शनिवार, 27 मई 2017

हल्दीपोखर का सच

सच का मुलम्मा चढ़ा देने से झूठ नहीं छिपता
थोड़ा फेरबदल करके 
आप उसके नंगापन को ढंक सकते हैं 
अमली जामा नहीं पहना सकते
क्योंकि झूठ नंगा होता है

जो हुआ नागाडीह और हल्दीपोखर में
मारे गये जो लोग
बच्चा चोर तो नहीं ही थे
किसने मारा
क्यों मारा
हो रही जांच
होती रहेगी 
फिलहाल तो
कई घरों की आंच ठंडी है

बूढ़ी मां की आंखों की आखिरी उम्मीद
श्मशानी राख में तब्दील हो गयी
बहन के सपने धुएं हो गये
बच्चों की निर्दोष आंखों ने 
देखें हैं जब से हैवानियत के मंजर
मासूमियत पत्थरा गयी है  
नवब्याहता की सूनी मांग
सच और झूठ के साबित हो जाने से भी
अब सिंदूरी नहीं होगी
अंखुआने से पहले ही 
ठूंठ हो चुका दांपत्य 
अब हरियाली का गीत नहीं गा पायेगा

हाथ जोड़कर जिंदगी की भीख मांगते युवक को देख
क्यों नहीं जगी मानवता
क्यों नहीं सुगबुगायी इंसानियत
बच्चा चोरी की अफवाह में 
हत्या सिर्फ युवकों की नहीं
मानवता की भी हुई है
फिर भी शर्मसार नहीं इंसान
हे भगवान!
हे भगवान!!

- अखिलेश्वर पांडेय

(झारखंड के नागाडीह और हल्दीपोखर में पिछले दिनों बच्चा चोर की अफवाह में छह युवकों की हत्या कर दी गयी) 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

जब तुम बोल रही थी

सुना मैंने तुम्हें
पर वैसे नहीं 
जैसे तुम कहना चाहती थी
कोशिश की मैंने बहुत
पर कम नहीं कर पाया अहम
आंखे झुका कर
नजरें गड़ा कर
सुनता रहा तुम्हें

तुम बोलती रही
मैं विचरता रहा
बिस्तर की उन सलवटों में
जो छोड़ आयी थी तुम
उस अंधेरे कमरे में
सहलाते हुए अपनी पीठ
मैं महसूस करता रहा
तुम्हारे नर्म हाथों की छूअन
बिखरे बालों को सहलाते हुए
सुना मैंने तुम्हे

तुम बोलती रही
मैं सोचता रहा
तुम्हारी हर हर्फ का
 कोई अलहदा मतलब
तुम्हारी सोच से परे
मैं था वहीं
तुम्हारे पास
जब तुम बोल रही थी
मैं सुन नहीं पाया वह
जो तुम कहना चाहती थी.

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

सच तो यही है!

मेरे दरवाजे की सांकल
मेरे पैरों की बिवाई
मेरे घिसे हुए चप्पल
मेरे अधूरे पड़े खत
मेरे कांपते हुए होठ
मेरी फटी हुई लिहाफ
सब मुझसे नफरत करते हैं
सच कहूं तो-
सिवाय तुम्हारे
कोई नहीं करता मुझसे प्रेम

मैं एक ठहरा हुआ समय हूं
अधूरे पड़े किसी मीनार की तरह
जिसे किसी शहंशाह ने
यूं ही छोड़ दिया
अपनी बेगम की याद में

तुम्हें बुरा तो नहीं लगा
मेरे बारे में जानकर
अगर हां तो-
माफ कर देना मुझे
क्योंकि सच तो यही है! 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

यह कैसा समय है!

अटालिकाओं की छाया ने
हमें बौना बना दिया है
मल्टीप्लेक्स ने छिन ली हमारी मासूमियत
हैरी पॉटर को उड़ान भरते देख
रोमांचित होते हैं हम
बच्चों को खेलने से रोकते हैं
मशीनों की शोर में
दब गयी है भाषा
बंजर हो गयी है
हमारी भावभूमि
अब उगते नहीं उसपर
सुविचार.

सोमवार, 9 जनवरी 2017

भाषा का नट

अखबारनवीस परेशान है-
अनर्गल के समुद्र में
गिर रही है वितर्क की नदियां
तलछट पर इधर-उधर
बिखरे पड़े हैं शब्द
प्रत्यय की टहनी पर बैठा है उल्लू
समास की शाख पर लटका है चमगादड़
कर्म की अवहेलना कर
बैठा है कुक्कुर
क्रिया वहीं खड़ी है चुचपाप
संज्ञा-सर्वनाम नंगे बदन
लेटे हैं रेत पर

हैरान है अखबारनवीस -
यह भाषा का कौन सा देश है
तभी अचानक
लोकप्रियता की रहस्यमयी धुन बजाते
अवतरित होता है
भाषा का नट
डुगडुगी बजाके
शुरू करता है तमाशा
सब दौड़े चले आते हैं
बनाके गोल घेरा
देख रहे अपलक
खेल रहा है भाषा का नट
उछाल रहा अक्षरों को
उपर-नीचे, दायें-बायें
तालियों से गूंज रहा चतुर्दिक
खुश है भाषा का नट.

बुधवार, 4 जनवरी 2017

नये साल का एक सुखद अहसास

नये साल पर मुझे कई बधाई संदेश मिले, मैंने भी कई लोगों को 'हैप्पी न्यू इयर' का मैसेज भेजा. स्मार्टफोन आने के बाद किसी भी खास अवसर पर शुभकामनाएं देना अब बड़ा ही सहज काम हो गया है. चिट्ठी पत्री, ग्रीटिंग्स कार्ड और तो और फोन कॉल करने से भी छुटकारा. एक ही मैसेज सबको फॉरवर्ड करो और काम खत्म. स्मार्टफोन युग से पहले इतने लोगों को शायद ही कभी शुभकामनाएं भेजे जाने का चलन रहा हो! टेक्नोलॉजी ने हमें औपचारिक तो बनाया पर हमसे हमारी असली वाली फिलिंग्स छिन ली. कोई चित्र, विडियो क्लीप, कोई साधारण सा मैसेज, कोई ऑडियो क्लीप जो अमूनन कहीं से आया होता है उसे ही हम फॉरवर्ड करके अपनी औपचारिकता पूरी कर लेते हैं पर कुछ सालों पहले तक ऐसा नहीं था. हम बाकायदा फोन कॉल करके शुभकामना देते थे, भले ही वह कुछ चुनिंदा लोग हों पर अब किसी को कॉल करके 'हैप्पी न्यू इयर' बोलना अजीब लगता है, उसे कैसे लगेगा? यह सोचने के बजाय हम खुद ही इसे एक निकृष्ट कार्य मान कर इससे मुक्ति पा लेते हैं.
सामान्यत: मैं भी इसी का आदी हो गया हूं. सुबह का इंतजार कौन करे, 31 दिसंबर की रात 12 बजे से ही सभी को मैसेज करना शुरू कर दिया (सूची लंबी जो थी). इस बीच कुछ नये लोगों के भी मैसेज आते रहे, उनको भी यथायोग्य जवाबी बधाई संदेश की प्रक्रिया चलती रही. शाम होते-होते मैं निश्चिंत हो चुका था कि चलो यह रस्म भी पूरी हो गई. तभी अचानक हरिवंश सर का फोन कॉल आया. हालांकि निजी तौर पर मेरे लिए यह खुश होने की बात थी पर मैं चौक गया. क्योंकि यह अनप्रीडेक्टिबल था. मेरे हेलो कहते ही दूसरी तरफ से 'हैप्पी न्यू इयर अखिलेश' सुनायी पड़ा. मैंने भी उन्हें नये वर्ष की बधाई दी फिर सामान्य शिष्टाचार के तहत दूसरी बातें भी हुईं, पर यह पहली दफा था जब मैं उनसे बातचीत करते हुए खुद को असहज महसूस कर रहा था. मैं ग्लानि महसूस कर रहा था. मुझे लग रहा था कि किसी ने मेरी चोरी पकड़ ली हो. मैं कोई अपराध करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया हूं!
इस बातचीत के कई घंटे हो चुके हैं पर अभी तक उनकी बातें मेरे कानों में गूंज रही है. 'खुश रहो! अच्छा लगा, तुमसे बात करके.' तब से यही सोच रहा हूं - काश! यह फोन उन्हें मैंने ही कर लिया होता. पर क्या मैं उतना ही सहज हो पाता, जितना वे थे?
पीढ़ियों का अंतर कई बार हमें कई महत्वपूर्ण कामों से पीछे धकेल देता है. हम यंत्रवत खड़े रह जाते हैं और वक्त आगे निकल चुका होता है. क्या यह सच नहीं कि मैसेजिंग में वह फिलिंग्स नहीं जो लाइव बातचीत में है. पर यह फिलिंग्स पीढियों में उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है. आज के बच्चे मम्मी-डैडी से भी फोन कॉल के बजाय वाट्सएप, एसएमएस पर ही सहज होते हैं. घर से दूर रहने वाले बच्चे सुबह एक मैसेज मम्मी-डैडी को करके दिनभर की छुट्टी पा जाते हैं, पर बड़े-बुजुर्गों का मन तो बिना आवाज सुने भरता नहीं है.
सलाम है उनकी इन आदतों को. शायद हम नयी पीढ़ी को उनकी इन आदतों ने ही बचाया हुआ है. तभी तो हम अपने अभिभावकों को फोन करें न करें उनके फोन आने पर खुशी जरूर महसूस करते हैं. कभी-कभी अफसोस और ग्लानि भी कि कॉल हमने क्यों नहीं किया? इतनी भी फिलिंग्स बची रहे तो, बची रहेंगी पीढ़ियां, बचे रहेंगे रिश्ते, प्रेम, समाज और हम.