शनिवार, 27 दिसंबर 2014

उत्सवधर्मिता को जीता है जमशेदपुर

यह शहर शानदार है. यहां के लोग अपनी विरासत और संस्कृति का सम्मान करते हैं और दूसरे के साथ इसे साझा करते हुए उसे भी अपने साथ शामिल कर लेते हैं. त्योहारों के केंद्र में कुछ लोगों के लिए भले ही धार्मिक मान्यताओं का महत्व होता हो पर एक बड़ा तबका ऐसा भी है, जो उत्सवधर्मिता को जीता है. दुर्गा पूजा से लेकर, ईद तक. दीवाली से लेकर गुरुपर्व तक. टुसू में भी यह शहर उतना ही शरीक होता है जितना रामनवमी और मुहर्रम के जुलूस में. लगता है यहां की नागरिकता उत्सवधर्मिता से बनी है.
  अभी जमशेदपुर क्रिसमस के जश्न में डूबा है. गली-मोहल्ले की छोटी-छोटी दुकानें भी क्रिसमस के गिफ्ट (चॉकलेट, सांताक्लाज, क्रिसमस ट्री आदि) से सजी हुई हैं. तरह-तरह की टोपियां बिक रही हैं. किराने की दुकान और जनरल स्टोर तक विभिन्न वेराइटी के केक से भरे पड़े हैं. कुछ गिने-चुने लोगों के लिए क्रि समस का मतलब भले ही सिर्फ सरकारी छुट्टी भर रह गया हो पर जमशेदपुर के व्यवहार में क्रि समस सिर्फ ईसाई धर्म के अनुयायियों का त्योहार नहीं है. छठ, होली और पोंगल की तरह क्रि समस भी सबका है. राजनीति में हर बात भले ही राज सत्ता से तय होती हो लेकिन जमशेदपुर के लोगों ने ‘गुड गवर्नेंस’ के साथ-साथ ‘गुड क्रि समस’ भी मनाया. विशेषकर बच्चों के उत्साह से क्रि समस भी अन्य त्योहारों की तरह हो गया है. गोलमुरी स्थित चर्च में प्रभु यीशु को चरनी में देखने वालों की कतार में ललाट पर चंदन लगाये पंडित जी भी हैं और गाढ़ा नारंगी रंग की पगड़ी बांधे अपने बच्चे का हाथ पकड़े सरदार जी भी. हर किसी की आंखों में वही चमक, वही कौतुहल. कोई भेदभाव नहीं, वही पवित्रता. यही दृश्य सभी गिरिजाघरों की है.
  उत्सव कोई भी हो, खाना-पीना जमशेदपुरवासियों की पहली पसंद होती है. बंगाली ब्रिगेड के लिए तो गोलगप्पा के बिना हर उत्सव अधूरा है. इडली-डोसा, चाट, पकौड़ी और नान वेज के शौकीनों की भी कमी नहीं है. जुबिली पार्क के गेट नंबर दो से निकलते ही स्ट्रीट फूड के कतारों की फेहरिश्त में उपरोक्त व्यंजनों के अलावा प्रॉन फिंगर, मोमो, चाउमिन, हॉट डॉग और लिट्टी-चोखा खाने के लिए यूथ ब्रिगेड की होड़ लगी है.  इस भीड़ में न तो कोई हिंदू समझ में आ रहा है, न ही मुसलिम और ईसाई. सब खूबसूरत और संतुष्ट लग रहे हैं. हर कोई खुश है. इस खुशी के केंद्र में क्रिसमस है. ऐसा क्रिसमस जो प्रेम और सौहार्द लेकर आया है. बनावटी नहीं सच्च. थोड़े ही दिन में नया साल भी आने वाला है. जुबिली पार्क में पिकनिक, मिलना-जुलना चलता रहेगा.. इस साल से अगले साल तक. सच्चे मन से सालों-साल तक. प्रार्थना है कि हमारा जमशेदपुर सदैव ऐसा ही बना रहे. कोई ‘परिवर्तन’ न हो. हर उत्सव में, हर त्योहार में, हर व्यवहार में. हर साल में-हर हाल में. 

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

कोलकाता की रात और टैक्सी ड्राइवर

रात के 11 बज रहे थे. कोलकाता के नेताजी सुभाषचंद्र बोस हवाई अड्डे से मुङो हावड़ा रेलवे स्टेशन आना था. आदतन सस्ती सुविधा ढूंढ़ रहा था. पुलिसवाले ने बताया- रात नौ बजे के बाद यहां बसों की एंट्री बंद हो जाती है. आपको टैक्सी लेनी पड़ेगी. एक टैक्सी वाले को बुलाया तो तीन आ गये. कोई 800 रुपये मांग रहा था, तो कोई 700. तीसरे ने कहा- दादा! 600 से कम में कोई नहीं जायेगा. तभी एक शख्स मेरे पास आया और धीरे से बोला- बाबू! प्रीपेड टैक्सी क्यों नहीं ले लेते? उसने काउंटर की तरफ इशारा किया और मैं चल पड़ा. 310 रुपये की परची ली और टैक्सियों की कतार के पास आकर खड़ा हो गया. एक टैक्सी आकर मेरे पास रुकी. मैं चुपचाप बैठ गया. कुछ मिनट बाद मैंने टैक्सी ड्राइवर को गौर से देखा. यह वही शख्स था जिसने मुङो प्रीपेड टैक्सी लेने की बिन मांगी सलाह दी थी. आज के जमाने में भी ऐसे मददगार हैं! मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस टैक्सी ड्राइवर से क्या बोलूं. क्या ‘थैंक्स’ कहना ठीक रहेगा. आखिरकार निस्तब्धता को तोड़ने में उसी ने मदद की- ‘‘जानते हैं साहब! बंगाल अब बाहर के लोगों के लिए ठीक नहीं रहा. दीदी ने बंगाल के लोगों के साथ विश्वासघात किया है. कई दशकों के सीपीएम शासन से ऊबी हुई बंगाल की जनता ने दीदी की सरकार बनवायी. इस उम्मीद में कि कुछ नया होगा, अच्छा होगा. यहां रहनेवाले बाहर के लोग भी ऐसा ही सोचते थे. पर सभी की उम्मीदें धराशायी हो गयीं. मंत्री-विधायक सब के सब चोर निकले. अब तो अब मोदी से ही उम्मीद है. 2016 में दीदी का जेल जाना तय है. जैसी करनी-वैसी भरनी.’’ टैक्सी ड्राइवर बोले ही जा रहा था. अनवरत.. आखिर वह किसी और मुद्दे पर भी बात कर सकता था. या चुपचाप म्यूजिक ऑन कर देता या मेरे बारे में भी पूछ सकता था या.. बहरहाल, जो भी था.. मुङो उसकी बातें अच्छी लग रही थीं. इसलिए नहीं कि मेरी राजनीति में गहन अभिरुचि है. इसलिए, क्योंकि मेरी उसमें रुचि बढ़ती जा रही थी. मैं उसके बारे में जानना चाहता था. क्यूंकि उसने मेरी मदद की थी. मैं मोबाइल में उसकी बातें रिकॉर्ड करता जा रहा था. अपनी बात बीच में ही रोकते हुए उसने पूछा- आप मेरी बातों से बोर तो नहीं हो रहे? मेरे जवाब देने से पहले ही उसने टैक्सी रोक दी. मैं चौंका- क्या हुआ? गाड़ी क्यों रोक दी? बोला - स्टेशन आ गया, उतरना नहीं है? मैं उसके बारे में सोचते हुए थोड़ी देर के लिए भूल गया था कि मैं हवाई अड्डे से रेलवे स्टेशन के लिए चला था. पूछने पर बताया कि उसका नाम राजेश यादव है, वह गिरिडीह (झारखंड) का रहनेवाला है. गांव पर पत्नी दो बच्चों के साथ रहती है. बच्चे पढ़ाई करते हैं. मैं टैक्सी से बाहर आ चुका था. बरबस ही मुंह से निकल पड़ा- थैंक्यू राजेश. मुस्कराते हुए उसने गाड़ी आगे बढ़ा ली. 

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

प्रधानमंत्री जी! सिर्फ सुनायें नहीं, सुनें भी

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
मैं इस देश का एक अदना सा शख्स होने ही हैसियत से कुछ कहना चाहता हूं. पुराने प्रधानमंत्री ‘बोलते’ नहीं थे और आप ‘सुनते’ नहीं हैं. आप स्वच्छता अभियान के साथ-साथ नसीहत अभियान भी चला रहे हैं, पर क्या यह सब केवल मीडिया के लिए है? कुछ संदेश अपने सहयोगी मंत्रियों को भी दीजिए. आप सफाई कर रहे हैं और मंत्री जी गंदगी, वह भी जबान से. अब आप ही बताइए मीडिया मक्खी का काम करे या मधुमक्खी का? आप सवा सौ करोड़ भारतीयों की बातें करते हैं और आपकी सहयोगी साध्वी निरंजन ज्योति सबको राम की संतान बताती हैं. कभी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने वाले गिरिराज बाबू की फिर जुबान फिसल गयी. विरोधियों को राक्षस बताने लगे. आप ही बताइए, जो जुबान साध्वी निरंजन और गिरिराज सिंह जैसे आपके मंत्री बोल रहे हैं, उसमें शहद है या जहर? इस चुनावी मौसम में लोकतंत्र जुबानी जहर से बीमार होता जा रहा है. अच्छे दिन आये कि नहीं, इस पर तो विशेषज्ञ विमर्श कर ही रहे हैं. मुझ जैसा अदना सा शख्स जब यह जानने की कोशिश करता है कि नयी सरकार में क्या और कितना कुछ बदला है तो कहीं भी उम्मीद की रोशनी नजर नहीं आती. संसद से सड़क तक कहीं भी कुछ बदला हुआ नजर नहीं आता..फिर कैसे कह दें कि ‘बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं.’ बात चाहे काला धन वापस लाने के मुद्दे की हो या संसद की कार्यवाही सुचारु ढंग से चलाने की, जो तर्क हमेशा मनमोहन सरकार दिया करती थी हू-ब-हू वही तर्क आपकी सरकार दे रही है. संसद में जैसे हंगामे पिछली सरकार के जमाने में हुआ करते थे वही अब इस सरकार के जमाने में हो रहे हैं. कुछ नहीं बदला. सिर्फ चेहरे और मोहरे बदल गए. जो पहले मोहरे थे वे अब चेहरे बन गए और चेहरे अब मोहरे बन कर उसी जुबान में बोल रहे हैं. इस सारे तमाशे में इस मुल्क के मुझ जैसे करोड़ों लोग उस घड़ी का इंतजार कर रहे हैं कि कब हमारे खाते में 15 लाख जमा होंगे और कब हम अपने मन की वो सारी हसरत पूरी करेंगे जो बचपन से दिल में दबाए बैठे हैं. लेकिन हम जानते हैं कि ‘काले’ चोर कभी पकड़ में नहीं आ सकते. क्योंकि ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ होते हैं. यह बात जितना चोरों को पता है उतना ही आपको-हमको और सबको. प्रधानमंत्री जी! आपसे गुजारिश सिर्फ इतनी सी है कि आप सुना भी करो. कभी-कभी तो लगता है आप अभी भी खुद को श्रेष्ठ वक्ता के रू प में ही स्थापित करने में लगे हो. आपको याद दिला दूं कि आप इस देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री हो. इसलिए आप सुनो भी. सुनो उस जनता की जिसने आपको प्रधानमंत्री बनाया, उस संसद की जिसके दरवाजे पर आपने पहले दिन माथा टेका था. सुनने से सब समझ में आ जायेगा. धन्यवाद.
-  देश का एक अदना सा शख्स

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

जरा सोचो, कभी ऐसा हो तो क्या हो?

अरसे बाद एक ऐसी सनसनाती खबर (सनसनी नहीं) आयी है जो मोदी विरोधियों के धधकते सीने को ठंडक पहुंचा सकती है. खबर भी ऐसी जिसके न सिर्फ गहरे निहितार्थ हैं, बल्कि दूरगामी राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं. गुजरात के मेहसाणा में अपने भाई के साथ रह रहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी जशोदाबेन ने एक आरटीआइ दाखिल कर उन्हें मिलने वाली सुविधाओं और सिक्योरिटी कवर की जानकारी मांगी है. उन्होंने पूछा है, ‘‘मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी हूं. मैं यह जानकारी चाहती हूं कि प्रोटोकॉल के तहत मुङो दूसरी और क्या सुविधाएं और सुरक्षा कवर मिल सकता है?’’ अपने आवेदन में जशोदाबेन ने शिकायत करते हुए लिखा है, ‘‘मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करती हूं, जबकि मेरे सिक्योरिटी ऑफिसर निजी वाहन से जाते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी. मुङो इस समय अपने सिक्योरिटी कवर को लेकर भय महसूस होता है. इसलिए मुङो मेरी सिक्योरिटी में लगे सुरक्षाकर्मियों की पूरी जानकारी मुहैया करायी जाये.’’
यह सभी जानते हैं कि नरेंद्र मोदी ने कभी भी अपने सार्वजनिक जीवन में जसोदाबेन को अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दिया. वे कभी उनके बारे में कुछ भी नहीं बोलते. मोदी की यह चुप्पी उनके मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने के बाद तक कायम है. हां, पिछले लोकसभा चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वियों ने अवश्य इसे मुद्दा बनाया, पर इससे उनका ‘उल्लू सीधा न हो सका.’ मोदी इस मुद्दे को लेकर कभी विचलित नहीं हुए. हां, गाहे-बगाहे जसोदाबेन खुद ही इस मुद्दे पर अवश्य बोलती रही हैं. पर इस बार मामला काफी गंभीर लग रहा है. इस मामले को ऐसे भी देखा जाना चाहिए कि जसोदाबेन आखिर अपनी सुरक्षा को लेकर अचानक क्यों चिंतित हो गयीं? इसके पीछे उनकी क्या सोच है? क्या जसोदाबेन ने ऐसा पहली बार सोचा है? हालांकि बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि सोच कभी भी आ सकती है. इस पर किसी का वश नहीं होता.
अब अगर बड़े-बुजुर्गो की कही इस बात को सच मानें (हालांकि सच नहीं मानने की न तो कोई वजह है और न ही मिजाज) तो एक और ‘सोच’ इस सोच की दिशा बदल सकती है. खुदा न खास्ता कहीं किसी राजनीतिक दल को (भाजपा तो ऐसा नहीं ही करेगी) जसोदबेन को राज्यसभा के टिकट पर संसद में भेजने जैसी ‘सोच’ कौंध गयी तो सोचिये कैसा नजारा होगा संसद का. फिलहाल तो यह लेखक का ख्याल भर है. पर दुआ और प्रार्थना कीजिए कि राजनीति में आने की सोच जसोदाबेन के मन में कभी न आये और न ही किसी राजनीतिक दल को. क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो जो होगा वह न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास की अद्भुत घटना होगी जिसका इतिहास लिखने वालों को संदर्भ ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा..!

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

जरूरत है एक अच्छे से गांव की

भाइयो और बहनो! मैं इन दिनों बड़ा परेशान हूं. मेरी परेशानी का सबब जानने चाहेंगे? जानना चाहेंगे कि नहीं? तो सुनिये.. मैं  गांव गोद लेने के लिए परेशान हूं. यह मसला बच्चे को गोदी में लेने जैसा तो है नहीं. ऐसा रहता तो कोई बात ही नहीं थी. वोट मांगने के लिए मैं एक-एक दिन में 20-20 बच्चों को गोद में ले चुका हूं. मैं चाहता हूं कि आप सभी मेरी मदद करें. मुङो कोई ऐसा गांव सुझायें जो देखने में ठीकठाक हो, 24 घंटे बिजली रहती हो, स्कूल-कॉलेज हो, अस्पताल हो, सभी शिक्षित हों, पर कोई बेरोजगार न हो, कोई बूढ़ा न हो, बीमार न हो. गांव में बाढ़ न आती हो, सुखाड़ न पड़ता हो. जिसमें गोबर करने वाली गाएं-भैंसें, लेंड़ी फैलानेवाली भेड़-बकरियां न हों. कुत्ते-सुत्ते न हों. और वहां की सड़कें चकाचक हों, क्योंकि धूल से हमें एलर्जी हो जाती है.. और.. और.. और.. जिस गांव में भी यह सभी खूबियां मौजूद हों, मैं उसे गोद लेने को तैयार हूं. भाइयो-बहनो! बातों-बातों में टाइम बहुत हो चुका है, पर आपका प्यार-समर्पण और उत्साह देख कर मैं ‘मन की बातें’ आपसे करना चाहता हूं. जब से मुल्क में नयी सरकार आयी है, जिंदगी आसान होती जा रही है. जिधर देखो, उधर से ही एकाध अच्छी खबर आती दिख जाती है. हर काम बुलेट ट्रेन की गति से होने लगा है. मतदाता वोट डालने के लिए इंतजार करते रह जाते हैं और एग्जिट पोले वाले नतीजों का एलान कर देते हैं. प्याज 80-90 रुपये तक पहुंच कर, तीस-पैंतीस पर आकर टिक जाता है और सस्ता हो जाता है! और तो और, मुद्रास्फीति भी घट जाती है. अर्थव्यवस्था के गति पकड़ने का रहस्य न कोई पूछता है, न कोई बताता है. इसके बावजूद समूची दिनचर्या एकदम इवेंटफुल हो गई है. अब लोग अपनी तकदीर को भले कोस लें, कोई सरकार को नहीं कोस रहा. इसे कहते हैं अच्छे दिन. अच्छे दिन का उदाहरण इससे अच्छा और क्या होगा कि तूफान भी आता है, तो हुदहुद की तरह. जनता इसे ठीक से समझ पाये कि इससे पहले ही फुर्र हो जाता है. शिक्षक दिवस और गांधी जयंती जैसे दिखावटी दिन अब इतने बड़े उत्सव बन गये हैं कि पूछिए मत.
पहले साफ-सफाई बिना नहाये, पुराने कपड़े पहन कर करने की परंपरा थी, पर अब ‘स्वच्छता अभियान’ का असर देखिये कि लोग प्रेस कपड़े, पॉलिश जूते और विशेष प्रकार की खुशबू वाले परफ्यूम से महकते हुए झाड़ू देते टेलीविजन और अखबारों में साफ-साफ देखे जा रहे हैं. इसे कहते हैं अच्छे दिन. यह ‘स्वच्छता अभियान’ का ही असर है कि गांवों में लोग अब खुले में शौच नहीं करते, बल्कि खंडहर, पेड़-पौधों या झाड़-झंखाड़ की आड़ ढूंढ़ते रहते हैं. तो बहनो-भाइयो! आप अच्छे दिन का लुत्फ उठायें और मेरे लिए एक गांव ऐसा बतायें जिसे मैं गोद ले सकूं. मैं आपके सुझाव की प्रतीक्षा करूंगा. इतना धैर्य दिखाने के लिए आपका शुक्रिया. मेरे साथ बोलिए- भारत माता की जय! 

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

सोशल मीडिया के तीर घाव करें गंभीर

उस दिन श्रीमती जी ने चाय का कप सामने रखते हुए पूछा- ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे जग गये? कहीं जाना है क्या?’’ मैंने कहा- ‘‘जरा टीवी ऑन करो. महाराष्ट्र-हरियाणा का चुनाव परिणाम देखना है.’’ वह बोलीं- ‘‘पावर कट है.’’ इतना सुनते ही मुङो चाय कड़वी लगने लगी. हालांकि आधा कप पी चुका था. मैंने चाय छोड़ दी और सोने चला गया. काफी देर हो गयी, पर नींद नहीं आयी. श्रीमती जी ने मोबाइल पकड़ाते हुए कहा- ‘‘इतना अपसेट होने की जरू रत नहीं है. फेसबुक-व्हाट्सऐप आदि पर सारे अपडेट पड़े हैं.’’
मोबाइल ऑन करते ही व्हाट्सऐप पर पहला मैसेज दिखा- ‘‘हरियाणा-महाराष्ट्र के नतीजे आते ही राहुल गांधी विशाखापत्तनम में तूफान को महसूस करने की कोशिश कर रहे हैं, जीजा जी पूछ रहे हैं जमीन के रेट कितने गिरे और बहन कहीं खादी की साड़ी खरीदने के लिए मां के साथ निकल चुकी हैं.’’ और फिर दूसरा मैसेज- ‘‘राहुल गांधी महात्मा गांधी के सपने को पूरा कर रहे हैं. गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद अब कांग्रेस को नहीं होना चाहिए इसकी भूमिका खत्म.’’ फिर तीसरा- ‘‘देश के स्वच्छता अभियान में सबसे ज्यादा योगदान राहुल बाबा का ही है, क्यों है कि नहीं..?’’ अब तक यह बात साफ हो चुकी थी कि निश्चित ही कांग्रेस का बेड़ा गर्क हो चुका है. पर यह जानना बाकी था कि असल रुझान क्या है. किसको कितनी सीटें मिली या मिल रही है.  मैंने तुरंत फेसबुक का रुख किया. वहां भी एक से एक कमेंट-
‘‘बीजेपी की जीत के बाद सेंसेक्स आज 400 अंक उछल गया. अब इसकी धर्मनिरपेक्षता पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं.’’
‘‘राज ठाकरे का उस वक्त हाथ उठ गया जब कोई रिपोर्टर उनसे ये पूछ बैठा कि सर आपके विधायकों की बैठक कब है? ’’
‘‘उजड़ा हुआ गुलशन और रोता हुआ माली... यानी कांग्रेस का अब क्या होगा?’’
‘‘सस्ते पटाखे चाहिए तो कृपया कांग्रेस कार्यालय में संपर्क करें. (मई माह की बिलकुल बंद पैकिंग मिलेगी.)’’
‘‘नौ साल पहले जब नारायण राणो ने शिवसेना छोड़ कर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते तो बाल ठाकरे बहुत दुखी हुए थे. शिवसेना के नेता अरविंद भोंसले ने कसम खायी थी कि जब तक नारायण राणो अपनी सीट से हार नहीं जाते, वे चप्पल नहीं पहनेंगे. और नौ साल तक वे खाली पैर ही घूमते रहे. चुनाव परिणाम के बाद उन्हें 400 चप्पलें उपहार में मिली हैं.’’
एक संदेश तो बिल्कुल दार्शनिक अंदाज में था- ‘‘वह इतना कमजोर न होता, तो आप इतने मजबूत न होते.’’
अब मैं खुद को तरोताजा महसूस कर रहा था. बरबस ही मुंह से निकला- थैंक्स सोशल मीडिया!

सोमवार, 22 सितंबर 2014

नजर लागी राजा तोरे बंगले पर..

चाहे तो शर्त लगा लीजिए, यह सोलह आना बंगले पर ‘नजर लगी’ होने का ही मामला है. जी हां! हम यूपीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे चौधरी अजित सिंह के बंगले की बात कर रहे हैं. वैसे नजर लगाने वालों का भी कसूर नहीं है. चौधरी साहब का बंगला है ही इतना ‘खास’ कि किसी की भी नजर लग जाए! वैसे तो लुटियन की दिल्ली में न जाने कितने बंगले हैं. सांसदों का बंगला, मंत्रियों का बंगला, अधिकारियों का बंगला, और तो और कई कर्मचारियों का बंगला भी. पर, हरेक बंगला इतना ‘टिकाऊ’ नहीं होता. यह मामूली बात नहीं है कि सरकार किसी भी पार्टी की रहे, मगर बंगले और मंत्रलय में बंदे का टिकाऊपन बरकरार रहे. पर इस लोकसभा चुनाव में गोटी सेट हो नहीं पायी. नतीजा यह हुआ कि चौधरी साहब के सरकारी बंगले पर किसी की नजर लग गयी. पहले तो बंगला खाली करने का नोटिस मिला. आनाकानी की तो प्रशासन ने बिजली-पानी काट दी. हालांकि ऐसा सिर्फ उनके साथ ही नहीं हुआ. अजित सिंह समेत जिन 30 पूर्व सांसदों के सरकारी घरों के बिजली-पानी के कनेक्शन काटे गये उनमें जीतेंद्र सिंह,  मोहम्मद अजहरुद्दीन, बृजेंद्र सिंगला, पीसी चाको, अवतार सिंह भडाना, बीएल मरांडी और अर्जुन रॉय जैसे नाम शामिल हैं. अब चौधरी साहब बिना बिजली के तो रह नहीं सकते, इसीलिए किसानों के नेता ने बंगले को रोशन और ठंडा रखने के लिए एक जनरेटर किराये पर ले लिया. जेनरेटर का रोज का किराया था 4000 रुपये और डीजल खर्च 200 लीटर प्रतिदिन. आखिर ऐसा कब तक चलता. सो, दुखी मन से आखिरकार अजित सिंह ने सरकारी बंगले को खाली करना ही बेहतर समझा. जबरन बंगला खाली कराने की बात जाट समुदाय को नागवार गुजरी और इसका पूरजोर विरोध हुआ. अपनी बात दिल्ली तक पहुंचाने के लिए उन्होंने गाजियाबाद के मुरादनगर में पानी के रेगुलेटर पर कब्जा कर लिया. गंग नहर से जुड़े इसी रेगुलेटर से दिल्ली को पानी की सप्लाई की जाती है. अब चौधरी अजित सिंह इस सरकारी बंगले को हाथ से निकलते देख इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग कर रहे हैं. यह बंगला 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को आवंटित हुआ था. चौधरी अजित सिंह उन्हीं के पुत्र हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले के जाट परिवार में 1902 में जन्म लेने वाले चौधरी चरण सिंह देश के चौथे प्रधानमंत्री थे, लेकिन वह इस पद पर महज पांच महीने और 17 दिन ही रह सके. दुर्भाग्य की बात यह है कि वह अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने एक दिन भी लोकसभा का सामना नहीं किया. आज चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत उनके परिवार (पुत्र अजित सिंह और पौत्र जयंत चौधरी) तक सिमट कर रह गयी है.  इस लोकसभा चुनाव में तो उनकी पार्टी रालोद का खाता तक नहीं खुला और खुद पिता-पुत्र भी हार गये.

बुधवार, 6 अगस्त 2014

लड़कियों के प्रति मानसिकता बदलें

दोपहर का वक्त था. ‘महाभारत’ में द्रौपदी के चीरहरण का दृश्य चल रहा था. लाचार द्रौपदी सभी कुरु वंशियों को धिक्कारती है, पर कोई भी उसकी मदद करने के लिए आगे नहीं आता है. गांधारी भी आंखों पर पट्टी बांधे हुए चुप रह जाती है. जब द्रौपदी को इस बात का अहसास हो जाता है कि अब कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आने वाला है, तब वह कृष्ण को पुकारती है. मेरी दस वर्षीया बेटी ने अपनी दादी से पूछा ‘दादी, द्रौपदी कौरवों से अपनी सुरक्षा की भीख क्यों मांग रही है? वह खुद भी तो अपनी सुरक्षा कर सकती है?’ जवाब मिला - ‘पुरु षों का कर्तव्य स्त्रियों की सुरक्षा करना होता है और यह कार्य कौरव-पांडव नहीं कर पा रहे. इसलिए द्रौपदी भगवान कृष्ण से अपनी लाज बचाने के लिए प्रार्थना कर रही है.’ मुङो लगा मेरी बेटी अपनी दादी के जवाब से संतुष्ट नहीं है. ऐसा उसके चेहरे के भाव से लग रहा था. वह थोड़ी झुंझलायी-सी लगी. मुङो उसकी यह प्रतिक्रिया अच्छी लगी. नयी पीढ़ी को प्रतिक्रियावादी होना चाहिए. खासकर लड़कियों को.  पीढ़ियों का अंतर पहले भी था, अब भी है. पर हमारी नयी पीढ़ी खासकर लड़कियां खुद के बारे में और समाज के बारे में कितना कुछ और क्या सोच रही हैं, समाज इससे अनजान है. हमारा समाज तो आज भी लड़कियों को लेकर पुरानी ही सोच से पीड़ित है. आज की लड़कियां अपने कैरियर के बारे में सोचती हैं और समाज उनकी शादी के बारे में. समाज को जवान कुंवारी लड़की बरदाश्त नहीं, इसलिए वह सवाल करने से बाज नहीं आता. घोर आश्चर्य होता है आधुनिकता के आवरण में पुरानी मानसिकता से प्रभावित लोगों को देख कर. युवा लड़कियों के घरवालों को अक्सर अपने रिश्तेदारों के ताने सुनने को मिलते हैं ‘भइया कितना पढायेंगे! अब बस भी करिए. क्या कमाई खायेंगे बिटिया की? लड़का देखिए और हाथ पीले करिए. लड़की विदा तो समझो गंगा नहा लिये!’ ‘बिटिया सयानी हो गयी है, क्या बुढ़ापे तक घर में बैठा कर रखने का इरादा है!’  सच तो यह है कि पुरु ष समाज के प्रपंच से उपजी ‘कथित आजाद स्त्री’  मर्दवादी समाज के कठोर मानकों के हिसाब से अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर है. जिस लड़की को उसके मां-बाप पालते-पोसते हैं, बड़ा करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं आखिर उसकी शादी की चिंता पड़ोसियों, मुहल्ले वालों, रिश्तेदारों को क्यों होनी चाहिए? कोई यह सलाह क्यों नहीं देता कि आपकी बेटी बड़ी होशियार है, उसे डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट, प्रोफेसर या साइंटिस्ट बनाओ. या फिर ऐसा क्यों नहीं बोलता कि आपको अपनी बेटी को पढ़ाने में कोई दिक्कत तो नहीं हो रही? क्या मेरी यह उम्मीद बेमानी है कि मेरी बेटी की उम्र की पीढ़ी की लड़कियों को वह सब नहीं ङोलना पड़े जो आज की पीढ़ी की लड़कियों को सहना पड़ रहा है? तो भइया अब भी समय है.. बेटियों के प्रति बदल डालें घटिया मानसिकता.....

सोमवार, 14 जुलाई 2014

वो धारदार कलम कहां से लाऊं?

जब से देश का निजाम बदला है, राजनीति पर व्यंग्य लिखनेवालों के ‘बुरे दिन’ आ गये हैं. दिमाग पर थोड़ा जोर डालिए और फ्लैशबैक में जाइए.. यह बात ज्यादा पुरानी नहीं, महज छह महीने पहले की है. सोशल मीडिया हो या टेलीविजन, समाचार पत्र हो पत्रिका. जहां देखिए वहीं हर दूसरा शख्स राजनीति पर तंज कसता दिखता था. कई लोगों को तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देखते ही व्यंग्य सूझने लगता था. कई ऐसे भी थे जिन्होंने सोनिया और राहुल पर व्यंग्य लिख-लिख कर अपने को लेखन की दुनिया में दुर्दात व्यंग्यकार साबित कर दिया. यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवाणी भी व्यंग्यकारों के लिए कम प्रिय नहीं रहे. लेकिन जैसे ही पीएमओ में प्रधानमंत्री का नेम प्लेट बदला वैसे ही पता नहीं व्यंग्यकारों के कलम की स्याही सूख गयी या उनके हाथों में कंपकंपी होने लगी.. यह ठीक-ठीक कहना मुश्किल है. यह पता लगने में जरा वक्त लगेगा. यह मैं नहीं कह रहा, बल्कि यह बात हाल ही में हुए एक ‘सव्रे’ में सामने आयी है. जब से इस सव्रे की रिपोर्ट आयी है, मेरे अंदर का ‘व्यंग्यकार’ तिलमिला गया है. सव्रे में यह भी कहा गया है कि व्यंग्यकारों की कलम की धार कुंद हो गयी है. उनके लेखन का पैनापन खत्म हो गया है. इसी तिलमिलाहट में मैं यह सोचते-सोचते कि आगे करना क्या है, रास्ते से गुजर रहा था कि शहर के एक जाने-माने साहित्यकार मिल गये. मैंने शिष्टाचारवश उनका अभिवादन किया तो वे पूछ बैठे ‘क्यों जनाब! कुछ परेशान दिख रहे हैं.’ मैं उलझन में था ‘हां’ कहूं या ‘ना’. खैर मेरी उलझन दूर करते हुए साहित्यकार महोदय ने कहा, ‘बताओ भई क्या बात है?’ मैंने कहा ‘क्या सच में अब कोई राजनीति पर व्यंग्य नहीं लिख रहा?’ वे बोले ‘हां, हो सकता है. पर अगर ऐसा है भी तो क्या फर्क पड़ता है? राजनीति पर व्यंग्य लिख देने से किस समस्या का समाधान हो जायेगा? क्या व्यंग्य लिख कर देश में आसन्न सूखे के संकट को टाला जा सकता है या बेतहाशा बढ़ रही महंगाई पर काबू पाया जा सकता है?’ साहित्यकार महोदय की बातें सुन कर मुङो गुस्सा आ रहा था. मैंने झुंझला कर कहा, ‘मुङो कहीं जाना है, चलता हूं.’ इतना कह कर मैं वहां से चल पड़ा. पीछे से आवाज सुनायी पड़ी, ‘कहां जा रहे हो..?’ वहां से चला तो थोड़ी ही दूर पर स्टेशनरी की दुकानें दिखीं. मैं बरबस ही वहां पहुंच गया. दुकानदार ने पूछा, ‘क्या दूं साहब?’ मैंने कहा ‘क्या आपके पास कोई ऐसी कलम है जिसकी धार पैनी हो?’ झट से उसने कहा, ‘आपको कलम चाहिए या चाकू? हमारे यहां तरह-तरह की कलमें हैं, देसी-विदेशी, महंगी-सस्ती. मगर पैनी धार वाली कलम मांगनेवाले आप पहले ग्राहक हो.’ मैं दुकान से परे हट गया. पर मुङो उम्मीद है कि किसी न किसी दिन मेरे भी ‘अच्छे दिन’ आयेंगे और मैं राजनीति पर तीखा व्यंग्य जरूर लिखूंगा..बस मुङो सही कलम मिल जाये.

शनिवार, 28 जून 2014

यह जमूरे हैं या जम्हूरियत..?

अब बता रहा हूं पर बात पुरानी है. आप चाहें तो मेरी इस अज्ञानता पर हंस भी सकते हैं. दरअसल, मैं जमूरे और जम्हूरियत को समानार्थी शब्द समझता था. अच्छा हुआ मेरी इस अज्ञानता से परदा उठ गया. पर हाल के दिनों में एक बार फिर मुङो यह दोनों शब्द एक जैसे लगने लगे हैं. क्या करूं मुल्क की हालात ही कुछ ऐसी होती जा रही है. लोगबाग सोच रहे हैं क्या यह नयी सरकार है? क्या यह वही प्रधानमंत्री हैं जो पिछले वाले पीएम को कोसते हुए पानी भी नहीं पीते थे? क्या यह वही एनडीए है जो यूपीए गंठबंधन को सबसे निकम्मी सरकार बताती थी? अगर वाकई सबकुछ बदल गया है तो दिखता क्यों नहीं सिवाय कागज के. अगर आप भूले नहीं हो तो भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने चुनाव प्रचार के दौरान सिंह गजर्ना की थी ‘हमारे पास इस देश के हर मर्ज की दवा है-मोदीसीन.’ यूपीए से थकी-हारी इस देश की अवाम ने उनकी बात पर भरोसा किया. पर एक महीना बीतने के बाद आज मोदी सरकार के पास जनता से किये गये वादे पूरे करने के नाम पर बताने के लिए है क्या बाबाजी का ठुल्लू..! यही वजह है कि मुङो जैसे अज्ञानी देशवासियों को आज भी जमूरे और जम्हूरियत में अंतर समझ में नहीं आ रहा. लग तो यही रहा कि कोई मदारी तमाशा दिखा रहा है. जो बस छलावा है..आप चाहें तो इसे नजरबंद का खेल भी कह सकते हैं. यानी जो होता दिख रहा है वह हो नहीं रहा. दर्शक वही देख पा रहा जो मदारी दिखाना चाह रहा है. शो खत्म होने के बाद सब कुछ फिर से वैसा ही हो जायेगा जैसा पहले था. तो लीजिए जनाब..शो चालू आहे..
जमूरे तमाशा दिखायेगा..हां, उस्ताद.
तो बता इस देश की बेरोजगारी का इलाज क्या है..मोदीसीन उस्ताद.
इस देश से भ्रष्टाचार मिटाने की मशीन क्या है..मोदीसीन उस्ताद.
स्विस बैंक में जमा काला धन कैसे आयेगा..मोदीसीन उस्ताद.
महंगाई पर कैसे लगेगी लगाम..मोदीसीन उस्ताद.
बस कर..बच्चे की जान लेगा क्या?
सबकुछ आज ही बता देगा तो बाकी दिन की रोजी-रोटी कैसे चलेगी? चल जा सामने वाले बाबू लोगों से दस-दस रुपये का नोट लेकर आ. बच्चे लोग चलो बजाओ ताली..
‘तो भाइयों और बहनों! इस देश में अब हर मर्ज की बस एक ही दवा है मोदीसीन. क्या आप बेरोजगारी से परेशान हैं, क्या आप महंगाई के मारे हुए हैं,क्या आपकी जिंदगी में आज तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ..हां भई हां. तो मोदीसीन क्यों नहीं लेते. हर बीमारी का रामबाण. एक बार अवश्य अपनाएं.’ लोग चकित इस बात से भी हैं  कि आखिर इतनी प्रचारित दवा असर क्यों नहीं कर रही?  कहीं यह भी अब सरकारी तो नहीं हो गयी? क्योंकि इस देश में हर सरकारी चीज बेकार हो जाती है. इसलिए इससे लोगों का भरोसा उठ जाता है.

गुरुवार, 12 जून 2014

आइआइटी बेहतर या चाय बेचना?

बीते आम चुनाव ने सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका निभायी है. कांग्रेस की करारी हार और भाजपा की चौतरफा जीत ने लोगों के सोचने का तौर-तरीका बदल दिया है. कुछ बदले या न बदले नयी पीढ़ी की सोच जरूर बदल गयी है. हालिया परिदृश्य में लोगबाग कन्फ्यूज्ड हैं कि वे अपने बच्चों को आइआइटी में दाखिला दिला कर अरविंद केजरीवाल बनायें या चाय की दुकान में काम करा कर नरेंद्र मोदी. और तो और, अब बच्चे अपनी मां-बहन की बात भी सुनने को तैयार नहीं, कहते हैं- ‘मुङो राहुल गांधी नहीं बनना.’ सुनने में आया है कि अर्थशास्त्र पढ़नेवालों की तदाद भी घटने लगी है. जब एक पिता ने अपने बेटे से कहा कि ‘तुम अर्थशास्त्र क्यों नहीं पढ़ते?’ तो छात्र ने टका सा जवाब दिया- ‘यह सब्जेक्ट अब किसी काम का नहीं रहा. एक वक्त था जब देश के नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को केंद्रीय कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाया जाता था. अब तो इसकी जरूरत ही नहीं रही.’ बीच में जब पिता ने टोका, ‘क्यों, डॉ मनमोहन सिंह इतने बड़े अर्थशास्त्री थे तो प्रधानमंत्री  बने कि नहीं?’ बेटा बीच में ही बोल पड़ा, ‘पापा! क्या आप नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कम बोलने की अपनी योग्यता के कारण प्रधानमंत्री बनाये गये?’ हां, वकालत के पेशे को अब प्रतिष्ठा की नजर से अवश्य देखा जाने लगा है. बात भी सही है- जिस पेशे ने देश को रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, कानून मंत्री, दूरसंचार मंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन मंत्री वगैरह दिये हों, उसे तो इतनी प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए. इस बात को वर्तमान सरकार से लेकर पिछली सरकार तक में देखा जा सकता है. वकालत पेशे का एक अहम पहलू यह भी है कि किसी भी सरकार में यह आपको मंत्री तो बनाता ही है, खुदा न खास्ता कहीं अगले चुनाव में आपकी पार्टी की सरकार नहीं बनी या आप हार गये या मान लो आपको मंत्री नहीं बनाया गया, तो बेफिक्र होकर फिर से अदालतों में प्रैक्टिस शुरू कर दो. अभिभावकों का यह भी मानना है कि एक बात का खतरा भविष्य में अवश्य मंडरा सकता है. खतरा यह कि नयी पीढ़ी कहीं यह न सोचने लगे कि ज्यादा लिख-पढ़ कर क्या फायदा, जब हमारी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ही सिर्फ इंटर पास हैं. डर यह भी है कि लड़कियां कहीं पढ़ने से ज्यादा टीवी सीरियल, एक्टिंग या मॉडलिंग में रुचि न प्रदर्शित करने लगें. नयी पीढ़ी के एक बड़े वर्ग को यह भी लगने लगा है कि आज जमाना योग्यता का नहीं, किसी का विश्वासपात्र होने का है. अगर आप किसी के विश्वासपात्र हैं तो किसी और योग्यता की आवश्यकता शायद न हो. यानी, मुरली मनोहर जोशी होने से अच्छा है स्मृति इरानी होना! यह एक खतरनाक वक्त है, यह संक्रमणकाल भी है. यह दौर है खुद को खो देने और किसी को जीत लेने का. जो इस दौर को समझ जायेगा, इसे आत्मसात कर लेगा. सिकंदर वही कहलायेगा. आप क्या सोचते हैं..?

सोमवार, 9 जून 2014

अगर मैं कवि नहीं होता तो ट्रेन चला रहा होता : अरुण कमल


अरुण कमल की गणना आधुनिक कवियों की पहली पंक्ति में की जाती है. उनकी कविताओं में नए बिंब, बोलचाल की भाषा, खड़ी बोली के अनेक लय-छंदों का समावेश है. इनकी कविता में वर्तमान शोषण मूलक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश, नफरत और उसे उलट कर एक नई मानवीय व्यवस्था का निर्माण करने की आकुलता सर्वत्र दिखाई देती है. इन्हें कविताओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से नवाजा चुका है. एक साहित्यिक आयोजन में शिरकत करने जमशेदपुर (झारखंड) आये हिंदी के इस ख्यातिलब्ध कवि से बात की अखिलेश्वर पांडेय ने. पेश हैं इस इंटरव्यू के मुख्य अंश.


अरुण कमल (जन्म :1954 रोहतास, बिहार)  
प्रमुख कृतियां हैं : अपनी केवल धार, सबूत नए इलाके में, पुतली में संसार तथा कविता और समय. 
पुरस्कार-सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1980), सोवियत भूमि पुरस्कार (1989), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1990), रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1996), शमशेर सम्मान (1997) एवं कविता संग्रह ‘नए इलाके में’ के लिए (1998) साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित.

खुद के अभी तक के रचनाकर्म से संतुष्ट हैं? 
नहीं, कतई संतुष्ट नहीं हूं, क्योंकि संतोष हो जाएगा तो लिखना बंद हो जायेगा. मुङो हमेशा लगता है कि कविता बिल्कुल वैसी होनी चाहिए जैसे कबीर और तुलसीदास की कविता हैं, जिनकी पंक्तियां गांव-गांव, शहर-शहर में लोगों की जुबान पर हैं. जो लोगों के सुख-दुख की सहचर हो. अभी तक मैंने ऐसा नहीं लिखा है.

आप कवि नहीं होते तो क्या होते?
रघुवीर सहाय की एक कविता है-मैं तोता होता तो क्या होता. वैसे ही अगर मैं कवि नहीं होता तो तोता होता. हो सकता है कि मैं कोई बड़ा स्मगलर होता. कोई मंत्री या प्रधानमंत्री भी हो सकता था. जब हम कोई एक निर्णय लेते हैं तो फिर उसी पर अडिग रहना पड़ता है/रहना चाहिए. एक साथ बहुत काम नहीं कर सकते. जैसे मैं कविता लिखता हूं तो यह तो नहीं हो सकता कि मैं किसी दूसरे देश की खुफियागीरी करूं, हत्यारों के साथ पार्टियों में जाऊं. भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का शागिर्द बन जाऊं. जब आप सड़क पर चल पड़ते हैं तो आपका ध्यान सिर्फ पेड़-पौधों पर होता है, वही आपके सहचर होते हैं. वैसे तो मैं पेशे से शिक्षक हूं, पर मेरी दिली ख्वाहिश रही है कि काश मैं रेलगाड़ी चला पाता. तो मुङो यह लगता है कि अगर मैं कवि नहीं होता तो मैं रेलगाड़ी का ड्राइवर होता. दरअसल, मुङो बचपन से ही ट्रेन को देखकर बड़ा कौतूहल होता था. मैं सोचता था कि आखिर कोई इतनी बड़ी ट्रेन को कैसे चला पाता है?

क्या कवि कोई विशिष्ट प्राणी है?
कवि का काम है कविता लिखना. कविता लिखने के लिए उसे तमाम तरह के यत्न  करने पड़ते हैं. उसे अपने तरह की जिंदगी जीनी पड़ती है. अगर वह हमेशा सजा-संवरा, माला-दुशाला में रहेगा तो उसका अजीब तरह का स्वांग होगा. कवि के लिए सबसे अच्छा तो यही होता है कि उसे कोई न जाने कि वह कवि है, लोग उसकी कविताओं को जानें, यही कवि की विशिष्टता है. मेरी एक पंक्ति है- सितारा बनने से अच्छा है, गंदी गली का लैंपपोस्ट बनो.

इसी साल आपने जिंदगी का 60वां पड़ाव पार किया है? कुछ स्पेशल लग रहा है?
हां, इसका एक रोचक वाकया है. जिस दिन मैंने 60 साल पूरे किये, उसी दिन मैं रेलवे स्टेशन गया और वरिष्ठ नागरिक वाला एक रियायती टिकट खरीदा. हालांकि मुङो कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैंने रियायती टिकट खरीदा और फिर दूसरे दिन जाकर वापस कर आया. थोड़े दिन रियायती टिकट लेकर बनारस गया और अब जमशेदपुर आया हूं. मुङो अच्छा लगा कि चलो उम्र बढ़ने का यह फायदा तो हुआ. मैं इस बात का हिमायती नहीं हूं कि उम्र बढ़ने से कोई विशिष्ट या बड़ा हो जाता है. इंसान बड़ा होता है अपने कर्म से, अपने गुण से. जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु इतनी कम उम्र में गुजर गये, लेकिन लोग उनकी रचनाओं को याद करते हैं. अंग्रेजी में शेली, किट्स और फ्रांस में रैम्बो. रैम्बो की तो सारी बेहतर कविताएं 20-21 की उम्र तक आ चुकी थीं. मेरा मानना है कि उम्र का न तो विशिष्टता से संबंध है और न ही गुणवत्ता से.

अब आगे क्या प्लानिंग है, कोई इच्छा?
मेरी बहुत इच्छा है कि मैं कैलाश-मानसरोवर देखूं, माउंट एवरेस्ट जाऊं, लेकिन मुङो पता है कि मैं अब यह नहीं कर सकता. लेकिन मेरी यह इच्छा अवश्य है कि मैं दुनिया का वह श्रेष्ठ साहित्य अवश्य पढूं जो अब तक नहीं पढ़ पाया या ठीक से नहीं पढ़ पाया. जैसे-महाभारत, रामचरित मानस, कालीदास, भवभूति आदि को ध्यान से पढ़ने की प्रबल इच्छा है. शेक्सपीयर भी मेरे प्रिय रचनाकार हैं, उन्हें भी और पढ़ना चाहता हूं. हां, एक बात और है - मैं ऐसी जगह रहना चाहता हूं जहां सामने नदी और पीछे पहाड़ हो, आसपास पेड़ हों. लेकिन यह ऐसी इच्छा है जो पूरी होनी मुश्किल है. मैं घाटशिला भी इसीलिए जाना चाहता हूं-जहां विभूति भूषण बंदोपध्याय रहते थे.

नये रचनाकारों के लिए कोई संदेश?
कभी भी सत्ता के पीछे न जाएं. रोजी-रोटी के लिए ज्यादा चिंतित न हों. हमारे पुरखे जो कहते थे वही बात मैं भी दोहराऊंगा कि जब भगवान ने मुंह चीर दिया है तो आहार भी मिल जायेगा. सत्ता और धन के प्रति हिकारत तो होनी ही चाहिए, उसके बिना कविता नहीं लिखी जा सकती. जिंदगी को अच्छे से जीने के लिए एक उन्मुक्तता जरूरी है. अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए. जो कुछ भी दुनिया में सर्वोत्तम है उसे हासिल करने का प्रयत्न करना चाहिए. आप चाहे जिस भी क्षेत्र में हों, वहां अपना सर्वश्रेष्ठ दें.

वर्तमान राजनीति को आप कैसे देखते हैं?
अभी जो कुछ भी बदलाव हुआ है उसे मैं इस रूप में देखता हूं कि आम आदमी की जिंदगी में क्या बदलाव आया है. अगर उसकी जिंदगी में अच्छा बदलाव आया है तो समङिाये अच्छा हो रहा है. लेकिन अगर सिर्फ अरबपतियों की जिंदगी में अच्छा बदलाव आ रहा है तो समङिाये अच्छा नहीं है. जैसा व्यवहार आप मनुष्य के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार आप प्रकृति के साथ भी करते हैं. सिर्फ कुर्सी बदलना बदलाव नहीं है. बदलाव इंसानों में होना चाहिए. सबसे कमजोर आदमी की जिंदगी बेहतर हुई है तो समङिाये बदलाव हुआ है. सबको रोजी-रोटी मिले, किसी को रोजगार की चिंता न सताये. जब इंसान अपनी नौकरी जाने की चिंता छोड़, इत्मीनान से मछली मारे, अच्छा म्यूजिक सुने, सुकून की जिंदगी जीये, तब समङिाये कि अच्छे दिन आ गये.

आदिवासी साहित्य को बढ़ावा दे टाटा समूह
झारखंड की संताली और मुंडा कविता भी मुङो बहुत पसंद है. खासकर जगदीश त्रिगुणायत ने आदिवासी लोकगीतों का संग्रह तैयार किया ‘बांसुरी बज रही है’ नाम से. वह बहुत अच्छी है. उसने मुङो प्रभावित किया. मेरा मानना है कि आदिवासी भाषाओं की कविता को और ज्यादा प्रचारित-प्रकाशित किया जाना चाहिए. यह काम सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को भी करना चाहिए. टाटा समूह को भी इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए.

मिठाइयां खाने का शौक
मुङो खाने का बहुत शौक है. मैं जब भी केरल जाता हूं, ढेर सारे मसाले ले आता हूं. आलू दम का तो मैं दीवाना हूं. मुङो सभी तरह की मिठाइयां भी बहुत पसंद हैं. खासकर पुरानी मिठाइयां जैसे- गुड़ से बनी जलेबी, लाई, शक्करपाला, लक्ठो.

आमंत्रित करता शहर है जमशेदपुर
मैं दूसरी बार जमशेदपुर आया हूं. इस बार लंबे अरसे बाद आना हुआ है. खुला-साफ शहर है यह. पटना में मैं जिस इलाके में रहता हूं वहां आप शाम को भीड़ के मारे निकल नहीं सकते. यहां खाली व साफ सुथरी सड़कें मुङो आकर्षित करती हैं. सुबह जब मैं स्टेशन पर उतरा तो मुङो बहुत अच्छा लगा. झारखंड-बिहार में ऐसा शहर दूसरा नहीं है. यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है, शुरू से ही है. खास बात यह है कि इस शहर ने आरंभ से ही अपनी गुणवत्ता बरकरार रखी है. हर तरीके से यह एक आमंत्रित करता शहर है.

बुधवार, 4 जून 2014

काश!अच्छे दिनों की उम्र लंबी होती

नयी दिल्ली में मोदी सरकार को काम-काज संभाले एक सप्ताह हो चुका है. इस देश के लोगों के ‘अच्छे दिन’ आये कि नहीं यह तो पता नहीं, पर इस बार इस कॉलम में एक ऐसे ‘अच्छे दिन’ की चर्चा जिससे अधिकांश लोग वाकिफ हैं. आपने गौर किया हो तो सैलरी (वेतन) मिलते ही हमारी जिंदगी कितनी खुशनुमा हो जाती है. मन मयूर नाचने लगता है, दिल में मधूर संगीत बजने लगता है. यह दुनिया कितनी हसीन लगने लगती है. बीबी-बच्चों पर कितना प्यार उमड़ने लगता है. मोबाइल फोन में फुल टॉक टाइम का बैलेंस डलवा कर पहली फुरसत में मां-बाबूजी, भइया-भाभी, मामी-मामा, दीदी-जीजा और न जाने किस-किस रिश्तेदार समेत यार-दोस्तों से लंबी बातचीत कर उनके घर में क्या पक रहा है से लेकर कितना नमक डाला जा रहा है तक का हालचाल जान लेना आवश्यक जान पड़ता है. लगता है हम कितने ऊर्जावान हैं, कितनी जवाबदेही है हमपर. हम अधिक सजग और व्यवस्थित हो जाते हैं. इसे कहते हैं ‘अच्छे दिन’. पर यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहती. अचानक सबकुछ तेजी से बदलने लगता है. जैसे-जैसे एकाउंट से पैसा खत्म होता जाता है, वैसे-वैसे हमारे अंदर परिवर्तन होना शुरू हो जाता है. फिर छोटी-छोटी बातें हमें परेशान करने लगती हैं. लगने लगता है कि महंगाई जरूरत से ज्यादा बढ़ गयी है. घर में बच्चों की किलकारी भी शोर का शक्ल अख्तियार कर लेती है. पत्नी की मीठी बातें भी कड़वी लगने लगती हैं और कहीं अगर कुछ खरीदने वगैरह की फरमाइश हो गयी, तो लगता है जैसे कोई ताना मार रहा हो. खाद्य वस्तुओं से सजा घर का रसोईघर और फ्रिज धीरे-धीरे खाली होने लगता है. बाहर निकलते वक्त कहीं बच्चे ने साथ जाने की जिद कर दी, तो लगता है  बच्च कुछ खरीदने के लिए न कह दे. सो, बच्चे को तरह-तरह की बातों से बहलाने की जुगत लगानी पड़ती है. मोबाइल में बैलेंस सिर्फ मिस्ड कॉल के लायक ही बचा होता है. ऐसे में अगर कोई दूसरा मिस्ड कॉल करता है, तो आप सोच सकते हैं खुद पर क्या गुजरती है. मन कुछ उचाट-सा हो जाता है. लगने लगता है कि जिम्मेदारियों का बोझ कुछ ज्यादा ही हो गया है. यह दुनिया बेरहम-सी लगने लगती है. तब बस मन में एक ही ख्याल आता है..काश! यह महीना जल्दी से खत्म हो जाये. म्यूजिक से तो जैसे चिढ़ ही हो जाती है.. लगता है किसी ने मन वीणा के तार तोड़ दिये हों. सब कुछ बेसुरा-बेलय-सा हो जाता है. यानी, अच्छे दिन शीघ्र ही बीत जाते हैं. कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने भी तो कहा ही है ‘वेतन तो पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह है, जो महीने के हर दिन खर्चे के कारण घटता जाता है.’
    कभी-कभी ख्याल आता है.. कितना अच्छा होता इन अच्छे दिनों की उम्र थोड़ी और लंबी होती. तो सबकुछ यूं ही अच्छा-अच्छा सा रहता. या कम से कम अच्छे का अहसास तो रहता. 

गुरुवार, 22 मई 2014

अरुण यह मोदीमय देश हमारा..!

चुनाव का शोर थम गया है. प्रचंड बहुमत हासिल करके भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनाने की तैयारी में है. वक्त जरा ठहरा हुआ सा लगता है. सभी पार्टियां और प्रत्याशी जीत-हार की समीक्षा में जुटे हैं. कई इस्तीफा दे चुके हैं, कई इस्तीफा देने वाले हैं और कई से इस्तीफा मांगा जा रहा है. वाराणसी में जन्मे हिंदी के पुरोधा कवि जयशंकर प्रसाद की वर्षो पूर्व लिखित यह पंक्तियां बरबस ही याद आ रही हैं- अरु ण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा. यह कविता याद आने की दो वजहें हैं- एक तो कवि वाराणसी का है, दूसरा कि हर जगह राष्ट्रीय गौरव और भारत माता की बात हो रही है.  पूरे चुनावी परिदृश्य पर अगर आप गौर करें तो इस बार के चुनाव का केंद्र बिंदु नयी दिल्ली नहीं, बल्कि वाराणसी रहा. जितनी चर्चा नयी दिल्ली की नहीं हुई, उससे अधिक वाराणसी की हुई.  इन सबके बीच खुद नरेंद्र मोदी भी वड़ोदरा के बजाय वाराणसी में हुई अपनी जीत को ज्यादा अहमियत दे रहे हैं. तो क्या आज अगर महाकवि जयशंकर प्रसाद जीवित होते तो इन पंक्तियों को कुछ इस तरह लिखते- अरुण (जेटली) यह मोदीमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.
पूरा देश मोदीमय हुआ पड़ा है. इंदौर के एक दंपती ने अपने जुड़वा बच्चों का नाम ‘नरेंद्र’ और ‘मोदी’ रख दिया, तो एक मोदी फैन ने अपनी दीवानगी की पराकाष्ठा दिखाते हुए अपनी किडनी समते कई अंग दान कर दिये. कई तो सिर और बाजुओं पर मोदी नाम का टैटू बनवाये घूम रहे हैं. यहां तक तो बात समझ में आती है पर अब जरा आगे की कहानी सुनिये. कई चाय दुकानों पर मोदी नाम से ‘स्पेशल चाय’ बिक रही है. जिसकी कीमत भी ‘स्पेशल’ है. मोदी नाम से चप्पल, टोपियां, टी शर्ट समेत अन्य कपड़े और न जाने कितने और प्रोडक्ट बाजार में आने की तैयारी में हैं. अब भला ऐसी दीवानगी में क्या बुराई है? इसमें तो फायदा ही फायदा है. नाम का नाम और दाम का दाम. अर्थशास्त्री ठीक ही कहते हैं ‘बाजार से ज्यादा धूर्त और मतलबपरस्त कोई नहीं है.’ आज मोदी नाम का शोर है तो सब इसको भुनाने में जुट गये हैं. चाहे वह बाजार हो या राजनेता. मुंबई की एक महिला फैशन डिजाइनर साई सुमन ने तो मोदी के शपथग्रहण समारोह के लिए जोधपुरी सूट तैयार किया है जिसमें बिना बांह वाले दो जैकेट हैं. इसमें हस्तशिल्प वाले बटन भी हैं और भाजपा का चुनाव चिह्न् भी बना हुआ है.
  नरेंद्र मोदी और वाराणसी की चर्चा हो तो आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल का स्मरण भी आवश्यक है. निश्चित ही जयशंकर प्रसाद अपनी इन पंक्तियों को अरविंद केजरीवाल को समर्पित करते- आह! वेदना मिली विदाई/मैंने भ्रमवश जीवन संचित/ मधुकरियों की भीख लुटाई.

मंगलवार, 13 मई 2014

मोदीसीन का जल्दी पेटेंट कराइए!

भाजपाइयों के नाथ, श्री राजनाथ सिंह जी
इस नाचीज का अभिवादन स्वीकार करें. सुना है कि आपने पिछले दिनों उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ और बलिया में चुनावी जनसभाओं को संबोधित करते हुए अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को देश की हर समस्या का समाधान बताते हुए कहा, ‘‘जिस तरीके से लोग बुखार और दर्दनाशक दवा के रूप में क्रोसीन का इस्तेमाल करते हैं उसी तरह देश की समस्याओं के समाधान के लिए लोगों को ‘मोदीसीन’ दवा का इस्तेमाल करना होगा. ‘मोदीसीन’ की एक खुराक ही सारी समस्या का इलाज कर देगी.’’ सर्वप्रथम तो आपको इस नयी खोज के लिए ढेरों बधाइयां. हां, अगर आप यह भी बता देते कि यह  खोज आपने खुद की या इसमें किसी और (विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने भी आपकी मदद की, तो अच्छा होता. फिर भी बधाई तो बनती है. अब बात मुद्दे की. अगर मेरा ‘अल्प-ज्ञान’ सही है तो आपका यह बयान जनसभा में उपस्थित लोगों को आश्वस्त करने के लिए नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी का महिमामंडन करने के लिए था. खैर, इसमें किसी को (सिवाय चुनाव आयोग के) ऐतराज क्यों होगा कि आप अपनी जनसभा में क्या बोलें और क्या न बोलें. फिर भी इस देश का आम नागरिक होने के नाते यह बंदा आपसे यह तो जानने का हक रखता ही है कि आपने या आपकी पार्टी भाजपा ने जिस ‘मोदीसीन’ की ईजाद की है वह किन-किन बीमारियों में असर करेगी. क्योंकि इन दिनों आपकी ही पार्टी के कई लोग ‘मोदियाबिंद’ से ग्रस्त हैं तो कइयों को ‘नमोनिया’ हो गया है. क्या इसका इस्तेमाल हताशा-निराशा से उबरने में भी हो सकता है? शायद 16 मई के बाद आपकी ही पार्टी के कई प्रत्याशियों को इसकी जरूरत पड़े. और हां, दरकिनार कर दिये गये भाजपा के कई सीनियर सिटीजन कैटेगरी के नेता इन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय का चक्कर काट रहे हैं. राजनाथ जी, आप तो अध्यापक रहे हैं और कई दशकों से राजनीति में हैं. आपसे उम्मीद की जाती है कि अपनी पार्टी के इन नेताओं के बारे में भी सोचिये. आपकी पार्टी के ‘अच्छे दिन’ आयेंगे कि नहीं, यह तो 16 मई को मालूम चल जायेगा, पर इन बुजुर्गो के बचे-खुचे दिन ‘बदतर’ न हों, इसकी चिंता कौन करेगा? और हां, अगर आपको ऐतराज न हो तो एक सुझाव है- इस ‘मोदीसीन’ का पेटेंट अवश्य करा लीजिए. वरना कहीं अमेरिका की नजर इस पर पड़ गयी, तो क्या होगा, आपको पता ही है.  अमेरिका जब हमारी हल्दी और नीम तक का पेटेंट करा सकता है, तो इस स्वदेशी ‘मोदीसीन’ को किसी सूरत में नहीं छोड़ेगा. इसलिए सब काम छोड़ कर पहले पेटेंट देनेवाले दफ्तर पहुंचिए.
उम्मीद है कि आप मेरी बातों को अन्यथा न लेंगे. धन्यवाद.
-एक (निचुड़ा हुआ) आम नागरिक

बुधवार, 7 मई 2014

‘पावर’ वाली सास कहां से लाओगे!

मेरे एक मित्र ने सुबह-सुबह फोन किया. उनकी आवाज में नरमी थी. मुङो लगा कि वे थोड़े दुखी हैं. मैंने कारण जानना चाहा, तो भड़क गये. कहने लगे, ‘जख्मों पर नमक न डालो. मैं दुखी इसलिए नहीं हूं कि शादीशुदा हूं. इसलिए भी नहीं कि पत्नी से बनती नहीं है बल्कि मुङो अफसोस इस बात का है कि ढंग की सास नहीं मिली.’ मैं अचरज में पड़ गया, ‘भाई! हर नाकाम आदमी अपनी बदकिस्मती के लिए पत्नी को कोसता है तुम सास पर क्यों बरस रहे हो?’ मित्र का जवाब चौंकाने वाला था, ‘हर सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है. यह जुमला तो सुना ही होगा. पर वह औरत पत्नी ही नहीं, सास भी हो सकती है.’ यह नया ज्ञान हुआ है. जब से सुना है कि राबर्ट वाड्रा ने महज पांच सालों में एक लाख रुपये के निवेश से 344 करोड़ रुपये से अधिक की संपति बना ली है तब से मेरे पेट में मरोड़ हो रहा है. क्योंकि गैर कांग्रेसी पार्टियां कह रही हैं कि यह चमत्कार वाड्रा के कौशल का नतीजा नहीं है, बल्कि उनकी ‘पावर’ वाली सास की वजह से हुआ है. तभी से सोच रहा हूं कि काश मेरी भी सास ऐसी होती!’
मेरा दुखी मित्र लगातार बोले ही जा रहा था, ‘भाई मैं तो अब यहां तक सोचने लगा हूं कि मैं दूसरी शादी कर लूं. ऐसी लड़की से जिसकी मां ‘पावर’ वाली हो. ताकि वह मेरा भविष्य सुधार सके, कैरियर बना सके. एक लाख तो मैं भी कैसे भी जुगाड़ कर ही सकता हूं.’ मैंने रोका ‘क्या तुम्हारा मतलब है कि तुम तलाक लेने जा रहे हो.’ वह बोला ‘नहीं पगले! यह मैंने कब कहा. मैं तो सिर्फ अपने शादीशुदा होने का स्टेटस छिपाने की बात कह रहा हूं.’ इतने में फोन कट गया. विडंबना देखिये कि औरतें स्वयं को विवाहित दिखाने और बताने के लिये दसियों तरीके अपनाती हैं. बिन्दी और सिंदूर लगाती हैं. पर आदमी कुंवारा दिखने के लिए जद्दोजहद करता है. विवाह की चिप्पी लग जाने से वह डरता है.
मुङो एक वाकया याद आ रहा है. एक आदमी अपनी पत्नी के साथ बैठा शराब पी रहा था और बार-बार कह रहा था कि मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं, मुङो समझ नहीं आ रहा कि तुम्हारे बिना मैं इतने साल कैसे रहा. औरत झल्ला कर बोली- ‘यह तुम बोल रहे हो या तुम्हारी बोतल?’ आदमी ने सहजता से कहा- ‘यह मैं अपनी बोतल से कह रहा हूं.’ आदमी का बोतल पर ज्यादा भरोसा है और अपनी धर्मपत्नी पर कम. पत्नियां ही धर्मपत्नियां होती हैं वरना आदमियों को कोई धर्मपति नहीं कहता. यह आदमियों को भी भलीभांति पता है कि वे धर्मपति नहीं बन सकते. बाद में मैंने अपने उस मित्र को मैसेज किया- ‘तुम चाहे अपना मैरिज स्टेटस छिपा लो या दूसरी शादी कर लो. यह सब तुम कर सकते हो क्योंकि यह तुम्हारे वश में है पर ‘पावर’ वाली सास कहां से लाओगे? यह तो किस्मत की बात है, और यह गाना तो सुना ही होगा  कि किस्मत के खेल निराले मेरे भइया!’ 

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

सबकी हांडी में पक रही खिचड़ी ही है

16वीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनाव कई मायनों में अभूतपूर्व होने के लिए तो याद किया ही जायेगा, लेकिन इन चुनावों की जो एक बात जनता को जरूर याद रखनी चाहिए वह है हमारे राजनेताओं के बोल- वचन. इस चुनाव में बदजुबानी करने से कोई भी दल या नेता नहीं बच रहा है. याद दिलाने के लिए कुछ बानगी पेश कर रहा हूं-
मुलायम सिंह - बलात्कार के अपराध में फांसी देना गलत है. लड़के हैं, उनसे गलती हो ही जाती है. और, यदि मेरी सरकार आयी तो इस कानून की समीक्षा करेंगे.
अबू आजमी - जो महिला विवाह से पूर्व अपनी मर्जी से यौन संबंध बना रही हो, उसे भी सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए.
आजम खान - अल्लाह ने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व संजय गांधी को उनके गुनाहों की सजा दी.
अमित शाह - यह चुनाव सम्मान की लड़ाई है. अपने अपमान का बदला लेने की लड़ाई है.
गिरिराज सिंह - जो लोग नरेंद्र मोदी को रोकना चाहते हैं, वे पाकिस्तान की ओर देख रहे हैं. आने वाले दिनों में उनके लिए भारत में कोई जगह नहीं होगी. उनके लिए बस पाकिस्तान में जगह बचेगी.
सलमान खुर्शीद - हम तुमको (मोदी को) लोगों की हत्या करने का आरोपी नहीं बता रहे हैं. हमारा आरोप है कि तुम नपुंसक हो.
अभिषेक मनुसिंघवी - नरेंद्र मोदी का मतलब है ‘मैन ऑफ डैमेज टू इंडिया’ और भाजपा का मतलब ‘भारत जलाओ पार्टी’.
 कुल मिला कर यह कहना सही ही होगा कि चुनाव का यह दौर राजनीति का ‘कब्ज काल’ है. कई पार्टियों का हाजमा खराब है. कई पार्टी प्रवक्ता और कई उम्मीदवार खट्टी डकारें ले रहे हैं, उनके मुंह से बदबू भी आ रही है और वे यदा-कदा अपने आसपास वायू प्रदूषण की स्थिति भी उत्पन्न कर रहे हैं. ऐसे लोगों को गरिष्ठ भोजन और गरिष्ठ भाषा दोनों से बचने की सलाह दी जाती है. इनके लिए हाजमा दुरु स्त रखने के वास्ते खिचड़ी ही एकमात्र विकल्प शेष रह जाती है. वैसे भी जब विचार अपने अपने-अपने ढाई चावल अलग-अलग पकाने की चेष्टा करने लगते हैं तो उनमें असमंजस की दाल मिला कर खिचड़ी का पकना स्वाभाविक ही है. क्योंकि सुनामी लहरें अनामी लोगों को उद्वेलित करती हैं और उनके मन में खिचड़ी बनने की प्रक्रि या शुरू हो जाती है. यह खिचड़ी न केवल अनामी लोगों के मन में पकती है, वरन समूचा राजनैतिक वातावरण ही खिचड़ीमय हो जाता है. जहां देखो वहीं खिचड़ी फदकने से उत्पन्न संगीत सुनायी पड़ने लगता है, जिनके पास ढाई चावल हैं वे भी और जिनके पास ढाई भी नहीं हैं, वे भी हांडियों के तले चिंगारियों को हवा देने लगते हैं. हांडी मिट्टी की है या काठ की उनके लिए ऐसा सोचना समय की बरबादी है. उन्हें यह भी फिक्र नहीं कि यह हांडी दोबारा चढ़ेगी भी या नहीं.

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

एक वोटर को और क्या चाहिए?

रामदरश काका पिछले पांच दशकों से वोट करते आ रहे हैं, लेकिन आज तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि वोट देने के तुरंत बाद वे पछताये ना हों. उन्हें लगता है कि वे पछताने के लिए ही मतदान करते हैं. ऐसा नहीं है कि वे हमेशा ही ईमानदार आदमी को चुनना चाहते हैं. जानते हैं कि ईमानदार आदमी अब पैदा होना बंद हो गये हैं. यहां-वहां कहीं दो-चार अदद मिलते भी हैं, तो ऐसे बिदकते हैं मानो राजनीति नहीं, सिर पर मैला उठाने की प्रथा हो! रामदरश काका मानते हैं कि वे खुद भी ईमानदार नहीं हैं. मौका मिलने पर अनेक बार उन्होंने दो-चार दिनों के लिए ईमानदारी-नैतिकता जैसी चीजों को लाल कपड़े में बांध कर खूंटी पर टांग दिया है. मौके और मजबूरियां किसके जीवन में नहीं आते. समझदार आदमी वही है जो सावधानी से इन्हें बरत ले. राजनीति में ईमानदार आदमी ढूंढ़ना खुद अपनी जगहंसाई करवाना है. फिर किसी और की ईमानदारी से हमें क्या, होगा तो अपने घर का. काम करनेवाला हो, तो बेईमान भी चलेगा. ठेकेदार से कमीशन खा ले, पर सड़क बनवा दे. चंदा वसूलता हो तो वसूले, पर भोजन-भंडारे बराबर करवाता रहे. अतिक्र मण हटानेवाले आयें तो प्रशासन से लड़ ले. शादी-ब्याह, मरे-जिये में आ कर खड़ा हो जाए. और, क्या चाहिए इसके सिवाय आम आदमी को!!
 इतना काफी है. गरीब आम आदमी वैसे भी किस्मत का मारा होता है. कभी भूल से थाली में काने बैंगन की सब्जी दिख गयी, तो दिल्ली से आवाजें आने लगती हैं कि गरीब ने सब्जी खायी इसलिए महंगाई बढ़ गयी. अगर गरीब दो सब्जी खायेंगे, तो अपना रुतबा बनाये रखने के लिए अमीर आदमी को कम से कम बारह सब्जियां खानी पड़ेंगी. गरीब बिहार-यूपी से पहुंच जाए तो राजधानी में गंदगी पैदा हो जाती है. वैसे तो इन दिनों सभी पार्टियों के प्रत्याशी रोज ही रामदरश काका के यहां वोट मांगने आते हैं. पर, उस दिन गली के अंधेरे में एक प्रत्याशी से सामना हो गया. बोला- ‘काका ध्यान रखना, इस बार आपके वोट से ही सरकार बनेगी.’ इतना कह कर हौले से उनके हाथ में पांच सौ का एक कड़क नोट पकड़ा कर बोला- ‘बच्चों के लिए मिठाई ले लेना.’ वो कुछ सोच पाते इसके पहले पता नहीं चला कि वह नोट कब किसने ले लिया. ले लिया तो ले लिया. अब क्या हो सकता था. रोकते-रोकते मुंह से ‘थैंक्यू’ भी निकल गया. प्रत्याशी ने एक अंगूठा ऊंचा करके पूछा ‘चलती है क्या?’ काका कुछ समङों, मना करने या स्वीकारने के लिए तैयार हों, इससे पहले एक आदमी एक बोतल, जिसमें शहद के रंग जैसा कुछ था, पकड़ा गया. जब काका की आंखों के सामने का अंधेरा हटा तो देखा, बोतल पर लिखा था ‘रेड डाग’, और एक कुत्ता मुंह फाड़े बना हुआ था जिसकी आंखें लाल थीं. रामदरश काका बार-बार उसे देखते रहे, जबतक खुद उनकी आंखें लाल नहीं हो गयीं.

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

मानो या न मानो मैं ‘माननीय’ हूं

जी हां, कोई माने या न माने, मैं हूं माननीय. वह भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि जनता द्वारा ‘चुना’ हुआ. चुनाव जीतने के साथ ही मुङो कुछ भी करने का ‘विशेषाधिकार’ स्वत: हासिल हो जाता है. मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मैं चाहे जो करूं.. मेरी मर्जी. एक बार जब जनता ने मुङो वोट दे कर सदन में भेज दिया, तो फिर पांच साल तक चलेगी मेरी मर्जी.. मैं चाहे लोकसभा में मिरची पाउडर की बारिश करूं या राज्यसभा में धक्कामुक्की.. मैं चाहे विधानसभा में कपड़े उतार दूं या मार दूं किसी को थप्पड़. मैं चाहूं तो सदन के स्पीकर का आदेश भी न मानूं और मन करे तो अपनी ही पार्टी के नियमों की धज्जियां उड़ा दूं. सबके सामने ही पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ नारेबाजी करूं और सदन की कार्यवाही भी न चलने दूं. ‘सबका मालिक एक’ होता होगा, पर मैं तो अपनी मर्जी का मालिक हूं. मेरा मन नहीं करता, तो मैं तब तक अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं जाता जब तक कि अगला चुनाव न आ जाये. मैं तो अपने वोटर को भी ऐन वक्त पर पहचानने से इनकार कर देता हूं. अरे भई! नेता और वोटर का रिश्ता भी कोई स्थायी होता है भला. यह रिश्ता तो क्षणभंगुर है. और वैसे भी यह दुनिया नश्वर है, माया है, यहां कौन किसका है. वोटर-नेता का रिश्ता तो चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही शुरू होता है और चुनाव परिणाम आते ही खत्म हो जाता है. कम से कम मेरे तरफ से तो ऐसा ही समङिाए.
लोग मुझसे सवाल करते हैं कि माननीयों की मनमानी के कारण  संसदीय कार्य हो नहीं पा रहे हैं और संसद हंगामे का अखाड़ा बन गयी है. जनता की गाढ़ी कमाई की इस तरह बर्बादी हो रही है. लोग यह भी कहते हैं कि ‘संसद और विधानसभाओं का मूल काम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से लोगों का सशक्तीकरण करना है. इसके अलावा संसद पर जिम्मा है कि वह कार्यपालिका पर नियंत्रण रखे और उसे सभी तरह से जवाबदेह बनाये. किंतु माननीय इस मंदिर को अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के केंद्र के रूप में तब्दील करने में लग गये हैं. परिणामस्वरूप संसद का मूल कार्य गौण हो गया है.’
भइया मेरे! इत्ती बात तो मुङो भी पता है. मैं कोई बुद्धू थोड़े ही न हूं. मुङो तो यह भी मालूम है कि विश्व में भारत ही सबसे बड़ा लोक-तांत्रिक देश है जिसमें जनता के द्वारा चुने हुए 543 प्रतिनिधि ही केंद्रीय सरकार के शासन को चलते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है माननीय बनने के लिए किसी भी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं है. केवल 35 वर्ष का वयस्क भारतीय नागरिक होना जरूरी है. किसी शिक्षा की भी जरूरत नहीं है. यहां तक कि अगर अनपढ़ भी हो, तो चलेगा? अब जब इतनी जानकारी मुङो है ही तो आप मान क्यों नहीं लेते कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा या जो करता हूं वही सही है. देखो भाई, मानना हो तो मान लो, वरना क्या कर लोगे???

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

शायद मैं भी बाबूजी की तरह हो रहा हूं

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर हैं बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर हैं बाबूजी,
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर हैं बाबूजी.
 नामचीन कवि भाई आलोक श्रीवास्तव की ये पंक्तियां मुङो अत्यंत पसंद हैं. इनमें एक पिता का जो शब्द-चित्र खींचा गया है, वह मुङो काफी जाना-पहचाना सा लगता है. सच कहूं तो उसमें मुङो अपने पिताजी की छवि दिखायी पड़ती है. मुङो ही क्या, आपको भी दिखती होगी. अपने पिताजी को मैं भी बाबूजी कहता हूं. बाबूजी अपने चार भाइयों में सबसे बड़े हैं. छोटी उम्र में ही जब उनके पिता, यानी हमारे दादाजी चल बसे, तब वहीं से शुरू हो गया सिलसिला मुफलिसी का. बाबूजी ने एक रिश्तेदार के घर रह कर मैट्रिक तक की पढ़ाई तो पूरी कर ली, पर आगे पढ़ाई जारी रखने में गरीबी सबसे बड़ी बाधा थी. तीन छोटे भाइयों और एक छोटी बहन की जिम्मेवारी उन पर थी.
नौकरी की तलाश में गांव से कोलकाता पहुंचे बाबूजी ने जूट मिल में नौकरी की. उनमें गजब का धैर्य और तटस्थता है जो शायद बचपन में ही अपने पिताजी को खो देने और एक विशाल संयुक्त परिवार में गरीबी और अभावों के बीच पालन-पोषण की वजह से पनपी होगी. सुख-दुख सभी हालात में एक सा बने रहना सभी के वश में नहीं होता. घर की बड़ी बहू होने के कारण मां हमेशा गांव में ही रही. उस पर सभी की देखरेख की जिम्मेवारी जो थी. बाबूजी अभी कुछ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होकर गांव आ गये हैं. अच्छा लगता है अब मां-बाबूजी साथ रहते हैं. एक-दूसरे का दुख-दर्द बांटते हुए, एक-दूसरे को और अधिक समझते हुए. बाबूजी भाग्यशाली थे कि मां ने खुद की अनदेखी को लेकर कभी उनसे शिकायत नहीं की. कभी नहीं. कुछ नहीं.
बाबूजी हम भाई-बहनों को स्नेह तो करते रहे, पर उसे दिखाने से, प्रगट करने से हमेशा बचते रहे. शायद, इसलिए भी क्योंकि वो खुद को कमजोर नहीं करना चाहते थे. आखिर घर से, परिवार से, अपनों से दूर रहने की हिम्मत जो जुटानी होती थी. साल में दो-तीन दफा या किसी पर्व-त्योहार पर जब वे घर आते, तो कुछ दिन रह कर लौटते वक्त उनकी आंखों में उतर आयी नमी को मैं देख कर कुछ परेशान सा हो जाता था. बच्च था, इसलिए उसकी अहमियत, उसके मायने को ठीक-ठीक समझ नहीं पाता था. अब समझ पा रहा हूं, क्योंकि मैं भी पिता हूं. पिता की जिम्मेदारी निभाते हुए पिछले कुछ वर्षो में बाबूजी की प्रतिष्ठा मेरी नजर में और भी बढी है. मेरी जीवन-संगिनी कहती हैं, ‘‘तुम अपनी भावनाओं का इजहार नहीं करते.’’ बाबूजी भी तो ऐसा ही करते हैं. ठीक-ठीक बता नहीं सकता कि यह बढ़ती उम्र का असर है या मैं भी बाबूजी की तरह होता जा रहा हूं.

बुधवार, 15 जनवरी 2014

मन केकर-केकर राखीं, अकेले जियरा

भोजपुरी के एक पुराने लेकिन चर्चित गीत का यह मुखड़ा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर इन दिनों सटीक लगता है. खास आदमी के खिलाफ मुहिम चलाते-चलाते ‘आम आदमी’ अब पूरे देश में ‘खास’ हो चुका है. खास इस तरह की कई राज्य सरकारें अब केजरीवाल के फैसले और उनके काम करने के तौर-तरीकों की नकल करने लगी हैं. हालांकि अच्छाई को अपनाने को नकल नहीं कहा जाना चाहिए, लेकिन राजनीति में इसे नकल की ही संज्ञा दी जा रही है.
 पिछले दिनों केजरीवाल के जनता दरबार में जिस प्रकार बेतरह भीड़ जुटी उससे एक बात तो साफ हो गयी कि लोगों के पास कितनी समस्याएं हैं. और, लोग उन समस्याओं से किस तरह पके हुए हैं. केजरीवाल की सरकार दिल्ली के लोगों की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है. यह साबित होने में तो अभी वक्त लगेगा पर पूरा देश अभी आप (आम आदमी पार्टी) और अरविंद केजरीवाल को उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है. यही वजह है कि देश भर में आप का कुनबा बढता जा रहा है. कई नामी-गिरामी हस्तियां पार्टी में शामिल हो रही हैं. सदस्यों और समर्थकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. यहां यह बता देना जरुरी है कि आप की बढती लोकप्रियता महज आकर्षण नहीं है. बल्कि यह वे लोग हैं जिनकी उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं.  जिन मूल्यों पर इस महादेश की आधारशिला रखी गई थी, वो टुकड़े-टुकड़े होकर राजपथ से लेकर जनपथ पर बिखरे पड़े हैं. और अफसोस ये है कि किसी को अफसोस नहीं.
 दरअसल, मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो सिलिसला शुरू किया था, उससे अमीरों की अमीरी चाहे बढ़ी हो, गरीबी कम नहीं हुई. खतरा ये है कि 300 करोड़पतियों वाली संसद में गरीबों, दलितों, आदिवासियों के मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है. पर हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जब किसी मौलिक विकल्प की सबसे ज्यादा जरूरत है तो हमारे पास नायक नहीं, महज विदूषक रह गए हैं. यह बात सब जानते हैं कि उन्मादी तेवर देश के मिजाज से मेल नहीं खाते. नरेंद्र मोदी के भाषण पर ताली चाहे जितनी बजती हो, लालकिले से ऐसी भाषा सुनने के लिए देश तैयार नहीं. वैसे भी, उन्माद की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो स्थायी नहीं रहता. इसलिए उन्माद का झाग बैठते ही वोटों का सूखा पड़ जाता है. यही वजह है कि लोग केजरीवाल को उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं. अगर यह परिस्थति अरविंद केजरीवाल के पक्ष में है तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं. टीम केजरीवाल आने वाले समय में किस प्रकार काम करती है. आम चुनाव में वे किस प्रकार के उम्मीदवार उतारते हैं. कांग्रेस के साथ संबंध कैसा रहता है. यह सब बातें ही तय कर पायेंगी कि देश और केजरीवाल का भविष्य कैसा होगा.