बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

सवालों के इस मौसम में एक मासूम सवाल

आज कल देश में जिसे देखो सवाल पूछता नजर आ रहा है. बाबा रामदेव से शुरु हुई यह परंपरा अन्ना हजारे से होते हुए अरविंद केजरीवाल तक आ पहुंची. अब कुछ लोग अरविंद केजरीवाल से भी सवाल पूछ रहे हैं- बताओ, आंदोलनकारी हो या उदारवादी? इस पर केजरीवाल ने तपाक से कहा-मैं एनी कोहली (प्रश्नकर्ता) को नहीं जानता इसलिए मैं उनके सवालों के उत्तर देने को जवाबदेह नहीं हूं. मेरी बेटी अक्सर मुझसे सवाल पूछती है. शुक्र है भाई केजरीवाल के पास सवाल से बचने को एक विकल्प तो है पर मेरे पास तो वह भी नहीं है. मुङो मेरी बेटी के हर सवाल का जवाब देना पड़ता है वह भी ईमानदारी से और उसी समय. वरना वह नाराज हो जाती है, और मैं उसे नाराज या दुखी नहीं करना चाहता. सवाल कभी भोलेपन से भरे तो कभी शरारत से सराबोर.

खैर, रोजमर्रा की जदोजहद से दो-चार होते कुछ सवाल मेरे जेहन में भी उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. कभी-कभी ये सवाल इतने घनीभूत हो उठते हैं कि जवाब पा लेने को मन आतूर हो उठता है. एक वाकया पेश है- दवा दुकान पर करीब 20 साल का एक युवक अपनी मां के साथ आया. दुकान में भीड़ थी. इतने में मोबाइल की घंटी बजी उसने जेब से जैसे ही अपना मोबाइल निकाला वह जमीन पर गिरा और बिखर गया. युवक बेचैन हो उठा, अपनी मां पर चिखने-चिल्लाने लगा. दुकान पर खड़े ग्राहक उसकी ओर देखने लगे. बीमार मां असहज हो उठी. उसे समझ में नहीं आ रहा था वह उसे कैसे शांत करे. थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद युवक वहां से बाहर आया और अपनी पल्सर बाइक से तेजी से कहीं निकल गया. उसकी मां निढाल हो कर दुकान में रखी एक टूटी प्लास्टिक चेयर पर बैठ गयी. मेरी जिज्ञासा बढ गयी थी. मैंने पास जाकर पूछा मैडम, वह आपको यूं छोड़कर कहां चला गया. जवाब मिला ‘वह मेरा इकलौता बेटा है. मैं एक सप्ताह से बीमार हूं. बहुत कहने पर वह मुङो डॉक्टर के पास लेकर आया था. यहां उसकी महंगी मोबाइल गिरने से टूट गयी. वह उसे बनवाने गया है.’ ‘और आप?’ ‘मेरा क्या, मैं ऑटो करके घर चली जाउंगी.’ मैं सोचने लगा- क्या जिंदगी में मोबाइल की अहमियत मां से ज्यादा है? वह युवक मोबाइल खराब होने से इतना बेचैन हो उठा पर मां की तबियत खराब होने से उस पर कोई अंतर क्यों नहीं पड़ा?

क्या मनुष्य केवल देह है जो मात्र भौतिक सुखों से संतुष्ट हो जाये? हमारे भीतर की चेतना, संवेदनशीलता, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति कहां विलुप्त हो गयी? क्या भोगवादी इस अवधारणा में इन अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या यह केवल दैहिक सुखों पर टिकी है? इन हालात पर तो कवि प्रदीप की पंक्तियां याद आ रही हैं-देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान!

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

अथ श्री जमाई कथा

बचपन से ही मुङो शादी का बहुत क्रेेज था. सोचता था जब मेरी शादी होगी मैं भी किसी का दामाद बनूंगा. खूब आवभगत होगी. मैं भी ‘दामादगीरी’ का खूब लुत्फ उठाऊंगा. पर, अफसोस कि शादी तो हुई पर ‘दामादगीरी’ का लुत्फ उठाने का वह ‘सुअवसर’ न मिल सका. इस बात का जिक्र मैं यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि देश में इन दिनों एक जमाई राजा ने धमाल मचा रखा है. इस देश में तो हर जमाई, राजा होता है, तो राजा के जमाई का क्या कहना. कुछ ‘दामाद’ उनसे इसलिए खुन्नस खाये हुए हैं कि क्योंकि उनको वैसा मौका न मिला. खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर कुछ लोग उन्हें ‘राष्ट्रीय दामाद’ कह रहे हैं तो कुछ ‘सरकारी दामाद’. अजी, मैं पूछता हूं इसमें नया क्या है? सरकारी दामादों की परंपरा तो अंगरेजों के जमाने से चली आ रही है. वैसे भी बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं—बेटियां परायी ‘धन’ होती हैं और दामाद सबसे ‘सम्माननीय’. भारतीय परंपरा में दामादों का बहुत महत्व रहा है, आज से नहीं प्राचीनकाल से ही.


जमाइयों की बात चली है तो मुङो याद आ रहा है गांव-जवार में कुछ घरजमाइयों को मैं भी जानता हूं. और कुछ हो न हो ये घर जमाई गांव-जवार के लोगों के मनोरंजन का साधन अवश्य होते हैं. इनसे हंसी-मजाक, ठिठोली करने और तंज कसने से कोई बाज नहीं आता. इनमें से कुछ तो जिंदादिल होते हैं जो यह सब ङोल जाते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बात-बात पर बिफर जाते हैं. नतीजा झगड़ा-फसाद, बवाल और मनमुटाव. खैर ताना मारने वाले इस सबकी परवाह कहां करते हैं. दामादों को मेहमान भी कहा जाता है. अब जो दामाद घरजमाई ही बन गया वह कैसा मेहमान और कैसी उसकी मेहमानवाजी? वह खायेगा भी और खिलायेगा भी. वह सुनेगा भी और सुनायेगा भी. वह जो मरजी सो करेगा. आखिर घरजमाई जो ठहरा. वह काजू भी खायेगा और करैला भी. ‘फ्यूचर डिपेंड ऑन योर सिचुएशन’.

बहरहाल, हम जमी-जमाई अवधारणा से बाहर आते हैं और फ्रेश बात करते हैं. अगर आप शादीशुदा हैं तो सिवाय अफसोस करने के आपके पास कोई और विकल्प है नहीं. हां, खुशकिस्मत हैं वे जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई. वह इसलिए क्योंकि उनमें अभी भरपूर संभावना बची है. सच कह रहा हूं. संभावना जमाई राजा बनने की, संभावना दामाद बनने की, संभावना घर जमाई बनने की. संभावना वह सब कुछ पा लेने की जिससे वह अभी तक वंचित हैं. मैं आग्रह और अपील करूंगा ऐसे तमाम संभावनाशील साथियों से कि अगर आपके लिए भी शादी जिंदगी में सिर्फ एक बार होनेवाली घटना है तो उसे सोच-समझ कर घटित होने दें. अपनी ‘दीन-दशा’ सुधारने के लिए रॉबर्ट वाड्रा की तरह किसी धन-संपदा से परिपूर्ण और राजनीतिक परिवार की सुयोग्य कन्या से सुनियोजित विवाह करें. तथास्तु!!!

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

पति बनने से पहले करोड़पति बनना जरूरी

मेरे एक अविवाहित मित्र हैं. उन्हें देख कर मुङो खुद पर बड़ी कोफ्त होती है. उनसे जब भी शादी की बात करो, तो बोलते हैं,‘‘अभी तैयारी कर रहा हूं.’’ एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया. मित्र आखिर इतने वर्षो से आप तैयारी ही कर रहे हो, आखिर यह ‘तैयारी’ है क्या? बोले,‘‘महंगाई का जमाना है. गृहस्थी जमाने के लिए पैसे इकट्ठे कर रहा हूं. पति बनने से पहले करोड़पति तो बन जाऊं.’’ मैं सोच में पड़ गया कि कितना मूर्ख हूं, बिना करोड़पति बने ही पति बन गया. नतीजा सामने है. आटा-दाल के भाव की रोज-रोज की चिंता में सिर के बाल उड़ गये.

अभी इस सदमे से उबर भी नहीं पाया था कि टीवी पर बिग बी का बहुचर्चित शो कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो गया. पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर इस कार्यक्रम के धुआंधार प्रचार का मेरी श्रीमती जी पर भयानक असर हुआ है. एक दिन देखा कि जनरल नॉलेज की ढेर सारी पुस्तकें खरीद कर ले आयी हैं. सुबह-शाम जब देखो उसी में डूबी रहती हैं. अक्सर घर के कोने में पड़ा रहनेवाला उपेक्षित अखबार भी उनको भाने लगा. मुङो घोर अचरज हुआ. यह चमत्कार हुआ कैसे? लेकिन यह बदलाव अच्छा भी लगा. सोचा, छोड़ो कम से कम पढ़ने में रुचि तो हुई, वरना पहले तो हमेशा सास-बहू वाले टीवी सीरियल में आंखें गड़ाये रहती थीं.

उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश था. सुबह के नौ बज रहे होंगे. मेरी बेटी ने मुङो जगाते हुए पूछा, ‘‘हू इज प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया?’’ मैंने करवट बदलते हुए कहा, ‘‘मम्मी के पास जाओ.’’ पर वह डटी रही, बोली-‘‘नहीं पापा, आप ही बताओ.’’ मैंने कहा,‘‘डॉ मनमोहन सिंह.’’ बोली, ‘‘यू आर राइट़ अच्छा अब नेक्स्ट क्वेश्चन..’’ मैंने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, ‘‘बेटा अभी जाओ, सोने दो.’’ खैर वह चली गयी, पर मेरी नींद गायब हो गयी. थोड़ी देर बाद मैं उठा और आदतन अखबार ढूंढ़ते हुए बालकनी में पहुंचा. इतने में दूसरे कमरे से श्रीमती जी अखबार लहराते हुए निकलीं और लाल-पीला होते हुए सवाल दागा,‘‘सलमान खान की हालिया रिलीज सुपर-डुपर हिट फिल्म टाइगर के डाइरेक्टर का नाम बताओ?’

मुङो झुंझलाहट हुई कि आज सुबह-सुबह मां-बेटी को आखिर हुआ क्या है. सवाल पर सवाल किये जा रही हैं. इतने में श्रीमती जी बरस पड़ीं,‘‘अखबार में नौकरी करने से जिंदगी नहीं चलने वाली. अपने पड़ोसी सिन्हा जी को देखो, कौन बनेगा करोड़पति से 27 लाख जीत कर लौटे हैं. आज से रोज सुबह चाय के साथ अखबार के बदले ये जनरल नॉलेज की किताबें पढ़ना शुरू कर दो. इस सीजन में बिग बी के सामने हॉट सीट पर तुम्हें बैठना ही होगा.’’ उस दिन से कोशिश जारी है, ‘करोड़पति’ बनने की. आप सभी की दुआ चाहिए.