक्त रखे मगर क्या करे, उसकी हर कोशिश पर विरोधी विरोध शुरू कर देते हैं. उसे जन-विरोधी करार देते हैं. उसे बाजारवाद और पूंजीवाद का हितैषी कहते हैं.
लेकिन चाचू ये पब्लिक इतना खाती क्यों है?
भतीजे, खाते रहना पब्लिक की जरूरत या मजबूरी नहीं, उसकी नियति होती है. पब्लिक अच्छा खाना खाये. यह सरकार की सेहत के लिए भी अच्छा नहीं माना जाता. इसलिए सरकार इतना चिंतित हो जाती है.
लेकिन चाचू पब्लिक के अच्छा खाने से सरकार को क्या नुकसान होता है?
दरअसल, पब्लिक के अच्छा खाने से सरकार का काम-धाम और उसकी जवाबदेही बढ़ जाती है. बाजार में दूध, मीट, दाल, फल और सब्जियों की कीमतों में भी इजाफा हो जाता है. शेयर बाजार के सूचकांक हिलोरे मारने लगते हैं.
लेकिन चाचू  सरकार महंगाई न सही भ्रष्टाचार तो रोक सकती थी?
भ्रष्टाचार को रोकने में सरकार फेल हुई लेकिन कथित ईमानदार लोग भी भ्रष्टाचार को कहां रोक पाए? जोर तो बहुत लगा लिया ईमानदारों ने कभी रामलीला मैदान, कभी जंतर-मंतर पर हो-हल्ला काटके मगर रहे ढाक के तीन पात. हो-हंगामे का असर इत्ता हुआ कि ईमानदारों ने अपना राजनीतिक दल खड़ा कर लिया.
  इतने में चाय खत्म हो गयी और रुसवा चाचू पान की दुकान की तरफ बढ लिये. मैंने पूछा चाचू-चाचू आप तो पूरी तरह संप्रग सरकार के पक्ष में खड़े दिखते हैं. कहीं 2014 का चुनाव लड़ने का इरादा तो नहीं? वे फिर मुङो उपर से नीचे तक देखते हुए बोले- बाल सफेद हो जाने से नादानी नहीं जाती और समंदर में सू-सू करने से सुनामी नहीं आती.

गुरुवार, 21 मार्च 2013

हमने एक शेर सुनाया तो बुरा मान गये!


अजीब हालात हैं. बेनी प्रसाद वर्मा ने जरा सा ‘कुछ’ कह दिया, तो उनके पुराने ‘दोस्त’ मुलायम सिंह यादव बुरा मान गये. राज्यसभा में कांग्रेस नेता प्रदीप बलमुचु ने जया बच्चन की जरा-सी तसवीर क्या ले ली, वे बुरा मान गयीं. करुणानिधि की एक छोटी इच्छा केंद्र सरकार ने पूरी नहीं की, तो वे इस कदर बुरा मान गये कि सरकार से अपना समर्थन ही वापस ले लिया. बिहारी बाबू (शत्रुघ्न सिन्हा) ने रानी मुखर्जी को ‘रानी चोपड़ा’ क्या कह दिया, वे भी बुरा मान गयीं और ऐसे रिएक्ट किया- मानो कह रही हों ‘खामोश!’
  भई! यह तो होली का मौसम है, बुरा क्या मानना. देखो, पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा सबकी जुबान यही कह रही है ‘बुरा न मानो होली है.’
पता नहीं ‘बुरा न मानने’ से लोग परहेज क्यों करते हैं. वैसे मैं बता दूं कि ‘बुरा न मानना’ कोई रोग नहीं है, लेकिन शायद इनको लगता है कि जहां सभी लोग बात-बिना बात बुरा मान रहे हों, वहां  बात  पर भी बुरा न मानना रोग ही है. अगर आपने गौर किया हो, तो ऐसा लगता है कि अपने देश में किसी किसी की शक्ल तो बुरा मानने के लिए ही बनायी गयी लगती है. मायावती, ममता बनर्जी, करुणानिधि, अब्दुल्ला बुखारी, आडवाणी, राखी सावंत, डैनी..आदि-आदि. इन लोगों के चेहरे पर कभी ख़ुशी के भाव नहीं देखे. ऐसा लगता है कि ऐसे लोग पैदा होते ही अपने मां-बाप से भी बुरा मान गये होंगे.
  वैसे होली का मौसम होता गजब का है. जिसे देखो वही बौराया हुआ लगता है. आम, लीची, जामुन, गेहूं, अरहर, सरसों से लेकर इनसान तक. और, कवियों की पूछिये ही मत. जहां देखो वहीं हास्य कवि सम्मेलन हो रहा है. एक मंच से किसी होलियाये कवि ने तुकबंदी पेश की-
तमाम रात सुनते रहे गज़लें उनकी
हमने एक शेर सुनाया तो बुरा मान गये.
जब भी चाहते हो कुरेद देते हो जख्मों को
हाथ हमने दबाया तो बुरा मान गये.
 दूसरे ने तेवर दिखाते हुए माइक थामा-
हर हाल में हमने तुम्हारा साथ दिया,
थोड़ा सच बोला तो बुरा मान गये.
ताउम्र खोजता रहा,रोशनी तेरे लिए,
दीये में तेल न बचा तो बुरा मान गये.
बरसाती मेढक जैसे कवियों की नयी खेप होली के मौसम में उग आती है. पता नहीं पूरे साल ये कहां रहते और क्या करते हैं. कवि भी गजब-गजब के.
खैर, हम यहां बात कर रहे हैं बुरा न मानने की. वैसे, अगर आप बुरा न मानें तो मेरी एक सलाह है कि हम लोगों को सिर्फहोली में ही बुरा मानने से क्यों रोकते हैं? इस मंत्र का प्रयोग पूरे साल करने में क्या हर्ज है? मसलन- बुरा न मानो  संडे  है,  मंडे  है,  वेलेंटाइन डे  है आदि आदि. इसी बहाने बुरा मानने की बुराई तो खत्म होगी. खैर चलते-चलते, बुरा न मानो होली है..

बुधवार, 6 मार्च 2013

यह तो मीना कुमारी कॉम्प्लेक्स है जनाब!


निर्माता-निर्देशक विशाल भारद्वाज की चर्चित फिल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ में नायक  नायिका को कहता है ‘तुङो मीना कुमारी कॉम्प्लेक्स है.’ नायिका सवाल करती है ‘कैसे?’ नायक बताता है ‘तुम दुखी रहकर खुश रहती हो.’ यह बात भले ही एक मुहावरे की तरह फिल्म में इस्तेमाल हुई हो पर अगर हम गौर करें तो हमारे आसपास कई लोग ऐसे नजर आते हैं जिन्हें सच में मीना कुमारी कॉम्प्लेक्स है. अच्छे खासे लोग, जिन्हें न रोजी-रोटी की चिंता है न घर-परिवार की. न पाने की खुशी है न खोने का गम. जिंदगी की हर सुख-सुविधाएं  हासिल हैं, फिर भी वे मुकेश के दर्द भरे नगमे सुनना पसंद करते हैं. भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त एक अधिकारी के यहां एक दिन जाना हुआ. पहुंचा तो म्यूजिक की हल्की आवाज कमरे के बाहर तक आ रही थी ‘जब दिल ही टूट गया तो जीकर क्या करें’ मैं ठिठक गया. गार्ड ने बताया कि घबराइये नहीं. यह रूटीन का हिस्सा है. मैंने पूछा ‘सर आप यह गीत?’ बोले ‘बस यूं ही. अच्छा लगता है.’
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हाल ही में संपन्न राजधानी दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी ‘मीना कुमारी कॉम्प्लेक्स’ का बोलबाला  रहा. वजह थे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लेकर वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज तक हर कोई नरेंद्र मोदी का मुरीद नजर आया. मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को जब भाषण देने का मौका मिला तो उन्होंने अपनी उपलब्धियों को मोदी की उपलब्धियों के बराबर दिखाने की कोशिश की. हद तो तब हो गयी जब पार्टी के भूतपूर्व पीएम-इन-वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के दिल का दर्द उनके भाषण में छलक आया ‘मुङो नरेंद्र मोदी से जलन होती है. वे इतने प्रखर वक्ता हैं कि उनके बोलने के बाद किसी को बोलने के लिए कुछ बचता ही नहीं है.’ ऐसी ही बात उन्होंने सुषमा स्वराज के लिए भी कही ‘जब मैं अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जनसंघ में काम करता था, तो उनकी प्रखर भाषण शैली के कारण जनसभाओं में बोलने से कतराता था. आज सुषमा स्वराज भी अपने ओजस्वी विचारों से मेरे अंदर कॉम्प्लेक्स पैदा करती हैं.’
मनोविज्ञान में खुद को पीड़ा देकर आनंद पाने को ‘मैसोचिस्म’ कहते हैं. आपने शायद गौर किया हो, बीजेपी के हर बड़े आयोजनों में आडवाणी जी अक्सर आंखों में आंसू लिये देखे जाते हैं. कोई उनकी प्रशंसा कर दे तो आंसू, किसी ने पुरानी यादें ताजा कर दी तो आंसू. आप कहेंगे यह तो खुशी के आंसू हैं. जी हां जनाब!  सही फरमा रहे हैं आप. यह खुशी के ही आंसू हैं. पर यह आंसू ही उनके अंदर का ‘मीना कुमारी कांम्प्लेक्स’ उजागर करता है.

बुधवार, 30 जनवरी 2013

इस मर्ज की गालिब कोई दवा तो बताओ!


हर बार सोचता हूं कि इस बार क्या नया लिखूं. अधिकारी से लेकर नेता तक सब जनता की सेवा में लगे हैं, आखिर मुङो भी कुछ करना चाहिए. मैं भी इस अभागे देश का अभागा नागरिक हूं. अपने देश का कुछ तो भला करूं. उम्र बीत जाती है कई लोग यह  सोच ही नहीं पाते कि उन्हें देश के लिए, समाज के लिए या खुद के लिए करना क्या है? मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैंने इस निष्कर्ष को शीघ्र ही पा लिया. एक दिन चिंतन-मनन में डूबा देख कर श्रीमती जी ने बाउंसर मारा ‘कोई गंभीर बात है?’ मैंने कहा ‘बस यूं ही सोच रहा था कि कुछ अलग लिखूं, कुछ नया लिखूं.’ श्रीमती जी का जवाब हाजिर था ‘लिखना है तो लिखो, सोच क्यों रहे हो? लोगों से भी कम मतलब लोगों की बात लिख कर कूदते रहते हो,  लिखना है तो ऐसा लिखो जो सबके मतलब का हो.’
  मुङो ‘मतलब’ तो समझ में आ गया पर हमने बहुत सोचा कि ऐसा क्या लिखूं कि जो सबके मतलब का हो! यह सोचते-सोचते मैंने इतना सोचा कि अब मुङो लगने लगा है कि मुङो ‘सोचने’ की बीमारी हो गयी है.  कभी-कभी तो मैं यह सोचने लगता हूं कि मैं सोच क्यों रहा हूं? सच बताऊं तो कभी-कभी यह भी सोचता हूं कि सोचना कम कर दूं क्योंकि बंद तो नहीं कर सकता. सोचने-सोचने के क्रम में ही कई ऐसी पुस्तकें भी पढ़ डाली, जिनमें मेरी कभी रुचि नहीं रही. इस दौरान कहीं पढ़ने को मिला कि दुनिया में हर मर्ज की दवा बताते हुए उससे बचने के उपाय हाजिर हैं. कुछ में तो दर्द बाद में आता है, दवा पहले तैयार रहती है बल्कि सच कहा जाये तो दवा होती है इसीलिए दर्द ईजाद किया जाता है.
      पिछले दिनों शहर में एक पुस्तक मेला भी लगा था. कई पुस्तकें स्टॉलों पर चमक रही थीं - दोस्त कैसे बनायें, लोगों को प्रभावित कैसे करें, अच्छा व सफल मैनेजर कैसे बनें, करोड़पति बनने के सौ सफल उपाय, अच्छा व प्रभावकारी वक्ता कैसे बनें, सुखद-सफल दांपत्य जीवन के नुस्खे, महान कैसे बनें? वगैरह-वगैरह. यह सब देख कर मैं सच बताऊं तो हतोत्साहित हो गया. इतनी सारी जानकारियों पर तो पहले ही लिखा जा चुका है. इसके अलावा भी तमाम अटरम-सटरम विषयों पर भी किताबें मौजूद हैं लेकिन हमने आजतक ऐसी कोई किताब नहीं देखी जिसमें कोई ऐसी तरकीब बतायी गयी हो कि आप  अच्छा इंसान कैसे बनें? दुनिया में औने-पौने-बौने व्यक्तित्व के लोगों का धमाल है. अच्छे लोग दिखते ही नहीं! ऐसा तो नहीं कि अच्छे लोग भगवान के यहां से बन के आने ही बंद हो गये? मुङो तो लग रहा कि यह मुद्दा सभी के मतलब का है, बाकी आप जैसा उचित समङों. वैसे मैं इस निष्कर्ष पर अभी नहीं पहुंच पाया हूं कि क्या वाकई मैंने सोचने का ‘मजर्’ पाल लिया है? अगर ऐसा है तो, इस मर्ज की गालिब कोई दवा तो बताओ!

बुधवार, 9 जनवरी 2013

पुराने की कशिश और नयेपन की तलाश


तीन दशक पहले की बात होगी, हम चार भाई-बहन किताबें एक के बाद एक उपयोग कर लेते थे. इस कड़ी में पड़ोसी घरों के बच्चे भी शामिल थे. बड़े भैया की किताबें मैं, फिर मेरे से छोटी वाली बहन और उसके बाद सबसे छोटी वाली बहन. कड़ी आगे भी थी. पड़ोस के बच्चे तक भी उन किताबों का बहुधा उपयोग करते थे. किताबें बेहद संभाल कर उपयोग की जाती थीं क्योंकि आनेवाले सालों में छोटे भाई-बहनों के लिए भी काम में लाना था. इससे जहां किताबों के प्रति स्नेह-लगाव पैदा हो जाता था, वहीं उनकी साज-संभाल के प्रति सजगता खुद-ब-खुद आती गयी. इतना ही नहीं, पुरानी कॉपियों के बचे पन्नों से नयी क्लास के लिए नयी नोटबुक भी जिल्द के साथ बना ली जाती थी. कपड़ों के मामले में भी कुछ इसी तरह की मितव्ययिता बरती जाती थी. कपड़े, किताबों के अलावा पुराने टूटे सामान का भी कहीं न कहीं सदुपयोग हो ही जाता था. कद्दू (कुम्हड़े) के छिलके की स्वादिष्ट सब्जी और सूखी चटनी बनाने वाले अब कितने हाथ बचे हैं? बासी रोटी को मसल कर स्वादिष्ट नाश्ते में बदलना आजकल कम ही रसोई घरों में हो पाता है. बासी भात के पकोड़े और बासी रोटी के पकोड़े सुबह के नाश्ते का जरूरी हिस्सा थे. गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर तांगे या बैलगाड़ी की सवारी करने में जो बात थी वह आज किसी महंगी/लग्जरी कार में भी नहीं.
   आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब पुरानी बातें क्यों याद कर रहा हूं. दरअसल, बीते दिनों को याद करना मानव की फितरत है. हम जानते हैं कि हमारी नियति आगे की ओर जाना ही है, समय की गंगा को उलटा बहा कर पीछे जाना संभव नहीं होता. मगर बीते हुए कल में कोई न कोई ऐसी कशिश होती है जो हमें समय-बेसमय उसकी ओर खींचती है. विदेशों या देश के ही बड़े शहरों से छुट्टियां मनाने छोटे शहरों व गांवों में जाने वाले लोग तांगे की सवारी करना पसंद करते हैं, तो इसलिए नहीं कि उन्हें मोटर से चिढ़ हो गयी है और वे उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं. छुट्टियों से लौट कर उन्हें उन्हीं कार, बस, हवाई जहाज दरकार होंगे. कथित पिछड़े  मुल्कों या इलाकों के लोग जहां चमचमाते कांच और कंक्र ीट के जंगलों में घूमने के ख्वाब देखते हैं, वहीं इन जंगलों में से निकल कर सुविधाओं से वंचित स्थानों पर कुछ दिन बिताने की चाह रखने वालों की संख्या भी बढ रही है. बड़े-बड़े रईसों में ऐसे किसी स्थान पर छुट्टियां बिताने का चलन चल पड़ा है, जहां न टेलीफोन हो, न टीवी और न ही इंटरनेट.  दरअसल, यह यह कुछ अलग पाने की चाहत है. मनुष्य को जो हासिल है, उसे सुकून पाने के लिए हमेशा उससे इतर कुछ चाहिए. जब वह पीछे होता है, तो आगे जाना चाहता है और जब आगे पहुंच जाता है, तो वापस पीछे लौटना चाहता है..