गुरुवार, 26 जुलाई 2012

बिना पिये ही रूठ गये पिया, मनाऊं कैसे?

नंबर दो के भी अपने मजे हैं गुरु. कई लोग बिजनेस में ईमानदारी की रेजगारी से कंगाल होते-होते होश में आये और तुरंत नंबर दो का धंधा अपनाया तो आज करोड़ों में खेल रहे हैं. नंबर एक आदमी हमेशा सही-गलत के फेर में फंसा रहता है और तरक्की की सीढ़ियां चढने से पहले ही लुढ़क जाता है. आज के जमाने में ‘नंबर दो’ की क्या हैसियत यह किसी से छिपी नहीं है. थाने से लेकर दिल्ली में सत्ता के गलियारों तक की उन्हीं की चलती है.

खैर नंबर दो की महिमा अपनी जगह, मैं तो इस बात से हैरान हूं कि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार भला क्यों ‘नंबर दो’ का ओहदा चाहते हैं? वह तो केंद्र सरकार में ‘नंबरी आदमी’ हैं. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक उनकी खासी पूछ है. दरअसल, नेताओं को रूठ जाने की बीमारी होती है. कभी बहाने से, तो कभी बिना बहाने के रूठ जाते हैं. किसी को पार्टी में पदाधिकारी बना दिया जाये तो मुंह फुला लेते हैं. जैसे परिवार में शादी के कथित शुभ अवसर पर फूफा और जीजा ऐन घुड़चढ़ी के अवसर पर रूठ जाते हैं. जीजा रूठे तो थोड़ा जंचता भी है, पर फूफा? घरवाले तो घरवाले, दूल्हा भी जीजू को मनाने में लग जाता है. बारातें अक्सर रूठों को मनाने के चक्कर में रेलगाड़ियों की तरह घंटा दो-घंटे लेट हो जाती हैं. कुछ नेता तो रूठने के मामले में पत्नियों को भी पीछे छोड़ देते हैं. न उनकी मांगें कभी खत्म होती हैं और न उनके रूठने का सिलसिला. वैसे, कई बार तो पिया लोग बिन पिये ही रूठ जाते हैं. तब नारी के लिए प्रॉब्लम हो जाती है कि रूठे-रूठे पिया, मनाऊं कैसे? बाकी मुल्कों का तो पता नहीं, अपने मुल्क में प्रेयसी-पत्नी को मनाने के लिए गहने-लत्तों की दुकानें बेहद सहायक सिद्ध हुई हैं. कुछ महीने पहले स्वर्णकार हड़ताल पर चले गए थे. परिणास्वरूप तलाक के मामलों में खासा इजाफा हो गया था.

पुरानी बात क्यों, रूठने की ताजा घटना बताता हूं. अपने एशिया संस्करण में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की तस्वीर मुखपृष्ठ पर देते हुए टाइम पत्रिका ने शीर्षक दिया ‘द अंडरअचीवर’. सरकार के निंदक, योग से राजनीति में कूदे बाबा रामदेव ने इसका हिंदी अनुवाद फिसड्डी के रूप में किया है और अब मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा इस विशेषण को ही प्रसारित-प्रकाशित किया जा रहा है. फिसड्डी एक नकारात्मक भाव वाला शब्द है, जिसका अभिप्राय पिछड़ जाने से है. कक्षा में कुछ छात्र होशियार होते हैं, कुछ फिसड्डी. खेल में कोई विजेता होता है, कोई फिसड्डी. अंडरअचीवर का अगर थोड़ा सुसंस्कृत भाषा में अनुवाद किया जाता, तो इसे ‘उपलब्धिहीन’ कहा जा सकता है, अर्थात् जिसकी उपलिब्धयां कम हों. पर क्या कहें, अर्थ लगानेवाला तो अपने ‘दिमाग’ का इस्तेमाल करता है. जब से यह प्रकरण हुआ है, तब से कुछ लोगों का मुंह भी फूला हुआ है. मुङो तो लगता है यह ‘नमी’ का असर है.

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

पापा जल्दी मत आना

रांची से टाटा आ रही एसी बस में यात्र कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है. आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं. पर वे बिल्कुल जमाने से बेपरवाह. चांडिल आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है. ‘पापा हैं’, युवती युवक से कहती है. ‘जी पापा, बस अभी-अभी खुली है. आप बस स्टैंड आराम से मुङो लेने आना.’ लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं. उसने अपने पापा से झूठ बोला है. वह जमशेदपुर के इतने करीब पहुंच चुकी है और खुद को रांची में बता रही है. युवक, ‘तुमने पापा को अच्छा उल्लू बनाया.’ लड़की मुस्कुराती है.

यह महज एक वाकया नहीं बल्कि भविष्य का वह डरावना सच है जिसे स्वीकार करते हुए हमें हिचकिचाहट हो सकती है. क्योंकि हर पिता सिर्फ और सिर्फ यही सुनने का आदी है ‘पापा जल्दी आना.’ और नयी पीढी की यह सोच - पापा जल्दी मत आना..यहां तुमसे भी जरूरी कोई है. जिसके साथ मैं अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती/चाहता हूं. तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है. पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना..

आप मानिये या न मानिये समाज बहुत आगे निकल चुका है. आज पांच बरस के बच्चे को भी गले लगाते हुए डर लगता है. एक शिक्षक ने बताया ‘क्लासरूम में बच्चियां कहती हैं कि आप हमें बेटा क्यों कहते हैं सर.’ रिश्ते असहज हो रहे हैं. समय से पहले फल पक जाए तो स्वाद और सेहत दोनों ही पैमाने पर खरा नहीं उतरता. योग की कक्षाओं के लिए बहस भले न छिड़े, लेकिन यौन शिक्षा पर खुद को बुद्धिजीवी समझने वाला हर व्यक्ति इसकी पैरवी करता नजर आता है. इस पक्षधरता से वह अपने-आप को अभिजात्य और अधिक समझदार होने का दंभ भर सकता है.

आप कागज पर कानून बनाते रहिए और समाज की बखिया उघेड़ते रहिए. नतीजा वही होगा जो सामने है. ऊंचाई पर चढना और वहां अड़ना बहुत मुश्किल है. आसान है वहां से गिरना. यह समाज जिस रास्ते चल पड़ा है, उससे आगे का रास्ता भले चमकीला दिख रहा हो, लेकिन यह अंधेरे से पहले की चमक है. बहुत-से बुद्धिविलासियों को यह बात निगलने में मुश्किल होगी, लेकिन यह सच है. अब नानी-दादी की कहानियों का संबल नहीं है. चाचा-मामा तो अतिथियों की सूची में आ गए हैं. कौन संभालेगा इस टूटते-दरकते और बिखरते परिवार को, जो एक खोखले होते समाज की सबसे छोटी इकाई है! जब बचपन ‘पालना घर’ में और बुढापा ‘वृद्धाश्रम’ में बीतने लगे तो सोचने का समय है. बाजार हमें इसलिए तोड़ रहा है क्योंकि उसके लिए हम केवल उपभोक्ता हैं.

बुधवार, 11 जुलाई 2012

नाखून बढ़ गये हैं, तो काटते क्यों नहीं?

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सुप्रसिद्ध निबंध है- नाखून क्यों बढ़ते हैं. नाखून मनुष्य की आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है, जो बार-बार बढते हैं और आधुनिक मनुष्य उन्हें हर बार काट कर हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है. जीवन में ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों से आये दिन हमारा साबका पड़ता है. सभ्य समाज इनको नियंत्रित करने की कोशिश करता है. साधु-संत बुराइयों से दूर रहने के उपदेश देते हैं. सरकारें भी इन्हें रोकने के लिए कानून बनाती हैं. इसे एक तरह से नाखून काटना माना जा सकता है. बुराई को जड़ से खत्म करना तो संभव नहीं, लेकिन जो इनमें लिप्त होते हैं, वे समाज में प्रवाद माने जाते हैं.

इस लिहाज से यह दौर भयावह है. हम अपने चारों तरफ बड़े-बड़े नाखूनों को देख और महसूस कर सकते हैं. इस दौर में पल्लू के नीचे.., मुन्नी बदनाम हुई.. और शीला की जवानी.. जैसे गीत सिनेमा के परदे से उतर गलियों में गूंज रहे हैं. यहां नैतिकता की ठेकेदारी या संस्कृति की झंडाबरदारी का सवाल नहीं है. सवाल सामाजिक है. इस तरह के गीत, संवाद या दृश्य किस समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं? क्या इन गीतों, संवादों और दृश्यों का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किस समाज को गढ़ने की कोशिश की जा रही है? कौन-से आदर्श स्थापित किये जा रहे हैं?

चूंकि ‘पुरवइया’ से ज्यादा हमें ‘पछुआ’ पवन भाती है, इसलिए जो भी झोंका वहां से आता है, हमारे मन को खूब सुहाता है. शायद यह उन 200 बरसों का असर हो? हम कहां सोच पाते हैं कि झोंका अगर बवंडर बन गया? तो हमारी सारी जड़ें उखाड़ देगा. एक विज्ञापन के मुताबिक कोई विशेष शेविंग क्रीम चुंबन के लिए ही लगायी जाती है. अगर गौर किया हो तो एक विज्ञापन हम सबको चॉकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है. बात समझने में देर नहीं लगती कि हम क्या कहना और करना चाहते हैं. एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है.

एक से जी नहीं भरता, ये दिल मांगे मोर जैसे जुमले जब बच्चों और युवाओं के कानों में पड़ते हैं, तो उन्हें इनका अर्थ कोई नहीं समझाता, वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं. सड़क पर चलती हर लड़की-औरत उन्हें ‘मुन्नी’ और ‘चमेली’ ही नजर आने लगती है. उसके बाद जो होता है, वह चैनलों और अखबारों के लिए दिन भर की खबर बन जाता है.

...और अंत में, स्व सुभाष दशोत्तर की कविता की ये पंक्तियां : हमारी हथेलियां, हमारे कलाइयों के भीतर चली गयी हैं, बाहर असंख्य सुविधाएं हैं, मगर हमारे पास, अब वो उंगलियां नहीं हैं, जिनसे बटन दबता है, ऐसे ही हमारे पांव, हमारी टांगों के भीतर चले गये हैं, अब हम वहां नहीं पहुंच पायेंगे, जहां पांव ले जाना चाहते थे.

शनिवार, 7 जुलाई 2012

बोल बच्चन उर्फ बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें

जिसका कद जितना ही बड़ा उसकी बात भी उतनी ही बड़ी. यानि, बड़े लोगों की बड़ी बातें. या यूं कहिये कि ‘बोल बच्चन.’ यह बोल बच्चन जितना ही रोचक, उतना ही मजेदार. पेश है पिछले 24 घंटे के बोल बच्चन की झलकियां :

हरफनमौला क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग की सुनिये ‘विश्वकप अकेले धौनी के खेलने से हासिल नहीं हुआ, इसमें पूरी टीम का योगदान है.’ अब भला इस हरियाणवी छोरे से कोई यह पूछे कि यह भी कोई कहने व बताने की बात है. यह तो सब जाने हैं.

बांग्लादेश की चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन की खुशी थोड़ी प्राइवेट किस्म की है ट्विट किया ‘अभी-अभी एक उपन्यास खत्म किया है. ऐसा महसूस हो रहा है, जैसा जी-स्पॉट आर्गेज्म हासिल करने पर होता है.’

क्रिकेटर रोहित शर्मा ने कहा ‘मैं टीम इंडिया में वापसी के बारे में नहीं सोच रहा.’ लो कर लो बात आपको लेने की सोच कौन रहा है?

ममता बनर्जी का ताजा बयान ‘देश में कायर और कमजोर नेताओं की बाढ आ गयी है.’ इस बयान का मकसद और मतलब तो दीदी ही जानें पर है यह बात सोलह आना सच. वैसे दीदी बोलती खरी-खरी हैं. चाहे वह अपने पार्टी के नेताओं के खिलाफ हो या फिर केंद्र सरकार के. हालांकि एक मुद्दे पर उनके बोलने का इंतजार पूरे देश की जनता कर रही है. वह मुद्दा है राष्ट्रपति चुनाव. लोग यह जानने को बेताब हैं कि आखिर दीदी की ममता किस पर बरसेगी. एक तरफ प्रणब मुखर्जी खेमा दिनरात एक किये हुए है तो दूसरी तरफ पीए संगमा को दीदी पर पूरा भरोसा है. पर पब्लिक पसोपेस में है. उसे समझ में नहीं आ रहा दीदी क्या करने वाली हैं. उड़ते-उड़ते तो खबर यह भी आ रही है कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मन माफिक तय करवाने में नाकाम रही ममता इस जुगाड़ में हैं कि मुलायम के साथ मिल कर उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार अपनी पसंद का खड़ा करवा सकें.

उधर, प्रणब दा को कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाये जाने को मजाक बताते हुए भाजपा ने कहा ‘प्रणब को राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बना कर कांग्रेस ने उन्हें कोई इनाम नहीं दिया है बल्कि उनसे मुक्ति पा ली है. प्रणब वित्तीय प्रबंधन के मामले में पार्टी पर बोझ बन गये थे.’

लालू यादव ने भाजपा-जदयू गठबंधन पर चुटकी ली ‘घबराओ मत, मौका मिलेगा, डाइवोर्स होने ही वाला है.’ जदयू भी कहां चुप रहनेवाला था. आगामी चुनाव में राजद की तरफ से 50 प्रतिशत टिकट युवाओं को देने के लालू प्रसाद के बयान पर पलटवार किया ‘पुत्रमोह में युवाओं की बात कर रहे हैं लालू.’

और बिग बी यानि अमिताभ बच्चन की सुनिये ‘हम मिसाइल लांच करने में तो कामयाब हो जाते हैं पर एक बच्ची को बोरवेल से निकालने में नाकामयाब.’ सच्ची बात है मिस्टर बच्चन पर मशीन और इंसान में अंतर तो आपको मालूम ही होगा.

और अंत में मार्क ट्वेन के बोल बच्चन ‘अगर आप भूख से मरते एक कुते को उठा लाइये और उसका पालन-पोषण कीजिये तो वह आपको नहीं काटेगा. आदमी और कुत्ते में यही अंतर है. ’