गुरुवार, 27 नवंबर 2014

जरा सोचो, कभी ऐसा हो तो क्या हो?

अरसे बाद एक ऐसी सनसनाती खबर (सनसनी नहीं) आयी है जो मोदी विरोधियों के धधकते सीने को ठंडक पहुंचा सकती है. खबर भी ऐसी जिसके न सिर्फ गहरे निहितार्थ हैं, बल्कि दूरगामी राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं. गुजरात के मेहसाणा में अपने भाई के साथ रह रहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी जशोदाबेन ने एक आरटीआइ दाखिल कर उन्हें मिलने वाली सुविधाओं और सिक्योरिटी कवर की जानकारी मांगी है. उन्होंने पूछा है, ‘‘मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी हूं. मैं यह जानकारी चाहती हूं कि प्रोटोकॉल के तहत मुङो दूसरी और क्या सुविधाएं और सुरक्षा कवर मिल सकता है?’’ अपने आवेदन में जशोदाबेन ने शिकायत करते हुए लिखा है, ‘‘मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करती हूं, जबकि मेरे सिक्योरिटी ऑफिसर निजी वाहन से जाते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी. मुङो इस समय अपने सिक्योरिटी कवर को लेकर भय महसूस होता है. इसलिए मुङो मेरी सिक्योरिटी में लगे सुरक्षाकर्मियों की पूरी जानकारी मुहैया करायी जाये.’’
यह सभी जानते हैं कि नरेंद्र मोदी ने कभी भी अपने सार्वजनिक जीवन में जसोदाबेन को अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दिया. वे कभी उनके बारे में कुछ भी नहीं बोलते. मोदी की यह चुप्पी उनके मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने के बाद तक कायम है. हां, पिछले लोकसभा चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वियों ने अवश्य इसे मुद्दा बनाया, पर इससे उनका ‘उल्लू सीधा न हो सका.’ मोदी इस मुद्दे को लेकर कभी विचलित नहीं हुए. हां, गाहे-बगाहे जसोदाबेन खुद ही इस मुद्दे पर अवश्य बोलती रही हैं. पर इस बार मामला काफी गंभीर लग रहा है. इस मामले को ऐसे भी देखा जाना चाहिए कि जसोदाबेन आखिर अपनी सुरक्षा को लेकर अचानक क्यों चिंतित हो गयीं? इसके पीछे उनकी क्या सोच है? क्या जसोदाबेन ने ऐसा पहली बार सोचा है? हालांकि बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि सोच कभी भी आ सकती है. इस पर किसी का वश नहीं होता.
अब अगर बड़े-बुजुर्गो की कही इस बात को सच मानें (हालांकि सच नहीं मानने की न तो कोई वजह है और न ही मिजाज) तो एक और ‘सोच’ इस सोच की दिशा बदल सकती है. खुदा न खास्ता कहीं किसी राजनीतिक दल को (भाजपा तो ऐसा नहीं ही करेगी) जसोदबेन को राज्यसभा के टिकट पर संसद में भेजने जैसी ‘सोच’ कौंध गयी तो सोचिये कैसा नजारा होगा संसद का. फिलहाल तो यह लेखक का ख्याल भर है. पर दुआ और प्रार्थना कीजिए कि राजनीति में आने की सोच जसोदाबेन के मन में कभी न आये और न ही किसी राजनीतिक दल को. क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो जो होगा वह न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास की अद्भुत घटना होगी जिसका इतिहास लिखने वालों को संदर्भ ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा..!

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

जरूरत है एक अच्छे से गांव की

भाइयो और बहनो! मैं इन दिनों बड़ा परेशान हूं. मेरी परेशानी का सबब जानने चाहेंगे? जानना चाहेंगे कि नहीं? तो सुनिये.. मैं  गांव गोद लेने के लिए परेशान हूं. यह मसला बच्चे को गोदी में लेने जैसा तो है नहीं. ऐसा रहता तो कोई बात ही नहीं थी. वोट मांगने के लिए मैं एक-एक दिन में 20-20 बच्चों को गोद में ले चुका हूं. मैं चाहता हूं कि आप सभी मेरी मदद करें. मुङो कोई ऐसा गांव सुझायें जो देखने में ठीकठाक हो, 24 घंटे बिजली रहती हो, स्कूल-कॉलेज हो, अस्पताल हो, सभी शिक्षित हों, पर कोई बेरोजगार न हो, कोई बूढ़ा न हो, बीमार न हो. गांव में बाढ़ न आती हो, सुखाड़ न पड़ता हो. जिसमें गोबर करने वाली गाएं-भैंसें, लेंड़ी फैलानेवाली भेड़-बकरियां न हों. कुत्ते-सुत्ते न हों. और वहां की सड़कें चकाचक हों, क्योंकि धूल से हमें एलर्जी हो जाती है.. और.. और.. और.. जिस गांव में भी यह सभी खूबियां मौजूद हों, मैं उसे गोद लेने को तैयार हूं. भाइयो-बहनो! बातों-बातों में टाइम बहुत हो चुका है, पर आपका प्यार-समर्पण और उत्साह देख कर मैं ‘मन की बातें’ आपसे करना चाहता हूं. जब से मुल्क में नयी सरकार आयी है, जिंदगी आसान होती जा रही है. जिधर देखो, उधर से ही एकाध अच्छी खबर आती दिख जाती है. हर काम बुलेट ट्रेन की गति से होने लगा है. मतदाता वोट डालने के लिए इंतजार करते रह जाते हैं और एग्जिट पोले वाले नतीजों का एलान कर देते हैं. प्याज 80-90 रुपये तक पहुंच कर, तीस-पैंतीस पर आकर टिक जाता है और सस्ता हो जाता है! और तो और, मुद्रास्फीति भी घट जाती है. अर्थव्यवस्था के गति पकड़ने का रहस्य न कोई पूछता है, न कोई बताता है. इसके बावजूद समूची दिनचर्या एकदम इवेंटफुल हो गई है. अब लोग अपनी तकदीर को भले कोस लें, कोई सरकार को नहीं कोस रहा. इसे कहते हैं अच्छे दिन. अच्छे दिन का उदाहरण इससे अच्छा और क्या होगा कि तूफान भी आता है, तो हुदहुद की तरह. जनता इसे ठीक से समझ पाये कि इससे पहले ही फुर्र हो जाता है. शिक्षक दिवस और गांधी जयंती जैसे दिखावटी दिन अब इतने बड़े उत्सव बन गये हैं कि पूछिए मत.
पहले साफ-सफाई बिना नहाये, पुराने कपड़े पहन कर करने की परंपरा थी, पर अब ‘स्वच्छता अभियान’ का असर देखिये कि लोग प्रेस कपड़े, पॉलिश जूते और विशेष प्रकार की खुशबू वाले परफ्यूम से महकते हुए झाड़ू देते टेलीविजन और अखबारों में साफ-साफ देखे जा रहे हैं. इसे कहते हैं अच्छे दिन. यह ‘स्वच्छता अभियान’ का ही असर है कि गांवों में लोग अब खुले में शौच नहीं करते, बल्कि खंडहर, पेड़-पौधों या झाड़-झंखाड़ की आड़ ढूंढ़ते रहते हैं. तो बहनो-भाइयो! आप अच्छे दिन का लुत्फ उठायें और मेरे लिए एक गांव ऐसा बतायें जिसे मैं गोद ले सकूं. मैं आपके सुझाव की प्रतीक्षा करूंगा. इतना धैर्य दिखाने के लिए आपका शुक्रिया. मेरे साथ बोलिए- भारत माता की जय!