सोमवार, 24 दिसंबर 2012

अगर यह भी नहीं मालूम तो धन्यवाद आपका!


नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनावी समर जीते तो वोटरों के साथ-साथ अपने प्रतिद्वंदियों को भी धन्यवाद कहा. उधर, हिमाचल प्रदेश में ‘हिमालयी परिवर्तन’ के तहत जीतने पर वीरभद्र ने जनता को धन्यवाद कहा तो प्रेम कुमार धूमल ने भी आखिरकार हार स्वीकार किया और जनता को धन्यवाद कहा.  धन्यवाद भले ही एक साधारण शब्द हो पर इसमें व्यापक ऊर्जा समाहित है. जो भी इसका उपयोग करता है उसे यह बात बताने की जरू रत शायद नहीं है. पर हमारी पाश्चात्य से अति पाश्चात्य होती जा रही जीवन शैली में, हमारे व्यवहार में, हमारी दिनचर्या में ‘धन्यवाद’ का तेजी से हृास होता जा रहा है. शायद महंगाई के इस दौर में हमारी कंजूस होने की प्रवृति का सबसे ज्यादा साइड इफेक्ट ‘धन्यवाद’ ने ही ङोला है. इस घोर महंगाई के दौर में ‘धन्यवाद’ ही एक ऐसी ‘वस्तु’ बची है जिसके दाम में उतार-चढ़ाव नहीं होता. जिसका सेंसेक्स गिरता-चढ़ता नहीं है और न ही कोई इसकी कालाबाजारी कर सकता है. और तो और इस पर न तो सरकारी नियंत्रण है और न ही निजी कंपनियों का वर्चस्व. सबसे बड़ा फायदा तो यह कि इसका कितना भी उपयोग-दुरुपयोग दुनिया भर में किया जाए इसके खत्म होने का कोई खतरा नहीं है. हम भारतीय इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि ‘धन्यवाद’ रूपी ईंधन की उपलब्धता की खातिर हमें किसी अरब देश का मुंह ताकने की जरू रत भी नहीं. यह तो भारतीय संस्कृति में प्रचूर मात्र में उपलब्ध है.
आप कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि मैं ‘धन्यवाद’ पर किया अपना शोधपत्र आपके सामने पेश कर रहा. ऐसा नहीं है. मेरा इरादा आप विज्ञ पाठकों को बोर करना कतई नहीं है. मैं तो ‘बस यूं ही’ कुछ कहना चाह रहा था. अगर आप ‘धन्यवाद’ को लेकर सीरियस नहीं हैं तो कोई बात नहीं. अब ‘धन्यवाद’ कोई सास-बहू का सीरियल तो है नहीं कि इसे याद रखना जरू री है. न ही यह मैरिज एनिवर्सरी  या जन्मदिन है जिसे याद न रखने से आपकी फजीहत हो जाएगी. यह किसी बाबा का बताया गया वह चमत्कारिक नुस्खा भी नहीं है जिससे आपकी सारी परेशानियां छू-मंतर हो जाएंगी. वैसे भी जब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में आलू-प्याज, नमक-तेल, साबून-शैंपू, डीजल-पेट्रोल, सोना-चांदी, बच्चों की परवरिश, दवा और दुआ ने हलचल मचा रखी हो तो ‘धन्यवाद’ कहां याद रह पाता है. और हां मैं तो आपको इस पर चिंतन-मनन करने के लिए भी नहीं कहूंगा. इसके लिए तो समय चाहिए होता है. वह आज कहां किसी के पास है. आप तो सुबह से रात तक ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ के भंवरजाल में ऐसे उलङो हुए हैं कि आपको इस बात की भनक ही नहीं कि ‘सरकार की इतनी कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद हमारे देश में कितने बच्चे अब भी स्कूल की देहरी से दूर हैं.’ आपको तो यह भी नहीं मालूम कि हमारे देश में कितने लोग दिनभर भोजन का इंतजार करने के बाद रोज रात को भूखे पेट ही सो जाते हैं?  धन्यवाद आपका!

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

रोटी मजबूरी हो या दूरी पर सबके लिए जरूरी


प्रख्यात साहित्यकार प्रयाग शुक्ल की एक कविता है-
व्यंजन पकाने की विधियां कई हैं
व्यंजन भी कई हैं
ढेरों व्यंजनों के
पर व्यंजन विधियों को चकमा देकर
कब और कैसे स्वाद को
मधुर तिक्त करते हैं
यही चमत्कार है.
पर इससे भी बड़ा चमत्कार है ‘खाना-खिलाना’. चाहें तो आप इसे ‘डिनर डिप्लोमेसी’ भी कह लें. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी यूपी में भोजन करने को ‘रोटी खाना’ कहते हैं. रोटी के लिए इनसान क्या-क्या नहीं करता? खेती से लेकर राजनीति तक सब इस रोटी की ही लाचारी है. अरे भई! कोई  रोटी बनाता है, कोई रोटी उगाता है. कई महानुभाव तो ऐसे भी होते हैं जो दूसरे की उगायी फसल काटने की फिराक में रहते हैं. कोई रोटी खिलाता है, कोई खाता है. किसी के लिए रोटी मजबूरी है तो किसी के लिए दूरी है. जो भी हो रोटी होती सभी के लिए जरू री है.
कुछ लोग रोटी छीन कर खाते हैं, तो कुछ लोग कमा कर. कुछ लोग दिखा कर, तो कुछ लोग छिपा कर. हमारे बड़े-बुजुर्ग आज भी इस बात को बहुत जोर देकर कहते हैं कि ‘रोटी और बेटी का रिश्ता हर किसी से नहीं किया जाता.’ रोटी के लिए कई लोग बेघर हो जाते हैं, तो कई लोग रोटी का व्यवसाय कर कई-कई घरों के मालिक बन जाते हैं. रोटी की महिमा जितनी भी बखानी जाये कम ही होगी. कोई रोटी खाने के लिए राजनीति करता है तो कोई रोटी खाकर राजनीति करता है. कई नेता तो गरीबों/दलितों/मजदूरों के घर जाकर रोटी खाने का दिखावा करते हैं. दरअसल, इनकी नजर रोटी पर कम उनके वोट बैंक पर ज्यादा होती है. यह बात कोई समझ नहीं पाता. क्या वह गरीब यह नहीं सोचता होगा कि नेताजी मेरे यहां आकर रोटी तोड़ रहे हो कभी मुङो भी अपने घर बुलाओ? तुमने खून-पसीने की कमाई का स्वाद तो चख लिया, जरा मैं भी देखूं मुफ्तखोरी का स्वाद कैसा होता है?
संभ्रांत लोग रोटी खाने-खिलाने को ‘डिनर डिप्लोमेसी’ कहते हैं. उन्हें ‘रोटी’ से गरीबी की दरुगध आती है. साझा पार्टियों के समर्थन पर टिकी सरकारें जब-तब अपने अल्पमत में होने का खतरा महसूस करती हैं और राजधानी में डिनर डिप्लोमेसी का दौर तेज हो जाता है. शादी-ब्याह तो बिना डिनर के होते ही नहीं. ये अलग बात है कि इस डिनर का लाभ उठाने के लिए कई बिन बुलाये ‘चतुर सुजान’ बन-ठन कर आयोजन स्थलों के पास मंडराते रहते हैं. कई पत्नियां लजीज डिनर बना कर पति महोदय का मूड ठीक करने का हुनर अब भी ढूंढ़ रही हैं. बड़े होटलों/रेस्तरां में पसंदीदा डिश खिला कर प्रेमिका को प्रेयसी बनाने का प्रयत्न करना आज भी प्रेमियों की पहली पसंद है. ‘लड़की-देखाई’ की रस्म हो, तो सास-ससुर यह पूछना नहीं भूलते कि ‘बेटी खाना बनाना तो जानती ही होगी?’

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

वो सुबह-सुबह अखबार नहीं पढ़ते!


सुबह-सुबह जैसे ही अखबार खोलिए, कोई न कोई घपले-घोटाले की खबर जरू र मिलेगी. ऐसे में हर घोटालेबाज यही सोचता है, पता नहीं मेरा नंबर कब आ जाये. इसलिए वह अखबार जरा डरते-डरते ही खोलता है और अपना नाम उसमें न पाकर इत्मीनान की चाय पीता है.
पिछले दिनों बच्चों के एक कार्यक्रम में एक नेताजी को चीफ गेस्ट बनाया गया था. जिज्ञासा से लबरेज एक बच्चे ने प्रश्नोत्तर सत्र में नेताजी से पूछ लिया, ‘‘आप तो इतने सुरक्षा बल के बीच रहते हैं. क्या आपको भी किसी चीज से डर लगता है?’’ नेताजी सोच में पड़ गये. जिसका डर था वही हुआ. भरी सभा में कैसे बतायें. पर बचने का कोई उपाय न पाकर बोले, ‘‘मुङो अखबार से बहुत डर लगता है.’’ बच्चे खिलाखिला कर हंस पड़े. उन्हें शायद ‘क्यों’ पूछने की जरू रत नहीं थी.
मेरे मोहल्ले में रहनेवाले एक छुटभैये नेता ने बताया कि नेता हमेशा इस बात को लेकर खास अलर्ट रहते हैं. वह अखबार पढ़ रहे किसी व्यक्ति से बात नहीं करते, क्योंकि उन्हें इस बात का सदैव डर सताता रहता है कि पता नहीं कब कौन उनसे उल्टा-सीधा सवाल कर बैठे, जिसका जवाब देना उनके लिए मुश्किल भरा हो. एक ‘नामवर’ नेता की पत्नी ने बताया कि उनके ‘साहेब’ उनसे भी ज्यादा अखबार से डरते हैं. खास कर तब अगर कोई यह पूछे कि आज आपने अखबार पढ़ा क्या?’’ सुबह-सुबह अखबार छूने से डरते हैं. जब तक नहा-धोकर पूजा-पाठ नहीं कर लें, वह अखबार नहीं पढ़ते. यहां तक कि ‘राशिफल’ भी नहीं.
ऐसा नहीं कि केवल नेता ही इस सिंड्रोम से पीड़ित हैं, बल्कि कई अफसर भी इस बीमारी की गिरफ्त में हैं. एक आला अधिकारी के बंगले में चाकरी करनेवाले एक अर्दली ने राजफाश किया,‘‘मैडम हर वक्त साहब को ताना मारती रहती हैं- वैसे तो तुम बड़े बहादुर बने फिरते हो, पर सुबह-सुबह अखबार देख कर तुम्हारी घिग्गी क्यों बंध जाती है? अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को तो बेवजह गरियाते रहते हो पर अखबार देखकर क्यों भीगी बिल्ली बन जाते हो? मैडम चाहे कितना भी कुछ कहें पर साहब कुछ नहीं बोलते.’’
ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं. आपको ऐसे बहुतायत से प्राणी मिल जायेंगे जो वैसे तो मीडिया से दोस्ती रखना चाहते हैं, दूसरों का कच्च चिट्ठा खोलते रहते हैं, पर अपनी काली करतूतों के बारे में छपने से डरते हैं. इन्हें पसंद है दूसरों के बारे में गॉसिप पढ़ना, पर अपने बारे में सच्चई पढ़ने से भी डरते हैं. ये चाहते हैं चौराहे पर लगे एक आईना पर उसमें अपना चेहरा देखने से बचते हैं. ऐसे लोगों से विनम्र विनती है-
‘‘भइया! डरना ही है तो अपने आप से डरो, अखबार से क्यों डरते हो
लड़ना ही है तो तूफान से लड़ो, बयार से क्यों लड़ते हो.’’