मंगलवार, 21 जुलाई 2009

उम्र मुठी में ऐसे आती है

पहले पहल जापानी सभ्‍यता पर पश्चिम का प्रभाव सिर चढकर बोला था लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी के हादसे के बाद जापान ने अपनी परंपराएं खुद गढी हैं। उन्‍हीं में शामिल है स्‍वस्‍थ दिनचर्या। जापान में या तो फास्‍ट ट्रेनें चलती हैं या लोग पैदल चलते हैं।

जापानी लोग अपने दिन की शुरुआत बडे ही सलीके से करते हैं। एक्टिव लाइफस्‍टाइल यहां के लोगों के सोने में भी है और जागने में भी। दिन का शुभारंभ दैनिक कार्यों से निवृत होने के बाद पैदल चलने से होता है। कामकाजी लोग रेलवे स्‍टेशन तक और बुजुर्ग बागों की ओर पैदल निकल पडते हैं। जापान में फर्क नहीं पडता कि कंपनी का सीइओ ट्रेन से जा रहा है और चपरासी कार से आफ‍िस पहुंच रहा है। धुन के पक्‍के यहां के लोग पैदल चलने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करते।

जापान के लोगों के काम करने का ढंग इतना व्‍यवस्थित और त्रुटिरहित है कि आज दुनिया के कई देशों और मशहूर कंपनियों ने जापानी माडल को अपनाया है। एक समान यूनीफार्म पहनना, हर लक्ष्‍य को जोश के साथ समय से पहले पूरा करने की कोशिश जापानी विशेषताएं हैं। कम खाने, कम बोलने और कम सोने में उसका भरोसा है।

जीने के लिए खाना - जापान के लोग खाने के लिए कम और जीने के लिए ज्‍यादा खाते हैं। वे खाने में स्‍वाद के बजाय सेहत ज्‍यादा ढूंढते हैं। खाने में कच्‍चापन जापान की विशेषता है। वे तले-गले और मसालेदार खाने से परहेज करते हैं। ज्‍यादा जीना है तो कम खाओ जापानी लोगों के व्‍यवहार का सबल पक्ष है। उनकी सक्रियता और स्‍फूर्ति का भी यही राज है कि वे उतना ही खाते हैं जितना शरीर की जरुरत है। जीभ की जरुरत के हिसाब से खाना जापान में ठीक नहीं माना जाता।

पशुओं के मांस से परहेज - मांसाहार और महंगे और गरिष्‍ठ रेड मीट के बजाय ताजा और मछली खाना जापानियों की सेहतमंदी का खास राज है। वे मछली को ज्‍यादा पकाने या मसालों में लपेटने के बजाय उसे कच्‍चा व कम पकाकर खाते हैं।

औषधीय उलांग चाय - जापानियों के
खान-पान और सेहतमंदी का सबसे खास राज है उलांग चाय। यह हरी चाय है जो चीन और जापान में सेहत के लिए बेहद अच्‍छी मानी जाती है। इसे ठंडे और गर्म पेय के रूप में पिया जाता है। यह पाचन तंत्र के लिए भी अच्‍छी होती है।


ये कुछ ऐसी बाते हैं जिससे हम भी प्रेरणा ले सकते हैं और अपनी जिंदगी को खुशहाल और स्‍वस्‍थ बना सकते हैं।

बुधवार, 17 जून 2009

यौवन की चाह

क्‍‍या एंजेलिना जोली ने बोटोक्‍स के इंजेक्‍शन लिए हैं, सनी देओल ने नए बाल उगवाए हैं, जेनिफर लोपेज का फ‍िगर कास्‍टेमिक सर्जरी से जवान हुआ है, देवआनंद कौन सी डाई लगा रहे हैं, अमिताभ बच्‍चन इस उम्र में भी इतनी उछल-कूद कैसे कर पाते हैं उनके सामने उनका बेटा अभिषेक थका दिखता है। अभिनेत्री रेखा की आंखों के आस-पास की झुर्रियां कहां गई....

ये सारे सवाल एक ही दिशा से आते हैं और वह है यौवन की चाह। देवताओं का रुप युगों-युगों तक एक सा रहता है, पर जब वे धरती पर अवतार लेते हैं तो बाल लीला, यौवन और महाप्रयाण उनका भी सत्‍य बन जानते हैं। मनुष्‍य आत्‍मा जीतने वालों के सम्‍मुख नत हो जाता है लेकिन दैहिक जीत के उपक्रम करता रहता है। हाल के वर्षों में सौंदर्यशाली और जवान बने रहने की चाह ने अरबों की नई इंडस्‍ट्री खडी कर दी है। वैज्ञानिक आयु के प्रभावों को निष्‍फल करने के लिए रोज नये प्रयोग कर रहे हैं।

उम्र का बढना जीवन की अंतिम सच्‍चाई है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आत्‍मसंतुष्टि, सुंदर दिखने की चाह, समय के साथ कदम मिलाने की इच्‍छा जैसे कारण व्‍यक्ति को अपनी उम्र से कम नजर आने के लिए बाध्‍य करत हैं। पुरी दुनिया में उम्र को जीतने के प्रयास चल रहे हैं। कैलिफोर्निया की एक कंपनी ने ब्‍लास्‍ट कैंसर कोशिकाओं से निबटने का एक तरीका खोज निकाला है। उनके इस तरीके से एंटी एजिंग इंडस्‍ट्री को अरबों डालर का फायदा होगा। वैज्ञानिकों की एक टीम ने स्किन एजिंग जीन खोज निकाला है जिसमें झुर्रियों, बढती उम्र की त्‍वचा पर कुप्रभाव और त्‍वचा पर होने वाले दूसरे नुकसानों में राहत मिल सकती है।


शिकागो यूनिवर्सिटी में शोध कर रहे वैज्ञानिक प्रोफेसर जे के अनुसार कुछ लोग सेहत के नियमों पर चलकर भी तीस की उम्र में मर जाते हैं और कुछ नशा करके भी सौ साल निकाल लेते हैं। उम्र की यह गुत्‍थी अनेक प्रश्‍नों को जन्‍म देती है। क्‍या वाकई ऐसी कोई प्रक्रिया है जो बढते हुए बुढापे को रोककर इंसान को सदाबहार बनाए रख सके। या एंटी एजिंग मात्र खोखला भ्रम है, जिसे इंसान आत्‍मसंतुष्टि के लिए अपनाता है। आखिरकार बुढापा है क्‍या, यह एक सामान्‍य प्रक्रिया है या फ‍िर एक बीमारी जिसका इलाज संभव है।


बुढापा दरअसल एक क्रमिक और स्‍वाभाविक परिवर्तन की प्रक्रिया है जिसका परिणाम बचपन, युवावस्‍था, वयस्‍कता के रुप में आता है। उम्र बढने की यह प्रक्रिया मनुष्‍य के शरीर में उम्र के साथ होने वाले परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करती है। इसके नकारात्‍मक और सकारात्‍मक दोनों पहलू हैं। जहां एक ओर एजिंग से शारीरिक क्षमता में कमी आती है वहीं दूसरी ओर इसका अर्थ विकास (बुदि़धमानी व अनुभव) है। जारी....

सोमवार, 15 जून 2009

खुशखबरी। चांद के साथ मैं भी लौट आया हूं

खुशखबरी।खुशखबरी।खुशखबरी। चांद मोहम्‍मद अपनी फ‍िजां के पास लौट आए हैं यह कहते हुए कि उन्‍होंने जो कुछ भी अत्‍याचार किया वह किसी के दबाव में किया और वह आज भी अपनी फ‍िजां से बेपनाह मोहब्‍बत करते हैं। मेरे ब्‍लागर साथियों मुझे जैसे ही यह खबर मिली मुझे लगा कि अब मुझे भी लौट आना चाहिए आप सभी के पास। अपनी ब्‍लाग्‍स की दुनिया में। पिछले दो सप्‍ताह आप सभी से दूर रहकर मैं बता नहीं सकता कि किस बेचैनी को मैंने जिया है। ब्‍लाग्‍स की दुनिया में क्‍या कुछ चल रहा है इस सबसे बेखबर था। काश मैं भी चांद मोहम्‍मद की तरह यह कह पाता कि मैंने जो कुछ भी किया किसी और के दबाव में किया। मैं बेकसूर हूं। हां यह जरुर कहूंगा और डंके की चोट पर कहूंगा कि इस दूरी ने ब्‍लागिंग के प्रति मेरी चाहत को और मजबूत बना दिया है।

अब बात खुशखबरी वाली...

दोस्‍तों यह मेरी 52वीं पोस्‍ट है। यानि, चार महीने में चिट़ठों का पचासा। शायद अप टू द मार्क नहीं है पर निराशाजनक भी नहीं है। नौकरी, परिवार, दोस्‍तों और खुद पर समय खर्च करने के बाद भी इतना समय चुराकर ब्‍लागिंग कर लेने को मैं अपने लिए बडी उपलब्धि मानता हूं। सीनियर्स व नये ब्‍लार्ग्‍स साथियों से काफी कुछ सीखने को मिल रहा है। कई अच्‍छे और आवश्‍यक मुद़ों पर चर्चा होती रही है। निश्चित ही ब्‍लागिंग का भविष्‍य अंधकारमय नहीं है। बल्कि यह तो संभावनाओं से भरा माध्‍यम है। उम्‍मीद है, आगे भी मेरी यह यात्रा अनवरत चलती रहेगी और आप सभी का स्‍नेह, प्‍यार और मार्गदर्शन मिलता रहेगा।

शुक्रवार, 29 मई 2009

आइला रे... बेटियों के प्रति इतनी नफरत

दोस्‍तों, कहने को तो हम कई मामले में अफलातून हो गए हैं। विज्ञान से खलिहान तक तरक्‍की के नये-नये आयाम कायम कर लिये हैं। पर आज भी हमारे समाज के किसी कोने से कई ऐसी घटनाएं उजागर होती रहती हैं जो हमारे सभ्‍य होने और तरक्‍की के दावे को पलभर में झूठला देती हैं।

उडीसा के कटक में भुवनेश्‍वर नामक एक युवक ने अपनी 11 महीने की बेटी को इसलिए मार डाला क्‍योंकि वह बेटा चाहता था। जबसे उसे बेटी पैदा हुई वह अपनी पत्‍नी जूली को भी नापसंद करने लगा। अक्‍सर वह उससे लडाई-झगडा भी करता। इसीलिए जूली अपनी बेटी को लेकर अपने मायके चली गई। भुवनेश्‍वर का गुस्‍सा तब भी शांत नहीं हुआ और वह वहां भी जा पहुंचा। मायके वाले और जूली दोनों ही नहीं चाहते थे कि भुवनेश्‍वर उन्‍हें ले जाए। यह बात भुवनेश्‍वर बर्दाश्‍त नहीं कर पाया और रात के अंधेरे में सो रही जूली के गोद से अपनी दूधमुंही बच्‍ची को उठा ले गया। सुबह जूली की जब आंख खुली तो बच्‍ची उसके बिस्‍तर पर नहीं थी। पूरे घर में छानबिन की गई। पता चला कि भुवनेश्‍वर भी गायब है। थोडी देर में घर के पिछवाडे में बच्‍ची की सिर कटी लाश मिली।


ऐसे न जाने कितने भुवनेश्‍वर हमारे समाज में आज भी हैं। जो बेटियों को जिंदा नहीं देखना चाहते भले ही वह उनके ही घर में क्‍यों न पैदा हुई हो। ऐसे लोग न सिर्फ बेटियों के दुश्‍मन हैं बल्कि पूरी इंसानियत के नाम पर कलंक हैं। दुखी मन तो यह कहता है कि बंगाल में हाल में ही आए आइला नामक चक्रवाती तुफान केवल इन दरिंदों को ही क्‍यों नहीं डूबो व बहा ले जाता। आखिर बेटियों के प्रति इतनी नफरत क्‍यों...

मंगलवार, 26 मई 2009

दुनिया की सबसे छोटी पतंग और बैट


यूपी के सहारनपुर जिले के बीएससी के छात्र विपिन कुमार ने मात्र १.3 सेमी का क्रिकेट बैट और दो मिमी की दुनिया की सबसे छोटी पतंग बनाने का दावा किया है। विपिन अब अपने इस प्रयास को गिनीज बुक आफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में दर्ज कराना चाहते हैं। गांव कुरलकी निवासी 26 वर्षीय विपिन मुजफ़फरनगर के चौधरी छोटू राम डिग्री कालेज का बीएससी एग्रीकल्‍चर के सेकेंड ईयर का छात्र है। विपिन के पिता देशराज सिंह बच्‍चों के डाक्‍टर हैं।

सोमवार, 25 मई 2009

अगर आपकी प्रेमिका का सेलफोन बंदर छिन ले जाए

तनिक सोचिये......आप किसी पार्क में अपनी प्रेमिका के साथ व्‍यस्‍त हों और वैसे वक्‍त में कोई बंदर आपको परेशान करे तो आपको कैसा लगेगा। जी हां, ऐसी एक सत्‍य घटना पेश है-

दिल्‍ली या आगरा से मेरठ होकर हरिद्वार जाने के रास्‍ते में खतौली आता है। वहां चीतल पार्क काफी फेमस है। उधर से होकर आने-जाने वालों के लिए विश्राम करने का एक शुकूनदेह जगह। चीतल पार्क लविंग प्‍वाइंट के नाम से भी जाना जाता है। विगत शनिवार को वहां दुपहरी गुजारने आये प्रेमी युगल पार्क के एक कोने में बैठकर चिप्‍स का स्‍वाद लेते हुए प्रेम मग्‍न थे। दो बंदरों की नजर काफी देर से उनपर थी। इसी बीच एक बंदर तेजी से उनकी ओर लपका। यह देख युवती ने चिप्‍स का पैकेट उठा लिया। चिप्‍स हाथ न आने से गुस्‍साया बंदर युवती का पर्स उठाकर चलता बना। उस पर्स में युवती के मोबाइल फोन और रुपये थे। प्रेमी युवक ने बंदर को पत्‍थर मारना शुरू किया तो बंदर ने भी आवेश में आकर पर्स पास के नहर में फेंक दिया....क्‍यों हो गई न गुगली....

भलाई के बदले पिटाई

और अंत में, ऐसा ही एक और रोचक वाकया...
बागपत जिले के बडौत स्टेशन पर दिल्‍ली से शामली जा रही ट्रेन का इंतजार कर रही एक महिला ट्रेन आते ही उस पर बैठ गई। इस दौरान उसका पर्स स्‍टेशन पर ही छूट गया। तभी वहां मौजूद एक व्‍यक्ति ने महिला का पर्स उठाकर उसे देने का प्रयास किया तभी ट्रेन चल दी तो वह ट्रेन के साथ-साथ दौडने लगा। यह सीन देख स्‍टेशन पर मौजूद लोगों ने उसे जेबकतरा या पर्स चोर समझ बैठे और उसकी पिटाई कर पुलिस को सौंप दिया। थोडे ही दूर जाकर महिला भी चेन पुलिंग कर ट्रेन से उतर गयी, पूरा वाकया जानने के बाद वह पुलिस स्‍टेशन पहुंची और पुलिस से यह कहकर यह व्‍यक्ति निर्दोष है, उसे छुडाया। तो इस तरह से एक ऐसे व्‍यक्ति की पिटाई हो गयी जो भलाई करना चाहता था...

शुक्रवार, 22 मई 2009

शायद आप इस युवती को पहचानते हों


गुरुवार की शाम को जीआरपी ने बरेली रेलवे स्‍टेशन के यार्ड में खडे त्रिवेणी एक्‍सप्रेस की बोगी से एक युवती को बरामद किया। पूछताछ के बाद जब युवती ने कुछ नहीं बताया तो इसे महिला थाने भेज दिया। वहां महिला कांस्‍टेबल ने पूछताछ की तो उसने अपना नाम कुसुम मिश्रा, पिता का नाम रमाकांत मिश्रा, मां का नाम निर्मला और भाईयों का नाम अजय और विनोद बताया। यह भी बताया कि उसके पिता फौजी हैं, लेकिन यह नहीं बताया कि वह कहां की रहनेवाली है या उसका घर कहां है।

जीआरपी के प्रभारी निरीक्षक वीपी त्रिपाठी ने बताया कि युवती मानसिक रुप से विक्षिप्‍त लगती है। पुलिस यह कयास लगा रही है कि युवती संभवत लखनउ की रहनेवाली है और घर से बिछुड गई है, उसे फ‍िलहाल नारी निकेतन भेज दिया गया है।

बुधवार, 20 मई 2009

खुशी की बात

हर दूसरा आदमी विश्‍व का सबसे खुश व्‍यक्ति होने का दावा एक बार जरूर करता है। इसकी वजह यह है कि हर आदमी के पास सबसे ज्‍यादा खुश होने का एक न एक पल अवश्‍य मौजूद है।


दार्शनिकों की चिंता अधिकतर व्‍यक्ति की नकारात्‍मक भावनाओं को घटाने की रहती है। अब तक इस पर ढेरों शोध किये गए हैं। जबकि आनंद, उमंग और खुशी से भरपूर लोगों को विज्ञान ने नजरअंदाज कर रखा है। पेनसिल्‍वेनिया विवि के दर्शनशास्‍त्र के प्रोफेसर सेलिगमैन के अनुसार अपनी कमियों पर दुखी होने के बजाय बेहतर है कि अपनी शक्ति को बढाया जाए। बार-बार सकारात्‍मक शक्ति का इस्‍तेमाल करने से दुर्भाग्‍य और नकारात्‍मक भावनाओं से लडने के लिए स्‍वाभाविक प्रतिरोधक तैयार किया जा सकता है। वे कहते हैं। यदि आप खुश होना चाहते हैं तो लाटरी जीतना, अच्‍छी नौकरी पाना और तनख्‍वाह में बढोतरी, सब भूल जाइए। पिछले पचास वर्षों की सांख्यिकी के अनुसार दुनिया में खुशी का दर घटी है। इस दौरान जीवन की गुणवत्‍ता तो नाटकीय ढंग से बढी है, हम अमीर भी हुए हैं, लेकिन अवसाद की महामारी ने इसके आनंद को उदासीन कर दिया है।



किसी ने ठीक ही कहा है- खुशी का नशा ऐसा है कि एक खुराक के बाद और अधिक की मांग करता है। खुशी का संबंध हमारे पूर्व के अनुभव से होता है। मनोविज्ञान में 'अनुकूलनशीलता का सिद्धांत' खुशी के इस पक्ष को समझाता है। एक उदाहरण-

एक जमाना था जब 12 इंच का श्‍वेत-श्‍याम टेलीविजन अभूतपूर्व आनंद लेकर घर आया था। आज अपने 25 इंच के रंगीन टेलीविजन से यदि पांच मिनट के लिए भी कलर गायब हो जाता है तो लगता है हमें वंचित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए है, क्‍योंकि हमने अपने आप को 'मध्‍यम स्‍तर' से उपर की ओर समायोजित कर लिया है। दूसरे शब्‍दों में कल की सुविधा आज की आवश्‍यकता बन गई है।

मंगलवार, 19 मई 2009

झूठ का 'सच'

आदमी झूठ बोले बिना क्‍यों नहीं रह सकता। क्‍या वह नहीं जानता कि झूठ बुरा होता है। इस बुराई के अहसास के बावजूद झूठ बोलने का दबाव कहां से आता है-

दरअसल, जब तक सच अपने जूतों के फीते बांध रहा होता है तब तक झूठ आधी दुनिया का चक्‍कर काट चुका होता है। यानी झूठ, सच से तेज चलता है। हिटलर का मानना था कि यदि किसी झूठ को सौ बार बोला जाए तो उसे लोग सच मानने लगते हैं। वहीं 19वीं शताब्‍दी के प्रसिद्ध दार्शनिक शापेनटार के अनुसार हर सच को तीन स्‍तर से गुजरना पडता है। पहली बार में उसका मजाक बनाया जाता है। दूसरी बार उसे दबाने की कोशिश की जाती है आखिर में उसे प्रमाण के रुप में स्‍वीकार कर लिया जाता है। लेकिन क्‍या सच, जिसे ईश्‍वर का रुप माना जाता है उसके कोई मायने नहीं। झूठ सच से बडा होता है या फ‍िर लोग झूठ किसी दबाव में बोलते हैं। या यूं कहें कि झूठ बोलना इंसान की फ‍ितरत ही है। आखिर झूठ और सच के बीच की केमिस्‍ट्री क्‍या है।

वैज्ञानिकों के अनुसार तो आदमी 4-5 वर्ष की उम्र से ही सच और झूठ में अंतर समझने लगता है। इसी उम्र से वह सच के साथ झूठ बोलने की कला में प्राकृतिक रुप से पारंगत हो जाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे बचपन में मिट़टी खाने की बात, पिटाई का डर या फ‍िर किसी लालच में झूठ बोलना। यही परिस्थितियां बाद में व्‍यक्ति को अपनी-अपनी जरुरतों के अनुसार झूठ बोलना सिखा देती हैं।

किसी की भलाई के लिए बोला गया झूठ, सच से बडा होता है। कई बार हमें किसी व्‍यक्ति की गलती से किए गए दोष या किसी टूटते रिश्‍ते को बचाने के लिए झूठ का सहारा लेना पडता है। झूठ की वजहों के बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि लोग अक्‍सर अपनी उम्र, व्‍यवहार, जाति, तनख्‍वाह, रिश्‍तों को लेकर झूठ बोलते हैं।

रिश्‍तों में झूठ अक्‍सर स्थिति को नियंत्रण करने का एक तरीका भी माना गया है। अधिकांश लोग रिश्‍तों में झूठ, सच से मिलने वाली प्रतिक्रिया से बचने के लिए देते हैं। जहां झूठ, रिश्‍ते की डोर का एक छोर है वहीं गुस्‍सा और उसकी प्रतिक्रिया उसका दूसरा छोर।

शनिवार, 16 मई 2009

जूते के शिकार सभी प्रत्‍याशी विजयी

यह महज इत्‍तेफाक नहीं तो क्‍या है कि इस चुनाव में जिस प्रत्‍याशी के उपर भी जूते फेंके गए वह जीत गया। गृहमंत्री पी चिदंबरम, लालकृष्‍ण आडवाणी और नवीन जिंदल ये सभी चुनाव जीत गए। इन सभी पर प्रेस कांफ्रेंस के दौरान या चुनाव प्रचार के दौरान जूते फेंके गए थे।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर भी जूते उछाले गए थे पर वे इस बार चुनाव लडे ही नहीं, हां उनके नेतृत्‍व में कांग्रेस ने पूरे देश में शानदार सफलता हासिल की। कर्नाटक के मुख्‍यमंत्री बीएस येदिरप्‍पा पर भी जूते फेंके गए थे। येदिरप्‍पा भी अपने पुत्र बी वाई राघवेंद्र को चुनाव जिताने में सफल रहे हैं।

जूता फेंकने की शुरुआत पत्रकार जरनैल सिंह ने की। जरनैल ने आठ अप्रैल को एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाला था।

है न यह कमाल का संयोग। मगर यह जानकर कहीं हारने वाले प्रत्‍याशी यह न सोचने लगें कि काश मुझपर भी कोई...

... हा...हा...हा।

गुरुवार, 14 मई 2009

रिश्‍तों की नई दुनिया

अंतरराष्‍ट्रीय परिवार दिवस पर विशेष


यूं तो अब तक न जाने कितनी ही बार इस विषय पर हमारे ब्‍लागर साथियों ने अपने-अपने ढंग से बातें की हैं, फ‍िर भी संदर्भ मौजू है। मैं बात कर रहा हूं सोशल नेटवर्किंग की। हमारी नयी पीढी इंटरनेट के जरिए अपना नया समाज बनाने में मशगूल है। ई मेल, ब्‍लाग के माध्‍यम से दोस्‍तों व जानकारों से सलाह मशविरा करने में व्‍यस्‍त न्‍यू जेनरेशन क्‍या अपने सगे-संबंधियों से दूर होता जा रहा है।

कैरियर को नई ऊंचाइयां देने, भागदौड की जिंदगी में लगातार समय की कमी हमारी नयी पीढी की आम समस्‍या है। खासकर शहरी युवाओं के पास रिश्‍ते को निभाने के लिए समय का अभाव है। दूर के रिश्‍तेदारों को कौन कहे बच्‍चे अपने मां-बाप के साथ भी काफी कम समय बिता पाते हैं। ऐसे में उनकी संवेदनाएं रिश्‍ते के प्रति खत्‍म होती जाती है। कई बार मां-बाप के पास भी बच्‍चों के लिए समय न होने के कारण बच्‍चे इंटरनेट को अपना साथी मानने लगते हैं। हर जिज्ञासा, हर समस्‍या के लिए उनको इंटरनेट से बढिया साथी कोई दूसरा नहीं लगता।
यही वजह है कि सोशल नेटवर्किंग साइट- आरकूट, यू-टयूब, ब्‍लाग और ई मेल दोस्‍ती की पींगे बढाने, किसी समस्‍या के लिए सलाह-मशविरा करने और आम राय बनाने के लिए न्‍यू जेनरेशन को सबसे आसान राह नजर आता है। अगर देखा जाये तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर इस सबके बीच न्‍यू जेनरेशन अपनों से काफी दूर होता जा रहा है। उसे नहीं पता कि उसके घर में क्‍या हो रहा है, उसके मां-बाप किस समस्‍या से गुजर रहे हैं, उसके लिए उसके रिश्‍तेदार क्‍या धारणा रखते हैं, उसे कभी-कभार अपने सगे संबंधियों का हालचाल भी जानना चाहिए। इसका असर तत्‍काल भले न दिखे पर हमारी निजी जिंदगी पर पडता जरूर है। परिवार एक अमूल्‍य निधि है इसे बचाये व बनाये रखना हमारा पुनीत कर्तव्‍य है।

शनिवार, 9 मई 2009

ऐ मां तेरी सूरत से बढकर भगवान की सूरत क्‍या होगी...

बेसन की सोंधी रोटी पर, खटी चटनी जैसी मां,
याद आती है, चौका बासन, चिमटा-फुंकनी जैसी मां,
बीवी, बेटी, बहन पडोसन थोडी-थोडी सबमें
दिनभर एक रस्‍सी के उपर चलती नटनी जैसी मां।
निदा फाजली साहब की इन पंक्तियों के साथ मदर्स डे पर पेश है यह तस्‍वीर-

रविवार, 3 मई 2009

असफल पिता?

गांधीजी में एक द्वैधता थी, क्‍योंकि वे स्‍नेही पिता और महान तथा दुर्धष करिश्‍माई नेता होने की भूमिका साथ-साथ निभाना चाहते थे। उन्‍होंने चारों बेटों (हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास ) में अपनी ही छवि देखी और समझ नहीं पाये कि हरिलाल हरिलाल थे और मणिलाल मणिलाल। वे चाहते भी तो मोहनदास की प्रति-छवि नहीं बन सकते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी संतान उन्‍हें 'पुराने करार के देवता' के रुप में देखते थे, जो आग उगलता था। उनकी पौत्री सीता धुपेलिया अपने चाचा हरिलाल को 'दयालू और भद्र व्‍यक्ति' मानती थीं,‍ जिन्‍हें बापू ने बिल्‍कुल तोडकर रख दिया था। वे यह लक्ष्‍य करने में भी नहीं चूकीं कि उनके माता-पिता सुशीला और मणि को अपने दिन 'बंदी की तरह' गुजारने पडे। उनके बेटे निश्‍चय ही सामान्‍य मनुष्‍य बनने के लिए छटपटा रहे होंगे, लेकिन गांधीजी उन्‍हें लघु संत बनाना चाहते थे।

गांधीजी को 1911 में ही एहसास हो गया था कि बच्‍चे उनसे प्‍यार करने से अधिक डरते हैं। उनके बेटों में दबाए जाने की भावना थी। एक उल्‍लेखनीय स्‍वीकारोक्ति में उन्‍होंने यह माना भी था-'पता नहीं, मुझमें क्‍या दोष है। कहते हैं मुझमें एक प्रकार की निष्‍ठुरता है, ऐसी कि मुझे खुश करने के लिए लोग चाहे जो करने के लिए यहां तक कि असंभव को भी संभव बनाने की कोशिश करने के लिए, खुद को मजबूर करते हैं। उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्‍ण गोखले उन्‍हें कठोर और बिल्‍कुल बेमुरौवत मानते थे, जो दूसरों को अपने रास्‍ते पर लाने के लिए धौंस से काम लेता था। राष्‍ट्रीय लक्ष्‍य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने को कटिबद्ध और अपने कर्त्‍तव्‍य से प्रतिफलित तरह-तरह की अन्‍य प्रवृतियों में मग्‍न गांधीजी को अपने बच्‍चों को समझने का काफी समय नहीं मिला। क्‍या राष्‍ट्रपिता, उनके अपने ही पैमाने से देखें तो, अपनी संतान को संभालने में लडखडा गए?

यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

शुक्रवार, 1 मई 2009

बापू की कामांधता ने ले ली उनके पिता की जान

मात्र तेरह वर्ष की आयु में विवाह के उपरांत गांधीजी की कामांधता बेकाबू हो उठी थी, इस कामांधता से कस्‍तूरबा त्रस्‍त थीं। लेकिन इससे मुक्‍त होने के लिए 1906 तक प्रतीक्षा करनी थी, जब गांधीजी ने ब्रह़मचर्य का व्रत लिया।

गांधीजी के पिता की मौत के समय की घटना ने उनके जीवन को पूर्ण का रूप से बदल दिया और बा को भी काम के पाश से मुक्‍त कर दिया। कामांधता से विवश होकर वे अपने पिता की मालिश करना छोडकर बा से चिपटे रहे। उन्‍होंने सोती कस्‍तूरबा को जगाकर जाहिर कर दिया कि वे क्‍या चाहते थे: ' मेरे बगल में होते वह सो कैसे सकती थी।' जब तक वे अपने पिता की मालिश करने उनके कमरे में पहुंचते तब तक वे दम तोड चुके थे।

इसके फलस्‍वरुप गांधीजी में दोष भावना घर कर गई। अपनी इस भारी चूक के लिए वे खुद को कभी माफ नहीं कर पाए। उन्‍होंने इसे ऐसा 'कलंक' कहा 'जिसे मैं कभी मिटा या भूल नहीं पाया हूं।' अब वे ब्रह़मचर्य की ओर उन्‍मुख हो गये। गांधीजी को यह कदम उठाने के लिए प्रेरित करनेवाली स्‍त्री कस्‍तूरबा नहीं उनकी मां पुतलीबाई थीं। इस संबंध में बा का अपना कोई विचार नहीं था। उन्‍होंने तटस्‍थ भाव दर्शाया। बहरहाल, उन्‍हें बात माननी तो थी ही। इसलिए उन्‍होंने तुरंत सहमति दे दी। उनकी दृष्टि से देखें तो उन्‍हें आगे गर्भाधान से छुटकारा मिलने जा रहा था। गांधीजी ने अपने व्रत पालन के लिए कई उपाय किए। उन्‍होंने उसका रामबाण उपचार ठंडे पानी से नहाना बताया। अपनी सामान्‍य काम-वृति के दमन के लिए वे शक्ति से अधिक परिश्रम करते थे और खान-पान के बारे में तरह-तरह की सनकें पाल ली थीं, जिनमें दूध का त्‍याग भी था। उन्‍होंने शारीरिक संपर्क से बचने का प्रयोग किया और अलग कमरे में सोना शुरू कर दिया। फ‍िर भी छुटकारा नहीं मिला और उनके चौथे पुत्र का गर्भ में आना नहीं टल सका।

अपनी असफलताओं पर गांधीजी बहुत दुखी थे लेकिन उनकी यातना के इस पूरे दौर में बा बिल्‍कुल सहज थीं। पर गांधीजी सपने में भी परेशान हो जाते थे। गांधीजी की प्रतिज्ञा सपनों से उनकी रक्षा नहीं कर पाई और उनके सपनों में बा आती रहीं। उनके लिए ब्रह़मचर्य का पालन इसलिए और भी कठिन हो जाता था कि बा को उसके पालन में कोई परेशानी नहीं हो रही थी। उस बोझ से छुटकारा पाने में उन्‍हें सबसे ज्‍यादा खुशी होती। लेकिन अपना धर्म मानकर गांधीजी की शारीरिक भूख वे तृप्‍त करती रहीं। गांधीजी का शत्रु उनके अंदर ही बैठा हुआ था। परेशान हो उठे गांधीजी का कथन पढिये : ' इस संसार में बहुत सी कठिन चुनौतियां हैं, लेकिन विवाहित व्‍यक्ति के लिए ब्रह़मचर्य का पालन सबसे कठिन है।' जारी....


यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

बापू का दुखी दांपत्‍य

आम धारणा है कि महात्‍मा गांधी और कस्‍तूरबा आंधी एक आदर्श और असाधारण दंपती थे, लेनिक वस्‍तुत: वे भारत की किसी भी साधारण विवाहित इकाई की तरह ही थे। उनके 62 साल के विवाहित जीवन में सामान्‍य उतार-चढाव आते रहे। आरं‍भिक वर्ष तनावों, झगडों, गलतफहमियों और लगभग संबंध-विच्‍छेद की नौबतों से भरे हुए थे। एक-दूसरे को प्‍यार करने वाले दंपती के रूप में नकी सार्वजनिक छवि सही थी, लेकिन यह उनके विवाहित जीवन के अंतिम चरण की स्थिति थी। अपने विवाहित जीवन के आरंभ में ही कस्‍तूरबा ( बा) को अपने सहज क्रोधी पति से कुछ कहने-सुनने की निरर्थकता का भान हो गया था। एक करिश्‍माई नेता की छत्र-छाया में जीने की उनकी नियति का यह कठोर सच था।
गांधी दंपती 1883 में परिणय-सूत्र में बंधा। पहली संतान हरिलाल का जन्‍म 1884 में हुआ। 1888 में यूनाइटेड किंगडम रवाना हो गये और बैरिस्‍टर बनकर 1891 में लौटे। उनकी विदेशी शिक्षा को कस्‍तूरबा ने अपने दहेज की वस्‍तुएं बेचकर संभव बनाया था। 1924 में गांधीजी को महात्‍मा की उपाधि मिली। लेकिन इस उपलिब्‍ध के लिए एक भारी कीमत चुकानी पडी उनके परिवार को। बा और उनके चार बेटे महात्‍माजी के सामुदायिक जीवन-पद़धति के प्रयोगों के विषय बनकर रह गए। ‍दक्षिण अफ्रीका में पैर जमाते ही गांधीजी ने परिवार को अपने पूर्व निर्धारित सामाजिक सिद़धांतों और व्‍यवहारों के खांचे में ढालने का एकतरफा फैसला कर लिया। उन्‍हें अपनी पत्‍नी बा बौदि़ध बहस-मुबाहसों के दायरे में प्रवेश करने लायक नहीं लगीं। वे अक्‍सर यूरोपीय सहयोगियों की पत्‍िनयों से उनके फर्क का जिक्र करते रहते थे। पति-पत्‍नी के इच्‍छाओं के टकराव की यह घटना जो 1897 की है -


चूं-चपड पसंद नहीं था
गांधीजी के दफ़तर के मुंशी उन्‍हीं के घर रहते थे। वे उनके साथ अपने घर के सदस्‍य की तरह व्‍यवहार करते थे। पानी की व्‍यवस्‍था न होने के कारण मल-पात्रों को बाहर सफाई करने के लिए ले जाना पडता था। यही नियम परिवार असली सदस्‍यों पर लागू होता था। गांधीजी ने अपने एक पत्र में इसके बारे में जो लिखा है वह शब्‍दश: इस प्रकार है - बा को यह बर्दाश्‍त नहीं था कि उन पात्रों को मैं साफ करूं। हाथ में मल का पात्र लिये जीने से उतरती हुई वह मुझे धिक्‍कार रही है और उसकी क्रोध से लाल आंखों से आंसू की बूंदें निकल कर उसके गालों तक आ रही है यह दृश्‍य में आज भी याद कर सकता हूं।
गांधीजी बा से दिये गये काम को बिना किसी चूं-चपड के पूरा करने की अपेक्षा रखते थे। बा इससे इनकार करती थीं और उन पर फट पडती थीं: रखो अपना घर-बार अपने पास और मुझे जाने दो।
बा के इस अप्रत्‍याशित प्रतिक्रियात्‍मक वाक्‍य पर गांधीजी विचलित होते हुए गरजे : भगवान के लिए अपने आपे में रहो और गेट बंद कर दो। लोगों को इस तरह तमाशा होते नहीं देखने दो।


बेमेल दांपत्‍य
14 अप्रैल 1914 को गांधीजी ने कैलनबैक को जो पत्र लिखा उसमें बा के प्रति कैसी अनुदारता दिखाई आप भी देखिये : उसमें देवता और दानव अपने अति प्रबल रूप में उपस्थित हैं। कल उसने एक जहरीली बात कही। मैंने नरमी से लेकिन फटकारते हुए उससे कहा कि तुम्‍हारे विचार पापमय हैं, तुम्‍हारे रोग का कारण भी मुख्‍य रुप से तुम्‍हारे पाप ही हैं। बस, इस पर वह चीखने-चिल्‍लाने लगी। कहा कि मुझे मारने के लिए ही तुमने मुझसे सारा अच्‍छा खाना छुडवाया, तुम मुझसे उब गए हो और चाहते हो कि मैं मर जाउं। तुम नाग हो नाग। मैंने ऐसी जहरीली स्‍त्री दूसरी नहीं देखी।

यह पत्र किसी मनोविश्‍लेषक के लिए बडे काम की चीज होगा। साधारण मनुष्‍य के लिए यह किसी बारुदी सुरंग पर पैर रख देने के समान है। यह गांधी और बा के बीच की विषमता का स्‍पष्‍ट संकेत है। साथ ही यह अलग-अलग बौदि़धक स्‍तरों पर काम करते दंपती के बेमेलपन की ओर भी इशारा करता है। सभी विवाहों का मर्म सामंजस्‍य है। जब तक बा झुकती रहीं, सब कुछ ठीकठाक था। आखिरकार उन्‍हें बहुत लंबे समय से कोंचा जा रहा था। उनका बत्‍तीस वर्षों का पूरा विवाहित जीवन एकतरफा स्‍पर्धा रहा था। कुल मिलाकर बा की उपेक्षा और अवहेलना की जाती रही थी। बा ने गांधीजी को पोलक जैसी महिलाओं के साथ, जिनमें शारीरिक आकर्षण ज्‍यादा था, अन्‍यत्र सहज व्‍यवहार करते देखा था। उन्‍होंने अपमानित महसूस किया होगा। जारी-----


यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

वीर्यपात और गंदे सपनों से विचलित हो उठते थे बापू

ब्रह़मचर्य के प्रयोग की हठधर्मिता और इसके साइड इफेक्‍ट से बवंडर खडा हो गया जिसके कारण गांधीजी का पूरा परिवार अशांत हो चुका था। बिनोबा भावे, काका कालेलकर और नरहरि पारिख जैसे उनके घनिष्‍ठ सहयोगियों ने विरोध-स्‍वरूप हरिजन के संपादक मंडल से त्‍यागपत्र दे दिया। इनमें से कई ने उनके ब्रह़मचर्य के प्रयोग को अधर्म कहा, कई ने इसे शीघ्र रोक देने की सलाह दी। जयप्रकाश नारायण, जीवराज मेहता, आचार्य कृपलानी, निर्मल कुमार बोस आदि ने गांधीजी के खिलाफ घोर असहमति दर्ज करायी। इतना ही नहीं गांधीजी की कई नजदीकी महिला मित्रों ने भी उन्‍हें अपने चुने हए रास्‍ते का त्‍याग कर देने के लिए समझाया। आश्रम के बाहर-भीतर अब तक यह बात फैल चुकी थी। कई तत्‍कालीन पत्र-पत्रिकाओं में यह सुर्खियां भी बनी। पर सबसे संयमित रहे जवाहरलाल नेहरू। उन्‍होंने इस मामले में खुद को एकदम अलग रखा। लेकिन अपनी प्रिजन डायरी की 30 अप्रैल 1935 की प्रविष्टि में उन्‍होंने एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण बात कही, जो बापू के चरित्र-चित्रण के प्ररिप्रेक्ष्‍य में बिल्‍कुल निशाने पर लगने वाले तीर की तरह थी- बापू भी या तो असहयोगी हैं या पूर्ण असहयोगी। उनकी सोच केवल अतिवादी ही होती है। इस सबने बापू को थका दिया। वे टूट गये। साबरमती अब उनके लिए दूसरा घर नहीं रह गया था। अनुभव का भव्‍य महल ढह गया था। उन्‍होंने अपने एक सहयोगी को पत्र लिखकर अपनी इस पीडा का वर्णन किया- भगवान ही जानता होगा कि अब मैं फ‍िर कहां फेंक दिया जाने वाला हूं।

सामान्‍य वैवाहिक या दाम्‍पत्‍य संबंध गांधीजी की दृष्टि में निषिद़ध थे। इस सबका उद़देश्‍य जीवनदायिनी वीर्य की रक्षा करना था। उसका कभी उपयोग नहीं करना था। वे वीर्य को ईश्‍वर का वरदान मानते थे, जिसे हर हालत में परिरक्षित, भंडारित और सुरक्षित रखना था। हालांकि चिकित्‍सा शास्‍त्र इस बात को बकवास बताता है। गांधीजी को इस बात से बहुत चिंता होती थी कि अनजाने ही उनका वीर्यपात हो जाता था। अनजाने में हुए वीर्यपात और गंदे सपनों की चर्चा उन्‍होंने कई बार अपने राजदार महिला मित्रों से की। वे इस बात से बहुत दुखी थे कि 60 और 70 के पार की उम्रों में इस तरह उनका वीर्य-स्‍खलन हुआ। इस तरह के प्रसंग सामान्‍य और स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति के जीवन में होते ही रहते हैं लेकिन गांधीजी के लिए यह उनके ब्रह़मचर्य के अभ्‍यास में रह गए दोष का परिचायक था। ज्‍यादा काम करने से पक्षाघात से पीडित हो जाने के बाद गांधीजी को मुंबई जाना पडा। वहां आराम ही आराम था। वहां उन्‍होंने एक दारुण अनुभव किया। इसका जिक्र उन्‍होंने अपनी मित्र प्रेमाबहन कंटक से किया। गांधीजी ने उनसे स्‍वीकार किया कि - मेरा स्‍खलन हो गया, लेकिन मैं जगा हुआ था और मेरा मन मेरे नियंत्रण में था। बाद में उन्‍होंने इसे अनिश्चित दुर्घटना बताते हुए उसे अनिश्चित स्‍खलन कहा। उन्‍होंने प्रेमाबहन को लिखे पत्र में बताया कि अनिश्चित स्‍खलन उन्‍हें हमेशा होता रहा है। दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान कई-कई साल के अंतराल से होता था। मुझे ठीक से याद नहीं। यहां भारत में महीनों के अंतराल से होता रहा है। उन्‍होंने दुखी लहजे में आगे लिखा कि अगर मेरा जीवन स्‍ख्‍लनों से पूर्णत मुक्‍त होता तो मैंने दुनिया को जितना दिया है उससे ज्‍यादा दे पाता, लेकिन जो व्‍यक्ति 15 से 30 वर्ष की आयु तक विषय-भोग में, भले ही अपनी पत्‍नी के ही साथ लिप्‍त रहा हो वह इतना जल्‍द इस पर नियंत्रण कर पायेगा इसमें मुश्किल लगता है। जारी-----

यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

स्‍त्री बनना चाहते थे गांधीजी

गांधीजी में स्‍त्री बनने की गहरी चाह थी। उन्‍होंने मनु गांधी से कहा था, मैं तुम्‍हारी मां हूं। मनु गांधी ने भी इस विषय पर - बापू- माई मदर नाम से एक पुस्तिका लिखी थी। जब गांधीजी के चचेरे भाई मगनलाल गांधी का निधन हुआ तो गांधीजी ने कहा था- मुझे विधवा कर गए।गांधीजी के साथ रहने वाली कई प्रसिद़ध महिलाओं को उनमें स्‍त्रीत्‍व का गुण दिखा। उनके इसी स्‍त्रीत्‍व गुण के कारण ही महिलाएं उनके करीब सहज महसूस करती थीं।

शायद यह सब उन्‍होंने अपने ब्रह़मचर्य धर्म के प्रयोग के लिए किया हो। जो भी हो गांधीजी के आलोचकों की दृष्टि में ब्रह़मचर्य कोई जीवन दर्शन नहीं, बल्कि महिलाओं के प्रति मोहातिरके था। यही वजह है कि उनके ब्रह़मचर्य के पालन का व्रत उनके खुद द़वारा ही कई खंडित किया गया। 1936, 1938, 1939, 1945 और 1947 में कभी उन्‍होंने अपना यह व्रत बंद किया और कभी शुरू किया। सालों से गुपचुप चल रहा उनके इस व्रत पर लोगों का ध्‍यान 1920 में गया। एक पत्र में गांधीजी ने तब लिखा था- जहां तक मुझे याद है, मुझे ऐसा कोई एहसास नहीं था कि मैं कुछ गलत कर रहा हूं, लेकिन कुछ साल पहले साबरमती में एक आश्रमवासी में मुझसे कहा कि इस क्रिया में युवतियों और स्त्रियों को शामिल करने से शिष्‍टता की स्‍वीकृत मान्‍यताओं को चोट पहुंचती है। 1935 में बात और भी बिगड गयी। उनसे वर्धा मिलने आए उनके सहयोगियों ने उन्‍हें सचेत किया कि वे बुरा उदाहरण पेश कर रहे हैं। उन्‍हें गांधीजी के आचरण का औरों के द़वारा अनुसरण किये जाने का खतरा दिखाई दे रहा है।

गांधीजी के जिन पुरुष सहयोगियों का वस्‍तुत कुछ महत्‍व था, उनमें से ऐसे बहुत कम थे जिन्‍हें गांधीजी के ब्रह़मचर्य के अभ्‍यास में विश्‍वास था। जब मुन्‍नालाल शाह ने शंका व्‍यक्‍त की तो गांधीजी का उत्‍तर था- निर्वसन मालिश करवाने या जब मैंने आंखे बंदकर रखी हों उस समय मेरी बगल हजार निर्वसन स्त्रियों के भी स्‍नान करने में भी क्‍या यह खतरा है कि कामदेव का बाण मुझे बेध देगा। निर्मल-मना सुशीला बहन से मालिश करवाते समय मुझे अपने आप से डर अवश्‍य लगता है। बावजूद उनके खुद के अंदर के इस डर के बाद भी उनका प्रयोग चालू रहा।

किसी बात की हद होती है। आखिरकार उनके घर में ही इसे लेकर भारी विरोध शुरु हो गया। देर रात उनकी शरीर को गरमाहट देने के काम के लिए आश्रम में रह रही उनकी कुछ रिश्‍तेदार ‍महिलाओं के पति ने यहां तक कह दिया कि ऐसा अगर जरुरी है तो हम खुद गांधीजी को शरीर की गरमाहट देने को तैयार हैं पर महिलाओं को आश्रम से हटाया जाए। इस विषय पर विनोबा भावे ने अंतिम बात कह डाली। उन्‍होंने कहा, अगर गांधीजी पूर्ण ब्रह़मचारी हैं तो उन्‍हें अपनी पात्रता को कसौटी पर कसने की जरुरत नहीं है। और अगर वे अपूर्ण ब्रह़मचारी हैं तो उन्‍हें ऐसे प्रयोग से बचना चाहिए। जारी---

यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

सेक्‍स और महात्‍मा गांधी

महात्‍मा गांधी के बारे में पढना कभी भी उबाऊ नहीं रहा। तभी तो रोमां रौला ने उन्‍हें दूसरे ईसा मसीह की संज्ञा दी थी। ठीक ईसा मसीह की तरह ही गांधीजी सहनशीलता भी पीडा और मौत का प्रतीक बन गयी। गांधीजी वैसे इक्‍का-दुक्‍का लोगों में शुमार हैं, जिन्‍होंने खुद को स्‍वनिर्मित हिजडा कहकर सेक्‍स की विभाजन रेखा समाप्‍त करने का दुस्‍साहस किया था। यहां हम गांधीजी के इसी दर्शन व उनकी जिंदगी के उन पक्षों में बात करेंगे जिसपर शायद अभी तक बहुत कम या नहीं के बराबर बात हुई है। ऐसा इसलिए कि हम जिन्‍हें पूजते हैं, उन्‍हें आंख मूंदकर पूजते हैं। पर क्‍या यह सच नहीं कि मन और शरीर के बीच के दुविधा के संबंध में स्‍वयं गांधीजी ने जो कुछ कहा उसे यदि हम पढने और समझने से इनकार करते हैं तो इस महानतम आधुनिक भारतीय के बारे में हमारी समझ हमेशा अधूरी ही रहेगी। क्‍या हमें यह नहीं जानना चाहिये कि जिस व्‍यक्ति ने करोडों लोगों को राजनीतिक स्‍वतंत्रता दिलाने वाले आंदोलन की अगुवाई की, वह क्‍या व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता के प्रश्‍न पर गुमराह हो गया था।

महिलाएं ही महिलाएं
गांधीजी के ब्रह़मचर्य दर्शन और इसके प्रयोग का अध्‍ययन करते हुए उनके जीवन पर नजर डालें तो एक बात बरबस ध्‍यान खींचती है - जिस व्‍यक्ति को समस्‍त दैहिक कामनाओं से परहेज था उसके जीवन में, एक स्‍तर पर मात्र महिलाएं ही महिलाएं थीं। उनके जीवन में दक्षिण अफ्रीका प्रवास से लेकर मरने तक उनका महिलाओं से घनिष्‍ठ संबंध रहा। ये सब जानते हैं कि दो युवतियों के कंधों पर हाथ रखकर सुबह-शाम टहलना उन्‍हें बहुत प्रिय था। इसी दिशा में अगला कदम था युवतियों से देर-देर तक मालिश करवाना। मालिश के बाद गांधीजी स्‍नान करते थे और उस दौरान भी उनकी सहायता के लिए किसी स्‍त्री की उपिस्थिति आवश्‍यक थी। ये महिला सहयोगी गांधीजी के साथ ही खुद भी स्‍नान करती थीं। ब्रह़मचर्य साधना की दिशा में गांधीजी का अगला कदम था अपनी बगल में या अपने से सटाकर स्त्रियों को सुलाना। अपने इस प्रयोग के संबंध में उनमें बेबाक सच्‍चाई थी। वे अपने नजदीकी लोगों को इस प्रयोग की जानकारी देते रहते थे, क्‍योंकि उन्‍हें मालूम था कि एक-न-एक दिन दुनिया को इस सबका पता लगना ही है।

आदर्श हिजडा
बहुतों की राय में गांधीजी में कोई शारीरिक आकर्षण नहीं था। लेकिन अपनी महिला सहयोगियों की नजर में उनमें काफी मोहकता थी। गांधीजी के प्रयोग का लक्ष्‍य पुरुष और नारी के बीच के भेद की समाप्ति था। उनका शयन स्‍थान प्रयोगशाला था। एकलिंगता शब्‍द के लोकप्रिय या प्रचलित होने से बहुत पहले ही उन्‍होंने इस हेतु का पक्ष-पोषण किया। एक बार गांधीजी ने अपने एक अनन्‍य सहयोगी रावजी भाई पटेल को एक पत्र में कहा था कि इंद्रियों के दमन से मन के विकार नहीं मिटते। यहां तक कि हिजडों में भी कामेच्‍छा होती है और इसलिए वे अप्राकृतिक कृत्‍यों के दोषी पाये गए हैं। गांधीजी ने केवल हिंदू परंपरा से ही नहीं, बल्कि ईसाइयत और इस्‍लाम से भी प्रेरणा ली। उन्‍हीं के शब्‍दों में- मुहम्‍मद साहब ने उन लोगों को कोई अहमियत नहीं दी, जिन्‍हें बधिया करके हिजडा बनाया गया था। लेकिन जो लोग अल्‍ला की इबादत के बल पर हिजडे बन गए थे, उनका उन्‍होंने स्‍वागत किया। उनकी आकांक्षा वैसी ही हिजडेपन की थी। जारी........

अगली कडी - स्‍त्री बनना चाहते थे गांधीजी

यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्‍तक से साभार है। इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद विटास्‍टा पब्‍िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली ने महात्‍मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्‍तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्‍मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्‍हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्‍य से इस पुस्‍तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

माडलिंग में भी महात्‍मा गांधी सबके बापू

माडल व माडलिंग - ये दो शब्‍द ऐसे हैं जिन्‍हें सुनने या पढने के बाद हमारे जेहन में किसी सुंदर काया की लडकी या चिकने-चुपने या फ‍िर रफ--टफ युवक की छवि उभरने लगती है। और वह भी किसी न किसी प्रोडक्‍ट के साथ। यानि, हर माडल की पहचान किसी न किसी प्रोडक्‍ट के साथ जुडी रहती है। और हां, अगर आपको यह बताना हो कि इंडिया का सबसे बडा माडल कौन है तो निश्चित ही आप कुछ देर सोचने पर विवश भी हो जाएं। पर आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि एक नई जानकारी के अनुसार महात्‍मा गांधी इंडिया के सबसे बडे माडल हैं। टेलीविजन, फ‍िल्‍म, न्‍यूजपेपर, मैगजीन और इंटरनेट जैसे मशहूर माध्‍यमों पर अधिकाधिक दिखने वाले और कमाई के स्‍तर पर अव्‍वल अमिताभ बच्‍चन, शाहरुख खान उनके आगे कहीं भी नहीं हैं।

यह बात थोडी अटपटी सी है पर इस बात का खुलासा तब हुआ जब खादी ने अपनी ब्रांडिंग के लिए किसी बडे माडल की तलाश शुरू की। अमिताभ बच्‍चन के अलावा राहुल गांधी सहित कई युवा नेताओं के नामों पर विचार करने के बाद निष्‍कर्ष यह निकला कि खादी के लिए महात्‍मा गांधी से बडा माडल कोई नहीं हो सकता। पूरी दुनिया में खादी की पहचान गांधी से ही है। यह बात शायद सबसे लोकप्रिय अभिनेता अमिताभ बच्‍चन के फैन्‍स को नागवार गुजरे।

केवीआईसी जो खादी के निर्माण व विपणन की केंद्रीय एजेंसी है ने इसके बाद खादी के ब्रांड एम्‍बेसेडर की नियुक्ति पर विचार करना ही छोड दिया। खादी के ब्रांड एम्‍बेसेडर की नियुक्ति के लिए अमिताभ व राहुल गांधी के अलावा जिन और नामी-गिरामी लोगों के नाम पर विचार किया गया उनमें हेमामालिनी, कपिल देव, ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, उमर अब्‍दुल्‍ला, प्रकाश्‍ा जावडेकर और नवीन जिंदल आदि शामिल हैं। पर ये सारे के सारे महात्‍मा गांधी के आगे फेल हो गए। यानि, बापू से उपर कोई नहीं हो सकता। हो भी क्‍यों न। आखिर महात्‍मा गांधी ने ही तो खादी को स्‍वतंत्रता की पोशाक कहा था।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

मंगलसूत्र पहनते हैं पार्टी के कार्यकर्ता

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हिंदू विवाह में मंगलसूत्र का क्‍या महत्‍व है। इसकी पवित्रता और इसका क्‍या रस्‍म-रिवाज है। पर क्‍या आपने कभी सोचा है कि मंगलसूत्र का कोई राजनीतिक उपयोग भी हो सकता है। नहीं न। तो लीजिये पढिये यह रोचक जानकारी-

यह चुनावी सीजन है। जाहिर सी बात है कि अभी चुनावी खबरों का बोलबाला है। नई व रोचक जानकारियां भी मिल रही हैं। ऐसी ही एक रोचक जानकारी चेन्‍नई से आई है- द्रमूक नामक राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता संगठन के प्रति अपनी वफादारी को साबित करने के लिए पार्टी के नाम का मंगलसूत्र पहनते हैं।

द्रमूक पार्टी के कार्यकर्ता अपने विवाह के अवसर पर बनने वाले मंगलसूत्र में पार्टी का चुनाव चिन्‍ह उगता सूर्य खुदवा कर अपनी पत्नियों को देते हैं जिसे वे खुशी-खुशी धारण करती हैं। यह पार्टी के प्रति वफादारी की मिसाल है। तमिलनाडू के एक गांव पट़टी में पिछले तीन पीढियों से यह परंपरा आज भी जारी है।
क्‍यों है न कमाल की जानकारी।


जरा सो‍चिये-
अगर राजद के कार्यकर्ताओं को ऐसी वफादारी दिखानी पडे तो उनकी पत्नियों को लालटेन पहनना पडेगा और कांग्रेस कार्यकर्ता अपना हाथ काटकर पत्‍नी के गले में लटका देंगे। इससे आपको अंगुलीमाल डाकू की कहानी तो याद आ ही गयी होगी। रालोद वालों की दुर्दशा तो सोचिये बेचारों को अपनी श्रीमति को जी इस बात के लिए सहमत करना कितना मुश्किल होगा कि प्‍लीज हैंडपंप अपने गले में लटका लो आखिर यह मेरी पार्टी का चुनाव चिन्‍ह है। इससे भी बुरा हश्र तो बसपा वालों का हो जाएगा वे हाथी को गले में लटकाएंगे या हाथी के गले में ही लटक जाएंगे। और न जाने किन-किन पार्टियों के क्‍या-क्‍या चुनाव चिन्‍ह होते हैं उनका क्‍या होगा।
है न फनी थिंकिंग ----

रविवार, 12 अप्रैल 2009

बिन मांगे बीवी मिले, मांगे मिले न भीख

मानो या न मानो। है सत्‍य घटना। यूपी के बागपत जिले में पिछले दिनों हुआ यह अजीब वाकया। मुजफ़फरनगर जिले के गांव बिराल का एक फकीर जिसका नाम धनराज है भीख मांगते-मांगते एक दिन पहुंचा बागपत जिले के गांव लुहारी में। एक दर पर भीख दे दो की रट लगाते-लगाते काफी देर हो चुकी थी पर कोई रेस्‍पांस नहीं मिल रहा था। निराश होकर वह वहां से निकलने ही वाला था कि उस घर से एक लगभग 65 वर्षीया महिला निकली और भीख देने के बजाय उसे भौंचक देखती रह गयी। तुरंत ही वह महिला मेरे प्राणनाथ आ गए कहते हुए उस फकीर के पैरों पर गिर पडी। और फ‍िर झट से उसे खींचते हुए घर के अंदर ले गयी। फकीर हैरान-परेशान था कि न जाने यह हो क्‍या रहा है। घर के अंदर दाखिल होते ही लगभग तीस वर्षीया एक युवती ने उसे देखते ही पिता कहकर पुकारना शुरु कर दिया। उस अधेड महिला ने भी उस पर कई सवाल दागे। मसलन, तीस साल पहले तुम हमलोगों को छोडकर कहां और क्‍यों चले गए थे।

अब तक फकीर धनराज को थोडी-थोडी बात समझ में आने लगी थी। उसने सफाई पेश की- देखिये आपलोगों को जरुर कोई लगतफहमी हो रही है। मैं मुजफ़फरनगर जिले के कांधला क्षेत्र के गांव बिराल का बीवी-बच्‍चे वाला आदमी हूं। आपलोगों से भला मेरा क्‍या लेना-देना। पर धनराज की इस सफाई का उन मां-बेटी पर कुछ असर नहीं हुआ। उनदोनों ने यह कहते हुए कि इतने सालों बाद लौटे हो, अब तुम्‍हें कहीं न जाने देंगें, घर में कैद कर लिया। धनराज की मुश्किलें बढ गयीं। वह परेशान हो उठा। खैर किसी तरह दो दिनों बाद वह वहां से निकल भागा। लेकिन यह क्‍या, वह जैसे ही अपने घर पहुंचा। दोनों मां-बेटी वहां भी पंचायत लेकर पहुंच गयीं। पंचायत के सामने भी मुश्किल खडी हो गयी कि आखिर वह फैसला किसके हक में करे। पंचायत ने यह तर्क दिया कि एक 65 वर्ष की महिला का कोई 35 वर्ष का युवक पति कैसे हो सकता है। पर वह महिला किसी भी तर्क को सुनने को तैयार नहीं थी। वह तो अपने तीस साल बाद मिले पति को अपने साथ ले जाने पर अडिग थी। अब मामला पुलिस के पास पहुंच चुका है। पर पुलिस भी हैरत में है कि आखिरकार वह इस मसले को कैसे सुलझाये।

क्‍या आपके पास कोई उपाय है इस मसले को सुलझाने के लिए।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

क्‍या आप जरनैलिज्‍म से सहमत हैं

दोस्‍तों दो सप्‍ताह बाद लौटा हूं। एक नये ख्‍यालात के साथ! आपने गौर तो किया ही होगा जितने ही जूता प्रकरण हुए उनमें मुख्‍य रुप से उपस्थित रहा है। जैदी-जार्ज, जरनैल और अब जिंदल। खैर मैं यहां आपका तव्‍वजों दूसरी बात की तरफ चाहता हूं। मेरे मन में एक विचार आया है। शायद आप भी सहमत होंगे। क्‍या विरोध जताने के लिए जूत्‍ते मारने के तरीके को कोई नया नाम नहीं दिया जाना चाहिए। वह भी तब जबकि यह तरीका खूब तेजी से लोगों को रास आ रहा है, पसंद आ रहा है।

मेरा मानना है कि जूत्‍ते मारकर या फेंककर विरोध जताने की प्रक्रिया को हमें जरनैलिज्‍म नाम दे देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि इस नाम में देशीपन है। मिट़टी की सोंधी खूशबू है। भले ही इस तरह विरोध करने का तरीका विदेश से लोकप्रिय हुआ हो पर भारत में यह तेजी से चलन में आ गया है। क्‍या आप इस बात से सहमत हैं। या कुछ और सोच रहे हैं-

खैर, इस बात पर भी आम राय बनानी जरुरी है कि क्‍या विरोध का यह तरीका सही है।

मंगलवार, 31 मार्च 2009

मत जाना भूल, बन जाओगे अप्रैल फूल


आज पहली अप्रैल है, तो सतर्क रहिए, कहीं कोई आपको मूर्ख न बना दे। दोस्‍त-परिचित आपकी कमजोरियों से वाकिफ होते हैं, इसलिए छठी इंद्री को जगाकर रख्रिए। हर खबर सुनने के बाद सोचिए-विचारिए, उसके बाद ही खबर पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। इस बार युवाओं में खासा क्रेज है और मोबाइल इसमें भूमिका निभाएगा।

तनाव भरी जिंदगी में कुछ पल चा‍हिए हंसने-हंसाने के लिए और इसके लिए चाहिए एक अदद बहाना। अप्रैल फूल भी ऐसा ही बहाना है। इसे मनाने के लिए किसी ने फनी मैसेज खोज निकाला है तो किसी ने कोई बहाना।


दोस्‍तों एक बात अवश्‍य ध्‍यान में रखें। मजाक करें तो एक हद में। इसका भी ख्‍याल रखें कि जिससे मजाक किया जा रहा है, वह इसे किस तरह लेगा। कहीं ऐसा न हो आपका मजाक हादसे में बदल जाए और अप्रैल फूल से माहौल अप्रैल शॉक में बदल जाए। वेसे आपको बता दें कि ऐसा माना जाता है कि 1582 में फ्रांस से अप्रैल फूल मनाने की शुरुआत हुई। इसके बाद यह पहले यूरोप और फ‍िर दुनिया भर में मनाया जाने लगा। अप्रैल फूल मनाने के बारे में कोई सटीक तथ्‍य मौजूद नहीं है, लेकिन दुनिया भर के अखबार और टीवी चैनलों ने पहली अप्रैल को कोई न कोई ऐसी खबर प्रकाशित या प्रसारित कर अपने पाठको व दर्शकों को मूर्ख बनाया है, जिससे रोमांच और हंसी-खुशी का माहौल कायम हुआ है।


ऐसे भी बने थे लोग अप्रैल फूल


मोजा रगडिए और टीवी कलर - 1962 में स्‍वीडन में एक ही टीवी चैनल था। वह भी ब्‍लैक एंड व्‍हाइट कार्यक्रम प्रसारित करता था। पहली अप्रैल को एनाउंसर ने कहा कि नई टेक्‍नोलाजी का कमाल देख्रिए, अपने नाइलोन के मोजे को स्‍क्रीन पर रगडिए और आपका टीवी कलर हो जाएगा। हजारों लोगों ने उसकी बात पर विश्‍वास कर लिया, लेकिन बाद में बताया गया कि आज फर्स्‍ट अप्रैल है।


उड रही है पेंगुइन - वर्ष 2008 में पहली अप्रैल को बीबीसी ने समाचार दिया कि उसकी कैमरा टीम ने अपनी नेचुरल हिस्‍ट्री सीरिज मिराकिल आफ इवाल्‍यूशन के लिए हवा में उडती पेंगुइन को कैमरे में कैद किया है। इसकी बाकायदा वीडियो भी दिखाई गई। यह सबसे ज्‍यादा हिट पाने वाली वीडियो साबित हुई। बताया गया कि ये पेंगुइन हजारों मील दूर उडकर दक्षिण अमेरिका के वर्षा वाले जंगलों में जा रही है, जहां ये सर्दी के मौसम तक रहेंगी। बाद में एक वीडियो जारी कर स्‍पष्‍ट किया गया कि स्‍पेशल इफेक्‍ट के जरिए पेंगुइन को उडाया गया था।
उम्‍मीद है अब तक आप सारी बात समझ गए होंगे। इसलिए हो जाइये सावधान, क्‍योंकि आज है अप्रैल फूल दिवस।

शनिवार, 28 मार्च 2009

ताकि पैदा हो सकें अच्‍छे पत्रकार

भारतीय प्रेस परिषद के अध्‍यक्ष न्‍यायमूर्ति बीएनरे ने कहा है कि पत्रकारिता शिक्षण संस्‍थानों के नियमन के लिए नियंत्रक संस्‍थान बनाया जाना चाहिए। उन्‍होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर पत्रकारिता को चिकित्‍सा प्रबंधन, इंजीनियरिंग और अन्‍य व्‍यवसायिक विषयों के स्‍तर तक पहुंचाना है तो उन व्‍यावसायिक शिक्षण संस्‍थानों के नियमन के लिए बनाए गए संस्‍थान की तरह ही पत्रकारिता शिक्षा के नियमन के लिए अलग से मीडिया परिषद बनाये जाने की जरुरत है। उन्‍होंने कहा कि इसके लिए हमने भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के सहयोग से पहल की है ताकि एक कोर समूह बनाया जा सके।

दिल्‍ली यूनियन आफ जर्नलिस्‍ट, दिल्‍ली मीडिया सेंटर फार रिसर्च एंड पब्लिकेशंस तथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्‍वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम में न्‍यायमूर्ति बीएनरे ने इस बात का जिक्र भी किया कि मीडिया के सभी पक्षों के लिए पूरी तरह से स्‍वायतशासी मीडिया परिषद बनाया जाना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि वर्तमान में पत्रकारिता काफी चूनौतीपूर्ण है, इसके लिए पत्रकारों को तकनीकी जानकारी, गुणवत्‍ता पूर्ण प्रशिक्षण और भाषा पर सशक्‍त पकड होना आवश्‍यक है।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

भोजपुरी गजल

एक
जिंदगी सहकल रहे
मन तनी बहकल रहे

तन-बदन के के कहो
सांस ले दहकल रहे

मन के वन में आग-जस
जाने का लहकल रहे

चांद के आगोश में
चांदनी टहकल रहे

रात रानी रात-भर
प्‍यार से महकल रहे

दो
छन में कुछ अउर कुछ भइल छन में
मन में कुछ अउर कुछ भइल तन में

फूल सेमर के दिगमिगाइल बा
आग लागल बा जइसे मधुबन में

अइसे चमके लिलार के टिकुली
हो मनी जइसे नाग का फन में

बात खुल के भले भइल बाकिर
कुछ-ना-कुछ बात रह गइल मन में

(उपर वाला दुनो गजल पांडेय कपिल जी के बाटे। पांडेय कपिल जी भोजपुरी के वरिष्‍ठ आ प्रतिष्ठित रचनाधर्मी हईं।)

रविवार, 22 मार्च 2009

ताकि गुजर न जाए गोधरा

डब्‍ल्‍यू एच आडिन एक शायर था,
उसने कहा था
अगर हम एक-दूसरे से प्‍यार नहीं करेंगे
तो मर जाएंगे।
मैं भी इस बात को मानने लगा था
पर अब असहमत होना चाहता हूं।

जंगल से शहर की यात्रा में
बहुत पाया आदमी ने।
चार की जगह दो पैर पर चलना सुहाया आदमी को।
पर बाकी है कहीं हैवानियत का अंश कोई
नहीं तो खींच लाता आदमीयत के शिखर से आदमी को।

अगर आपको याद हो,
साबरमती एक्‍सप्रेस में भी आदमीयत मरी थी
तब भी मरी थी आदमीयत जब...
मां की गोद से बच्‍ची को छीनकर
संगीन पर उछाल दिया गया था,
और तब भी आदमीयत ही मरी थी
जब नाम पूछ कर सर कलम कर दिया गया था
रामभरोसे और यकीन अली का,
कभी गुजरें आप गोधरा से तो देख सकते हैं यह सब।

क्‍या सचमुच देख सकेंगे आप वह सब
जो सहा था गोधरा ने ?
सत्‍तावन लोगों को जिंदा जला दिया जाना
बच्‍चों के आंखों की दहशत और औरतों की चीख
क्‍या सुन पाएंगे आप?

रामभरोसे की पत्‍नी की आंखों के सूख गए आंसू
यकीन अली के मां की पथराई आंखें
शायद न दिखे आपको
क्‍योंकि बहुत पुरानी हो चुकी यह बात
क्‍योंकि जब आप गुजर रहे होंगे गोधरा से
सो रहे होंगे, सो रही होगी आपकी आदमीयत।

यह सब कुछ दिखेगा तभी
जब जगेगा आपके अंदर का आदमी
इसलिए हो सके तो, जगने दीजिए
अंदर के आदमी को
जब भी ये आदमी जगेगा
तब कोई गोधरा गुजरेगा नहीं इस तरह।

मेरे पत्रकार मित्र सचिन श्रीवास्‍तव ने अपने ब्‍लाग नई इबारतें पर कुछ दिनों पहले एक पोस्‍ट में मुझे जानने वालों से यह गुजारिश की थी कि मुझे कविता लिखने के लिए उकसाया जाए। यह कविता उसी का परिणाम है। इसलिए सचिन को समर्पित है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

महात्‍मा गांधी का पुर्नजन्‍म


गाजियाबाद पुलिस ने एक ऐसे व्‍यक्ति को गिरफ़तार किया है, जो खुद को महात्‍मा गांधी बताकर लोकतंत्र व मतदान का विरोध कर रहा था। सफेद धोती, गले में लटकी जेब घडी और हाथ में लाठी। आंखों पर गोल ऐनक वाला चश्‍मा यानि, पूरा का पूरा लूक महात्‍मा गांधी का। यह गांधी पिछले कई दिनों से शहर में है और जगह-जगह पोस्‍टर और पंपलेट की मदद से लोकतंत्र व मतदान का विरोध कर रहा है। इसका कहना है कि गंदी व भ्रष्‍ट राजनीति का शुदि़धकरण करने के लिए आवश्‍यक है कि लोगों को तब तक मतदान का बहिष्‍कार करना चाहिए, जब तक कि एक स्‍वच्‍छ व न्‍याय संगत लोकतंत्र की स्‍थापना नहीं हो जाती। स्‍वच्‍छ लोकतंत्र के आने तक देश में राष्‍ट्रपति शासन रहना चाहिए।

महात्‍मा ग्रांधी के इस आधुनिक संस्‍करण की पहचान मूल रुप से मथुरा निवासी डाक्‍टर महेश चतुर्वेदी के रुप में हुई। मनोविज्ञान में शोध कर चुके महेश चतुर्वेदी कुछ महीने पहले तक हरिद़वार स्थित बीएचईएल कंपनी में बतौर प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। किसी वजह से उन्‍होंने यह नौकरी छोड दी। चतुर्वेदी का कहना है कि वे पूर्व में राष्‍ट्रपति पद के लिए चुनाव लड चुके हैं। डा महेश खुद को राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी का पुर्नजन्‍म बताते हैं।

बुधवार, 18 मार्च 2009

यौन आलोचना में उलझे लेखक-पत्रकार

यह कटू सत्‍य है कि समाज के सामान्‍य लोग लेखकों, पत्रकारों पर पूर्ण रुप से विश्‍वास नहीं करते। यही वजह है कि हमेशा ही इनकी निजी जिंदगी के बारे में लोग बडे ही उल्‍टे-पुल्‍टे सवाल करते हैं। वे यह जानने को इच्‍छुक होते हैं कि क्‍या निजी जीवन में भी इनका व्‍यवहार नाटकीय, इनकी भाषा प्रभावशाली और रहन-सहन इनके पात्रों जैसा ही होता है। दो लेखक या पत्रकार जब मिलते हैं तो क्‍या बाते करते हैं। क्‍या ये भी अपने परिवार व बच्‍चों से उतना ही प्‍यार करते हैं। अभिभावक या जीवनसाथी के रुप में लेखक-लेखिका व पत्रकार कितना भरोसेमंद होते हैं। मेरे एक मित्र ने बताया कि उसकी पत्‍नी से उसकी एक सहेली ने पूछा- आपके पति आपसे प्‍यार कब करते हैं। मेरी समझ में यह सवाल इनोसेंट न होकर एक खतरनाक है।

यह विडंबना नहीं तो क्‍या है कि समाज को दिशा दिखाने का दंभ भरनेवाले एक वर्ग विशेष के प्रति लोगों की ऐसी धारणा बन गई है। वे इनके मूल चरित्र को ही नहीं समझ पाते हैं। वे इस उलझन में सदैव रहते हैं कि यह आदमी जैसा दिखता है क्‍या वैसा ही है। हो भी क्‍यों नहीं, लोगों को पता है कि जब दो चित्रकार मिलते हैं तो वे अपनी कला आदि पर चर्चा करते हैं। दो संगीतकार मिलते हैं तो वे भी स्‍वरों, साजों आदि पर खूब विचार-विमर्श करते हैं पर इसके विपरीत जब एक से अधिक लेखक या पत्रकार कभी-कभार मिलते हैं तो इसके पीछे अक्‍सर या तो विशु़दध उत्‍सुकता होती है या फ‍िर दूसरे के प्रति गहरी सराहना का भाव। वरना सामान्‍यत: एक साथ बैठने पर वे परस्‍पर वैमनस्‍य का ही प्रदर्शन करते हैं। एकाध उन खास अवसरों को छोडकर जब उन्‍हें एक-दूसरे के प्रति स्‍वार्थ न दिख रहा हो। प्राय: तो ये एक-दूसरे की छीछालेदर और टांगखिंचाई में ही अपना कीमती वक्‍त जाया कर देते हैं।

यही वजह है कि आज भी जिन दिवंगत मूर्धन्‍य साहित्‍यकारों के प्रशंसक आराधना करते नहीं थकते हैं उनके बारे में उनकी ही बिरादरी के लोग ओछी जानकारियों को यदा-कदा एक-दूसरे से शेयर कर अपनी मूर्खतापूर्ण जानकारी का परिचय देने से भी नहीं चूकते। जैसे- प्रेमचंद सूद पर रुपया देते थे, जैनेंद्र स्‍वेच्‍छाचार के हिमायती थे,भारतेंदू ने अपने बाप-दादों की कमाई तवायफों के पास आने-जाने में खूब उडाई, शरतचंद्र व्‍याभिचारी थे आदि-आदि। कई किस्‍से तो आज के नामी-गिरामी साहित्‍यकारों पर भी मशहूर हैं। जैसे- फलां आलोचक के विवाहेत्‍तर संबंध हैं, फलां कवि की पत्‍नी फलां प्रकाशक की रखैल है।

मेरी समझ में पत्रकारों, लेखकों का वर्ग अपने मित्रों व अपने पूर्वज या वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों के बारे में जब तक इस तरह की बेहूदा कमेंट या मनगढंत बातें करता रहेगा लोग भी इनके बारे में उल्‍टी-सीधी धारणा बनाते रहेंगे। क्‍योंकि निजी यौन जीवन से आगे भी बहुत सी बातें ऐसी हैं जिसपर चर्चा की जा सकती है, की जानी चाहिए। ताकि किसी पत्रकार की पत्‍नी की सहेली उससे उसके पति पर संदेह करते हुए सवाल न कर सके। ताकि शराबी चरित्र के नायक की कहानी पढते हुए कोई पाठक कहानीकार के बारे में ऐसा न सोचे कि आखिर कितनी पैग शराब पीकर यह कहानी लिखी गई होगी। किसी बेस्‍टसेलर उपन्‍यास के बारे में किसी के मन में यह सवाल पैदा न हो कि आखिर कितनी महंगी कलम से किस स्‍टैंडर्ड के कागज पर यह लिखा गया होगा।

सोमवार, 16 मार्च 2009

शिवगंगा में संगम

उफ... ऐसे नहीं... क्‍या कर रहे हो... मेरा पैर ढको... जैसी विचलित करने वाली आवाज से मैं जूझ ही रहा था कि धडाधड पप्पियों-झप्पियों की बारिश होने लगी। यह सब कुछ हो रहा था मेरे सामने वाली बर्थ पर। बात 14 मार्च की है। मैं शिवगंगा एक्‍सप्रेस से वाराणसी से गाजियाबाद आ रहा था। चूकि मुझे कनफर्म बर्थ नहीं मिल पाया था इसलिए मैं अपर बर्थ पर एक उम्रदराज महिला से इजाजत लेकर बैठ गया था, उस महिला की उम्र लगभग 70 साल की रही होगी। हालांकि मैं काफी थका हुआ था पर सो पाने की कोई गुंजायश कतई नहीं थी। पूरा डिब्‍बा यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था। गेट से लेकर बर्थ तक। जो जहां बैठ सकता था, बैठा था। रात काफी हो रही थी, सारे यात्री लाइट आफ कर सो रहे थे इसलिए मैं कुछ पढ भी नहीं सकता था। मैं जिस बर्थ पर बैठा था वह महिला कुछ-कुछ बीमार सी लग रही थी। मैंने महसूस किया कि वह पूरे टाइम जगी ही रही। अब तक मैं सामने वाले बर्थ से थोडी-थोडी देर पर पप्पियों-झप्पियों की आवाज सुनने का लगभग आदी हो चुका था।
सुबह चार बजे मुझे उस महिला ने लगभग गुजारिश के लहजे में कहा, बेटा मुझे बाथरुम पहुंचा दो। इससे पहले वह नीचे की बर्थ पर सो रहे अपने घरवालों को कई बार पुकार चुकी थी। खैर, मैंने सहारा देकर उसे बर्थ से नीचे उतारा। उसने अपने चप्‍पल पर से उठाकर कोई वस्‍तु मुझे देते हुए कहा- देखना यह किसी का कोई सामान गिर गया लगता है। मैं अवाक रह गया। वह कंडोम का खाली रैपर था। जब मैं उसे बाथरुम से लेकर लौट रहा था, उसने मुझसे स्‍वाभाविक सवाल किया- बेटा वह क्‍या था, तुम्‍हारा था। मैंने सहज होते हुए जवाब दिया, नहीं अम्‍मा जी वह चाकलेट का खाली पैकेट था, किसी बच्‍चे ने खाकर फेंका होगा।
उसके बाद मैं असहज महसूस करता रहा। अब मुझे सुबह होने का इंतजार था।
खैर प्रतीक्षा खत्‍म हुई, सुबह हो चुकी थी। ट्रेन अलीगढ जंक्‍शन पार कर चुकी थी। मेरे सामने वाली अपर बर्थ पर सो रहे युगल को जगाने उनके कई दोस्‍त आए। मैंने पत्रकारीय गुण का इस्‍तेमाल किया। तस्‍वीर साफ हो चुकी थी। दरअसल, वे दोनों ग्रेटर नोएडा की किसी इंस्‍टीच्‍यूट के कंप्‍यूटर साइंस के स्‍टूडेंट थे व प्रेमी युगल भी। होली के अवकाश के बाद घर से लौट रहे थे। लडका बनारस का था, लडकी इलाहाबाद की। दोनों की प्रेम कहानी उनके कालेज कैंपस में काफी मशहूर है। लगभग दस छात्रों का समुह अब तक वहां जमा हो चुका था। वे सभी उन दोनों को जिस तरह से मुस्‍कराकर देख रहे थे उससे मुझे अपने सारे सवालों को जवाब मिल गया था। गाजियाबाद में ट्रेन चार नंबर प्‍लेटफार्म पर रुकी और मैं उतर गया।
इससे मेरा यह विश्‍वास तो पुख्‍ता हो ही गया कि नये युवा प्रेमियों का दिल, जिगर, गुर्दा सब फौलाद का बना है। वह जहां चाहें, जो चाहें कर सकते हैं। जब वे प्‍यार में होते हैं तो उन्‍हें किसी की भी परवाह नहीं होती। उन्‍हें जो करना है, वे बिना परवाह के कर गुजरते हैं। हम तब भी कमजोर थे और अब भी हैं। जिसे वर्षों से चाहते रहे उसका हाथ पकडने तक का साहस नहीं जुटा पाए। इजहार करने का तरीका कहां-कहां नहीं ढूंढा। पार्क में झाडियों के पीछे छिप कर कुछ करने का आइडिया अब तक नहीं आया। घंटों फूलों का लुत्‍फ उठाकर खुशी-खुशी घर लौट आते थे, जैसे कोई बहुत बडी उपलब्धि हासिल कर ली हो। पर इन प्रेमी युगल जैसा साहस कभी नहीं हुआ।

सोमवार, 9 मार्च 2009

वह कौन था



एक दिन सुबह वह
अपनी उत्‍पति के बारे में जानने की
खुनी और रुहानी जल्‍दबाजी में पाया गया,


वह पागलों की तरह खुद को
कभी हिंदू तो कभी मुसलमान कहकर
चिल्‍ला रहा था,



जाहिर है
उसके सोचने के बारे में
भला हम क्‍या सोच सकते थे
हमने उसकी ओर गौर से देखा,
पर पहचानना मुश्किल था
बावजूद इसके कि
वह आया हमीं में से था।

शनिवार, 7 मार्च 2009

नारी मुक्ति या देह मुक्ति : भाग-दो

स्त्री-शरीर के साथ शुचिता का जो तमगा लटका दिया गया है (पुरुष जिससे पूरी तरह मुक्त है), उससे स्त्री को मुक्त होना ही होगा। विधवा, तलाकशुदा, बलात्‍कार की शिकार स्त्रियां दूसरे पुरुष के लिए क्यों त्याज्य हैं? सच पूछा जाये तो यह समस्या स्त्रियों से ज्यादा पुरुषों की है, क्यों कि स्त्री-पुरुष को लेकर पाक-पवित्र की धारणाएं तो उनके मन में ही जड़ें जमाए बैठी हैं। यहां मेरा अभिप्राय उन स्त्रियों से नहीं है जो देह की स्वतंत्रता की आड़ में देह के बल पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की सीढिय़ां चढ़ती हैं। कास्टिंग काउच को बढ़ावा देने में ऐसे स्त्रियों की भूमिका ज्यादा संदिग्ध है।मैं इस बात को सिरे से खारिज करता हूं कि - सेक्स की स्वतंत्रता ही स्त्री की असली स्वतंत्रता है। फिर तो यह सवाल भी उठना चाहिए कि सेक्स की स्वतंत्रता का मतलब क्या है? इसका स्वरूप क्या होगा और हमारे समय और समाज के संदर्भ में क्या इसकी कोई संभावना भी है? क्योंकि अभी तक या तो वेश्याएं इस स्वतंत्रता का उपभोग करती रही हैं या फिर जानवर।

सवाल जटिल है। जवाब आसानी से नहीं मिलने वाले। मगर चर्चा जारी रहनी चाहिए। हां, अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के बाद भी...

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

नारी मुक्ति या देह मुक्ति

हिंदी के कुछ काम कुंठित स्त्री चिंतक व विचारक सेक्‍स की मुद्रा बनाकर सेक्स मुक्ति में ही स्त्री मुक्ति का महामंत्र खोजने में लगे हैं। संयोग से कुछ प्रतिभाग्रस्त लेखिकाएं अपने लेखन को इसी के आग्रह पर फार्मूलाबद्ध कर रही हैं, जिसे कुछ पत्रिकाएं समकालीन बेबाक स्त्री लेखन का प्रतिमान बना रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम हिंदी की कुछेक साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठों पर जिस स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति आदि का मानचित्र देख रहे हैं, दरअसल, वह तथाकथित बुद्धिजीवियों की उन मनोग्रन्थियों के विकार से बन रहा है, जो समाज की हर स्त्री को उन्मुक्त आकाश देकर लगभग पोर्न स्टार बना देने को लिए आतुर हैं।बढ़-चढ़कर लिखे गये यौन अंतरंगताओं के वृतांतों को सर्वाधिक श्रेष्ठ और सफल लेखन का दर्जा दिया जा रहा है। साहित्य के ऐसे स्वघोषित नारीवादी रचनाकार स्वयं को नारी मुक्ति का झंडाबरदार मानने लगे हैं। वे देह मुक्ति की पताका को ऐसे लहरा रहे हैं जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका की चुनरी।मेरा सवाल यह है कि क्या स्त्री की सारी लड़ाई पुरुष के समकक्ष खड़ा होने में है और वही सब करने-लिखने में है जो पुरुष करता है? फिर तो स्त्री की समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए। तथाकथित स्त्री विमर्शकार की भी यही मंशा है कि स्त्री उसी की भाषा में वही बोले, जो वह सुनना चाहता है। वही लिखे, जैसा वह लिखवाना चाहता है। क्या स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती? क्या स्त्री को मात्र देह के रूप में देखने वाले ऐसे रचनाकारों को स्त्री विमर्श करने का अधिकार दिया जाना चाहिए?अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ब्लाग लिखने-पढऩे वालों से उपरोक्त सवाल समझदारी व ईमानदारी से जवाब मांग रहे हैं।

बुधवार, 4 मार्च 2009

पुरस्‍कार गुणवत्ता का पर्याय नहीं


कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमेशा ही निर्भीक बने रह सकते हैं। कोई भी लालच उन्हें डिगा नहीं सकता, और न ही कोई प्रलोभन उन्हें प्रभावित करता है। लालसाविहीन ऐसे लोग हमेशा ही समाज के लिए प्रेरक होते हैं, और अनुकरणीय भी। प्रख्यात साहित्यकार व शीर्षस्थ कवि प्रो केदारनाथ सिंह भी ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं। हाल में ही यूपी सरकार ने उन्हें प्रदेश के शीर्ष पुरस्‍कार भारत भारती से नवाजा। पुरस्‍कार को पूरा सम्मान देते हुए श्री सिंह ने उसे ग्रहण किया पर समय आने पर अपने मन की बात भी कहने से नहीं चूके।हाल में ही प्रकाशित एक साक्षात्‍कार में प्रो.केदारनाथ सिंह ने कहा कि वे पुरस्‍कार को गुणवत्ता का पर्याय नहीं मानते। उनका कहना है कि यह एक औपचारिक चीज है जिसके निर्धारण में वर्तमान दौर में बहुत से अनचाहे मानक भी कार्य करते हैं। मुझे इससे पहले कई प्रदेशों के साहित्य के बड़े पुरस्‍कार प्राप्त हो चुके हैं। यह सौभाग्य की बात है कि उत्तर प्रदेश ने मुझे भारत भारती पुरस्‍कार के काबिल समझा। पर पुरस्‍कार गुणवत्ता का पर्याय नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसके बाद मेरे लेखन में कोई व्यापक परिवर्तन होगा। दरअसल, मेरे जैसे मध्यवर्गीय लेखक व कवि के लिए पुरस्‍कार की धनराशि संचित रायल्टी की तरह है जो तमाम जरूरतों को पूरा करने में मददगार होती है। उनका कहना था कि प्रदेश सरकारों की जो समिति, संस्थाएं या अकादमी हैं उन्हें स्वायत्त होना चाहिए। सरकार कि भूमिका निरपेक्ष व केवल अनुदान देने तक सीमित होना चाहिए।
पढने में बिहार, बंगाल अव्वल
केदारनाथ सिंह ने कहा कि पश्चिम बंगाल व बिहार आदि क्षेत्रों में आज भी किताबें ठीक से पढ़ी जाती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में पुस्तक मेला में बिहार की एक चौथाई किताबें भी नहीं बिकती हैं। बावजूद इसके पुस्तकों के प्रति रुझान घटा नहीं है बल्‍िक ई-लर्निंग आदि माध्यमों से तरीके बदल गये हैं।
पाठक प्रशिक्षण आवश्यक
कवि केदारनाथ सिंह के अनुसार कविता का पाठक हमेशा सहृदय व रसिक होना चाहिए। पाठक का एक न्यूनतम प्रशिक्षण आवश्यक है। वैसे भी कविता का पाठक सामान्य पाठक से भिन्न है। कविता एक सलेक्टेड कम्यूनिटी के लिए लिखी जाती है और इसका निश्चित पाठक वर्ग होता है। केवल तुलसीदास ही इसके अपवाद है।
इस दौर में जब एक से एक धूरंधर पुरस्‍कार व सम्मान हासिल करने के लिए हर तरह के जोड़-तोड़ करते दिख रहे हैं। ऐसे में आप कवि केदारनाथ सिंह की बातों से कितने सहमत हैं।

दुखद - यादवेंद्र शर्मा चंद्र नहीं रहे


प्रख्‍यात साहित्‍यकार यादवेंद्र शर्मा चंद्र का बुधवार को जयपुर में निधन हो गया। वह लंबे समय से बीमार थे। 77 वर्षीय चंद्र अपने पीछे पत्‍नी और तीन बेटे छोड गए हैं।
चंद्र ने अपनी रचनाओं से समाज को नई दिशा देने का काम किया। उनकी रचनाएं पाठकों के मन पर अमिट छाप छोडती हैं। आजीवन सादगी एवं इमानदारी से रहते हुए उन्‍होंने अपने रचनाधर्म से देश का मान बढाया। कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित चंद्र ने उपन्‍यास, लघु कथाएं, कविता संग्रह एवं लघु नाटकों की सौ से ज्‍यादा पुस्‍तकों की रचना कर हिंदी सहित्‍य में अहम भूमिका निभाई। उनका निधन हिंदी साहित्‍य के लिए अपूरणीय क्षति है। आइए उनके निधन पर संवेदना प्रकट करें।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

फ‍िजा की फ‍ितरत

खबर है, हरियाणा के पूर्व उप मुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन के साथ प्रेम विवाह के चलते मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाली फ‍िजा शीघ्र ही फ‍िल्म में नजर आएंगी। उन्‍हें फ‍िल्‍म देशद्रोही-2 के सेट पर देखा गया। उन्होंने मीडिया से बातचीत भी की। फ‍िल्म देशद्रोही के अभिनेता व निर्माता कमाल खान ने कहा कि फ‍िजा उनकी इस फ‍िल्म में नजर आएंगी। इसका मतलब यह है कि अभी तक उनके बारे में जो कयास लगाए जा रहे थे वे सच साबित हो रहे हैं। उन्होंने पब्लिसिटी हासिल करने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए और अब उसका फायदा उठा रही हैं। निश्चित रुप से यह कहा जा सकता है कि उन्होंने प्रेम करने वालों को रुसवा किया है। प्रेमियों के विश्वास को झुठलाया है। क्या आप इससे सहमत हैं। अपने विचार से अवश्‍‍य अवगत कराएं।

पाक तूने क्‍या किया ?

पाकिस्‍तान के लाहौर में टेस्‍ट क्रिकेट खेलने गई श्रीलंका टीम के खिलाडियों पर जानलेवा हमले और उन्‍हें बंधक बनाने की कोशिश पर खेल जानकार विश्‍वमोहन मिश्रा की त्‍वरित टिप्‍पणी...

पाकिस्‍तान यानी आतंकवाद का सुरक्षित गढ़.... जी हां जिसका डर था वही हुआ। भारत जब चिल्ला- चिल्लाकर विश्व समुदाय को आतंकवाद के खतरे से आगाह करा रहा था, तो इसे महज फारन डिप्लोमेसी का एक हिस्सा मानकर उतना तवज्जो नहीं दिया जा रहा था। क्यों कि यह मामला हिंदुस्तान और पाकिस्तान का था। नवंबर के मुंबई बम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान में क्रिकेट टीम न भेजने का फैसला किया था। उस वक्त पाक ने कहा था- भारत उसे बदनाम करने की साजिश कर रहा है। परंतु श्रीलंका ने एक कदम आगे बढ़कर पाक दौरे को हरी झंडी दे दी। उस वक्त ऐसा लगा था कि यह पाक नीति कामयाब रही। श्रीलंका ने अपने खिलाडिय़ों के मूल्य पर पाक में कुछ ही महीने के अंतराल में वनडे और टेस्ट सीरीज खेलने का प्लान कर लिया। पाक दौरे का पहला चरण तो ठीक-ठाक बीत गया परंतु दूसरे चरण में उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा। दूसरे टेस्ट के तीसरे दिन के खेल के लिए वे होटल से मैदान भी नहीं पहुंच पाए थे कि आतंकियों के इरादे के शिकार बन बैठे।
यह तो हो गया एक पक्ष। श्रीलंका ने जैसा किया वैसा भुगता। पर पाकिस्तान का पाखंड सामने आ गया। अब उसके क्रिकेट का वह हश्र होगा कि उसने सोचा तक नहीं होगा। अब हर तरह से विश्व समुदाय उससे संबंध विच्छेद कर लेगा। उसका खेल नेस्तनाबूद हो जाएगा। उधर, लंका क्या सोच कर पाक साख सहानुभूति जताने पाकिस्तान गया था। यह भारत को नीचा दिखाने की कोशिश तो नहीं थी? या फिर पाक के सम्मोहन का शिकार तो नहीं हो गया थी? जावेद मियांदाद ने लंकाई हुक्मरानों से बात कर दौरे को तो हरी झंडी दिखवा दी, पर उसका असली चेहरा सामने आ गया। पाकिस्तान किस आधार पर कह रहा था कि उसका देश बिल्कुल सुरक्षित है। अप्रैल 2008 में आस्ट्रेलिया का पाक दौरा रद्द करना गलत नहीं था। उसके बाद अक्तूबर में चैम्‍िपयंस ट्राफी स्थगित करने के फैसले की अहमियत का पता अब चल रहा है। होटल मैरियट को उड़ाना तो एक ट्रेलर था। यह वही होटल था जहां पाक दौरे के क्रम में भारतीय या अन्य विदेशी टीम ठहरा करती थी। 14 महीने के बाद पाक क्रिकेट को टेस्ट खेलने का मौका मिला था। अब तो ऐसा लग रह है कि आनेवाले चौदह साल में कोई क्रिकेट प्लेइंग कंट्री पाक के साथ उसकी सरजमीं पर खेलने की हिम्मत नही जुटा पाएगी।

भोजपुरी गजल

एक
मन भ्रमर फेरु गुनगुनाइल बा
प्रेम-सर में कमल फुलाइल बा

आंख के राह चल के, आंतर में
आज चुपके से के समाइल बा

दूब के ओस कह रहल केहू
रात भर नेह से नहाइल बा

रस-परस-रुप-गंध-शब्‍दन के
वन में, मन ई रहल लोभाइल बा

जिंदगी गीत हो गइल बाटे
राग में प्रान तक रंगाइल बा

दो
रउआ नापीं प्रगति ग्रोथ के रेट में
हम नापीले अपना खाली चेट में

अब ढोआत नइखे ई बहंगी महंगी के
ताकत नइखे एह कंधा एह घेंट में

हाथ पसारीं कइसे केकरो सामने
बाझल बाटे ऊ हंसुआ के बेंट में

खबर खुदकुशी के मजदूर-किसान के
लउकत नइखे रउरा इंटरनेट में

हमके चूहामार दवाई दे दीहीं
चूहा कूदत बाटे हमरा पेट में

(उपर वाला दुनो गजल पांडेय कपिल जी के बाटे। पांडेय कपिल जी भोजपुरी के वरिष्‍ठ आ प्रतिष्ठित रचनाधर्मी हईं।)

सोमवार, 2 मार्च 2009

शोक संदेश - संजय सिरोही नहीं रहे

मित्रों हमने अपने एक युवा पत्रकार साथी पचीस वर्षीय संजय सिरोही को खो दिया। रविवार रात एक बजे दैनिक जागरण, मेरठ आफ‍िस से घर लौटते वक्‍त किसी काल रुपी वाहन ने उसे हमारे बीच से छिन लिया। मोटरसाइकिल से घर लौट रहे संजय की मौत वाहन से टक्‍क्‍र लगने के बाद तुरंत घटनास्‍थल पर ही हो गई। वे मेरठ की अजंता कालोनी में रहते थे। अभी चार महीने पूर्व ही संजय की शादी हुई थी। मेरठ का मीडिया समुदाय शोकाकुल है। संजय इससे पूर्व अमर उजाला, मेरठ में कार्यरत थे।
मेहनती, होनहार व मिलनसार स्‍वभाव के संजय को खोने का गम हम सभी पत्रकार सार्थियों को है। हम उनकी आत्‍मा की शांति की कामना करते हैं और इस दुख की बेला में उनके परिजनों के साथ हैं।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पिंक पैंटी का चटपटापन

मीडिया जगत में इन दिनों जिन मुद़दों पर खासी बहस चल रही है। मैं यहां उन पर आप सभी का ध्‍यान आकर्षित करना चाहूंगा-
भाग एक - पिंक पैंटी का चटपटापन
श्रीराम सेना ने मंगलौर के पब में जाकर जिस तरह से लडकियों पर बर्बरता दिखायी उसके बाद मीडिया जगत में इस पर खासी बहस छिड गयी है। कोई श्रीराम सेना का समर्थन कर रहा है तो कोई इस घटना को महिला स्‍वतंत्रता का हनन बता रहा है। इसके विरोध में फेसबुक पर बाकायदा एक समुदाय बन चुका है। इस समुदाय ने नैतिकता के इन ठेकेदारों को शर्मसार करने के लिए वैलेंटाइन डे पर गुलाबी चड़ढियां भेजी। इसके जवाब में श्रीराम सेना भी कैसे पीछे रहे उसने भी इसके विरोध में लडकियों को गुलाबी साडी बांटने का फरमान जारी किया। बहरहाल, इस पर चल रही हालिया बहस में कुछ नामी-गिरामी लोगों का बयान पेश है-
फ‍िल्‍मकार अपर्णा सेन - हमारी धार्मिक परंपराओं में कहीं भी विचारों को थोपने का रिवाज नहीं रहा। यहां तक कि प्राचीन भारत में नास्तिकता का भी अपना स्‍थान था। हमारी परंपराओं में विविधता है और यही उसकी ताकत है। नैतिकता का रक्षक खुद को घोषित करना महज बेवकूफी है।
जम्‍मू-कश्‍मीर के पूर्व मुख्‍यमंत्री फारुक अब्‍दुल्‍ला - लडकियों के साथ मारपीट हमारे कल्‍चर का हिस्‍सा नहीं है। जो लोग परंपरा की बात कर रहे हैं वे नहीं जानते परंपरा क्‍या चीज है।
संघ विचारक गोविंदाचार्य - कुछ परंपराएं पुरानी हो चुकी हैं और आज के समय के हिसाब से उन्‍हें पकडे रहने की जरुरत नहीं है। मुझे नहीं लगता कि उन्‍हें छोडने में कोई समस्‍या होनी चाहिए। दुर्भाग्‍य से आज भी हम कई पुरानी परंपराओं से चिपके हुए हैं। महिलाएं हमारे समाज का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा हैं। बिना राधा कोई कन्‍हैया नहीं हो सकता। बिना सीता के राम वनवासी होते हैं। अर्धनारीश्‍वर में आधा हिस्‍सा महिला है। महिलाओं का सम्‍मान होना चाहिए।
भाग दो - चांद और फ‍िजा
चंद्रमोहन और अनुराधा बाली ने अपने-अपने पद और परिवार को त्‍याग कर और चांद फ‍िजा जैसे नामों के साथ इस्‍लाम और निकाल कबूल किया तो चारों तरफ जैसे सनसनी फैल गयी। बार-बार यह प्रेमी युगल कैमरे के सामने एक-दूसरे के प्रेम और मोहब्‍बत की कसमें देकर साथ जीने-मरने का वादा करता दिखा। किसी फ‍िल्‍मी कहानी की तरह ही इसमें सारे मसाले थे- सियासत, बगावत, मोहब्‍बत, रुलाई, भरोसा आदि। पर यह क्‍या थोडे ही दिनों में इस कहानी में एकता कपूर की सास-बहू मार्का सीरियल की तरह मोड आ गया। वह भी दिलचस्‍प। चांद उर्फ चंद्रमोहन को अपनी पहली पत्‍नी व बच्‍चों की याद सताने लगी और फ‍िजा मैडम नींद की गोलियां खाने लगीं। आज आपको सबकुछ साफ-साफ नजर आ रहा है। जरा इन किरदारों के ओहदों पर नजर डालिए। एक है हरियाणा का उपमुख्‍यमंत्री और भजनलाल का बेटा चंद्रमोहन उर्फ चांद और दूसरा किरदार है हरियाणा की अतिरिक्‍त महाधिवक्‍ता अनुराधा बाली उर्फ फ‍िजां। अब मैडम फ‍िजां अपने चांद को गालियां देते नहीं थक रहीं, वे इस सबसे आगे निकलकर चुनाव भी लडना चाहती हैं। उधर, हमारे चांद मियां बादल की ओट लेने के बजाया विदेश में जा छिपे हैं। प्‍यार करनेवाले खूब जानते हैं कि प्रेम में सिर्फ साहस या दुस्‍साहस से काम नहीं चलता। बल्कि समझ, संवेदना और संजीदगी की जरुरत होती है। जिस प्‍यार में ये चीजें नहीं होती वे प्रेमी नायक नहीं विदूषक बन जाते हैं।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

अंडरडाग मानसिकता के शिकार हैं हमारे फ‍िल्‍‍‍मकार

दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित फिल्म अवार्ड आस्‍कर की आठ श्रेणियों में झंडा गाडऩे के बाद अब भले ही हम और हमारे फिल्मकार स्लमडाग... की जय हो बोल रहे हैं पर सच्चाई तो यह है कि हमीं कुछ दिन पहले तक इस फिल्म के निर्देशक डेनी बोएल की मानसिकता पर सवाल खड़े करने में लगे थे। दरअसल, हमारे तथाकथित बौद्धिक फिल्मकारों को यह कतई पसंद नहीं कि उनकी अंडरडाग मानसिकता (हताश, जिसके जीतने की संभावना कम हो) को कोई आईना दिखाए। वे खुश और संतुष्ट हैं शोले, डान और राज जैसी फिल्मों के रीमेक बनाकर। वे तो इस गणित में उलझे हैं कि फिल्‍मराज की रीमेक तो चली पर शोले की क्यों नहीं? जानकारों को यह खूब पता है कि हिंदी सिनेमा उद्योग के आठ दशक के इतिहास में हमने खूब पसीने बहाकर भी इससे पहले जैसे-तैसे सिर्फ तीन आस्‍कर (सत्यजीत रे, भानू अथैया और शेखर कपूर ) ही हासिल कर पाए हैं। हम आस्‍कर पाना तो चाहते हैं पर उसके लिए आवश्यक प्रयास नहीं करते। हमारी घिसी-पिटी शैली, पारंपरिक सोच और कुछ नया न करने की जिद इसकी प्रमुख वजह है। उदाहरण के तौर पर गुलजार के जिस गाने- जय हो को आस्‍कर अवार्ड से नवाजा गया उस गाने में युवराज फिल्म बनाते समय हिंदी फिल्मों के दूसरे शोमैन के नाम से मशहूर सुभाष घई साहब को कुछ भी खास नहीं लगा था। इस वजह से उन्होंने इस गाने को अपनी फिल्म में लेने से ही मना कर दिया। अगर आपको याद हो कुछ दिन पहले ही स्लमडाग... पर हमारे मिलेनियम सुपर स्टार अतिमाभ बच्चन साहब की प्रतिक्रिया थी - यह फिल्म हमारे देश की गलत छवि पेश करने के लिए बनाई जा रही थी इसलिए हमने इसमें कौन बनेगा करोड़पति के प्रस्तोता का अभिनय करने से मना कर दिया। हालाकि बाद में वे अपने इस बयान से मुकर गए थे। यह सिर्फ एक उदाहरण नहीं है। न जाने कितने नामी-गिरामी हस्तियों ने इस फिल्म की आलोचना पर अनाश्वयक शब्द खर्च किए। यह सवाल परेशान करने वाला है कि आखिर क्यों बाहर का कोई फिल्मकार हमारी पृष्ठभूमि, हमारे कलाकारों और हमीं लोगों के बीच रहकर आस्‍कर जीतने वाला फिल्म बना जाता है पर हमारे फिल्मकार यह कमाल पिछले अस्सी वर्षों में भी नहीं कर पाए हैं। सभी जानते हैं जिस महात्मा गांधी को हमने राष्टपिता की उपाधि से नवाजा उनपर सबसे पहली फिल्म बनाने की उपलब्धि किसी भारतीय फिल्मकार के नहीं बल्कि रिचर्ड एटनबरो के नाम दर्ज है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करनेवाली इस फिल्म के लिए भी भारत के भानू अथैया को आस्‍क मिला था। आखिर हमारे फिल्मकार कब तक आसमान पर थूकते रहेंगे। देर से ही सही अगर वे अब भी अंडरडाग मेंटलिटी को छोड़कर आगे बढ़ें तो निश्चित ही उम्मीद का सूरज अभी अस्त नहीं हुआ। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कई ऐसे उदीयमान फिल्मकार मौजूद हैं जिनमें पूरी दुनिया को रोशन करने की काबिलियत है।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अब यूपी के तीस जिलों में होगी जेटरोफा की खेती

शीघ्र ही यूपी में ग्राम पंचायतों की बंजर भूमि पर बायो ऊर्जा मिशन की योजना के तहत तीस जिलों में जेटरोफा की खेती की जाएगी। दावा यह किया जा रहा है कि जेटरोफा की खेती से एक तरफ जहां बायो डीजल बनेगा वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी क्‍योंकि इससे लोगों को रोजगार मिलेगा। पहले चरण में अलीगढ, हाथरस, मथुरा, मैनपुरी, एटा, कन्‍नौज, हरदोई, कानपुर नगर व कानपुर देहात, ललितपुर, झांसी, औरैया, हमीरपुर, प्रतापगढ, चित्रकुट, कौशांबी, चंदौली, गाजीपुर, मिर्जापुर, सोनभद्र जिलों को चुना गया है। बंजर भूमि में इसे पनपने के लिए सामान्‍य से भी कम नमी की आवश्‍यकता होती है।
गौरतलब यह है कि धान व गेहूं की उपज के लिए पूरे देश में विख्‍यात यूपी में अगर इस तरह से जेटरोफा को अत्‍यधिक कमाऊ फसल के रुप में प्रोजेक्‍ट किया जाएगा तो बाकी फसलों का क्‍या होगा। क्‍या यह मल्‍टीनेशनल कंपनियों की साजिश नहीं है। मालूम हो कि इससे पूर्व एप्‍लाइड सिस्‍टम एवं ग्रामीण विकास संस्‍था गौतमबुद़धनगर के दनकौर व जेवर क्षेत्र में यह प्रयास कर चुकी है पर लोगों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। बावजूद इसके जेटरोफा को किसानों पर लादने का प्रयास किया जा रहा है। यानि, जेटरोफा उगाइये और खाने के लिए गेहूं-चावल खरीदिए।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में भी कवि ही बनूं

रवि, सोम, भौम, बुध/ गुरु, शुक्र और शनि/ इन्हीं सात दिनों में से किसी एक दिन मैं भी मर जाऊंगा/ मुझे अपने मरने का थोड़ा भी दुख नहीं/ मेरे मर जाने पर/ शब्दों से मेरा संबंध छूट जाएगा...
आखिरकार इस सचाई से मुलाकात कर ही ली कवि त्रिलोचन ने। अपने भोपाल आगमन के दौरान वर्ष 2000 में एक लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था- 'मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में भी कवि ही बनूं। कवि होना पूर्व जन्मों का संस्कार है, ताप, संताप और आरोह-अवरोध आदि इसके मार्ग में बाधक बन ही नहीं सकते। जनसरोकारों के लिए सदा समर्पित और मानवीय मूल्यों पर केंद्रित कविता की रचना करना मेरा कर्म है।यह भाव उनकी इन पंक्तियों में साफ झलकता है -

कविताएं रहेंगी तो/ सपने भी रहेंगे/ कविताएं सपनों के संग ही/ जीवन के साथ हैं / कभी-कभी पांव हैं/ कभी-कभी हाथ हैं /त्रिलोचन जी के बारे में प्रख्यात कवि अशोक वाजपेयी की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- 'त्रिलोचन हिंदी के संभवत: सबसे गृहस्थ कवि हैं, इस अर्थ में कि हिंदी भाषा अपनी जातीय स्मृतियों और अनंत अन्तध्र्वनियों के साथ, सचमुच उनका घर है। वे बिरले कवि हैं जिन्हें यह पूरे आत्मविश्वास से कहने का हक है कि पृथ्वी मेरा घर है / अपने इस घर को अच्छी तरह/ मैं ही नहीं जानता। त्रिलोचन कि कविताएं साधारण चरित्र या घटना या विम्ब को पूरे जतन से दर्ज कराती हैं मानों सब कुछ उनके पास-पड़ोस में है।

मैंने जितना उनको पढ़ा व जाना है उसके आधार पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि लंबे समय से हिंदी साहित्य को बाबा का-सा संरक्षण प्रदान करने वाले और न जाने कितने पोतों को साहित्य की बारह खड़ी में पारंगत करने वाले त्रिलोचन शास्त्री कविता को जीने वाले कवि थे। तुलसी और निराला की कविता की परंपरा को आगे ले जाते हुए उसे नई ऊंचाई देने वाले त्रिलोचन का विराट रूप 'पृथ्वी से दूब की कलाएं लो चार/ऊषा से हल्दिया तिलक लो /और अपने हाथों में अक्षत लो/पृथ्वी आकाश जहां कहीं/तुम्हें जाना हो, बढ़ो! बढ़ो!!Ó इन पंक्तियों में झलकता है। उनकी कविता की गति में जीवन का सार छिपा रहता था और विकास के सोपान भी। 'शहरों में आदमी को आदमी नहीं चीन्हता/ पुरानी पहचान भी बासी होकर बस्साती है/ आदमी को आदमी की गंध बुरी लगती है/ इतना ही विकास मनुष्यता का अब तक हुआ है...

कुछ लोग यह मानते हैं कि त्रिलोचन एक अत्यंत सहज व सरल कवि है बहुत कुछ अपने व्यक्तित्व की तरह। पर सच्चाई यह है कि त्रिलोचन एक समग्र चेतना के कवि हैं, जिनके अनुभव का एक छोर यदि 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती जैसी सीधी सरल कविता में दिखायी पड़ता है तो दूसरा 'रैन बसेरा जैसी कविता की बहुस्तरीय बनावट में।

त्रिलोचन ने आत्मपरक कविताएं ज्यादा लिखा हैं। पर यह कविताएं किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएं नहीं है और यही उनकि गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। तभी तो उनके मुंह से बेलाग और तिलमिला देने वाली पंक्ति निकलती है 'भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल/ जिसको समझे था है तो यह फरियादी। अपने प्रति यह अचूक निर्मम दृष्टि समकालीन साहित्य में कम ही मिलेगी।

त्रिलोचन के सॉनेटों के बारे में बहुत कुछ कहा-सुना गया है। परंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की टिप्पणी उल्लेखनीय है - 'सॉनेट जैसे विजातीय काव्यरूप को हिंदी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने एक ऐसी नयी काव्य विद्या का आविषकार किया है जो लगभग हिंदी की अपनी विरासत बन गयी है।शब्दों की जैसी मितव्ययिता और शिल्पगत कसाव उनके सॉनेटों में मिलता है, वैसा निराला को छोड़कर आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।

उनकी कविताएं पढ़कर और परिचित साहित्यकारों से त्रिलोचन जी की सादगी व सहजता के बारे में मैंने जितना सुन रखा था उससे कहीं अधिक पाया। उनके भोपाल प्रवास के दौरान मैं जब अपने मित्र रंजीत प्रसाद सिंह (जो अभी हिंदी दैनिक प्रभात खबर, जमशेदपुर में हैं) के साथ त्रिलोचन जी से मिलने पहुंचा तो उनके द्वारा दिए समय से चालीस मिनट विलंब हो चुका था। गेस्ट हाउस के कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने कहा- 'मुझे लग रहा था तुम लोग अब नहीं आओगे। aarambh में तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बात शुरू कैसे करूं? मेरी मन: स्थिति को वे भांप गए और बात उन्होंने ही शुरू कर दी। हमारी पढ़ाई से लेकर पारिवारिक पृष्ठभूमि तक की बात पूछ डाली। अब तक मैं सहज हो चुका था। फिर धीरे-धीरे उनके रचनाधर्म से लेकर निजी अभिरुचियों तक पर घंटों बातें होती रही। मैंने महसूस किया कि जब भी उन्हें यह लगता कि मैं बातचीत में असहज महसूस कर रहा हूं वे कोई रोचक प्रसंग सुनाने लग जाते।

मैंने जब उनसे यह कहा कि विगत अस्सी वर्षों में दुनिया बहुत बदल गई है, समाज और परिवार बदल गए हैं। आप इस बदलाव को किस रूप में महसूस करते है? उनका जवाब था 'परिवेश, देश, काल, पात्र जितने भी बदल जाएं लेकिन भीतर से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं । इस देश में भी उस महाभारत युग से लेकर आज तक मनुष्य का रूप बदला नहीं है।

तभी त्रिलोचन को सृजनकाल में कभी कोई थकान नहीं दिखा। कोई पुनरावृति नहीं दिखी, बल्कि दिनोंदिन उसमें निखार ही आता गया। ऐसी शख्सियत का गतायु होना महज आत्मा का शरीर को त्यागना भर नहीं है, बल्कि साहित्य को एक सोपान का ढहना भी है। भाषा की समस्त गूंजों और अनुगूंजों को बखूबी जानने वाले और एक रचनाकर की हैसियत से उनके प्रति गहरा सम्मान का भाव रखने वाले त्रिलोचन का शरीर ही तो नहीं रहा, उनकी कविता में मौजूद भाषा के विविध धरातल तो अखंड है।

नई पीढ़ी को समर्पित उनकी पंक्तियां- 'कोई देश/ तुम्हारी सांसों से जीवित है/ और तुम्हारी आंखों से देखा करता है/ और तुम्हारे चलने पर चलता रहता है/ मनोरंजनों में है इतनी शक्ति तुम्हारे/ जिससे कोई राष्ट्र/ बना-बिगड़ा करता है/ सदा-सजग व्यवहार तुम्हारा हो/ जिससे कल्याण फलित हो...

(कवि त्रिलोचन के अवसान के तत्क्षण बाद मैंने श्रद्धांजलि स्वरुप यह संस्मरण लिखा था।)

मेरी कुछ प्रकाशित कविताएँ

मां की तस्वीर

यह मेरी मां की तस्वीर है
इसमें मैं भी हूँ
कुछ भी याद नहीं मुझे
कब खींची गयी थी यह तस्वीर
तब मैं छोटा था
बीस बरस गुजर गए
अब भी वैसी ही है तस्वीर
इस तस्वीर में गुडिय़ा-सी दिखती
छोटी बहन अब ससुराल चली गयी
मां अभी तब बची है
टूटी-फूटी रेखाओं का घना जाल
और असीम भाव उसके चेहरे पर
गवाह हैं इस बात के
चिंताएं बढ़ी हैं उसकी
पिता ने भले ही किसी तरह धकेली हो जिंदगी
मां खुशी चाहती रही सबकी
ढिबरी से जीवन अंधकार को दूर करती रही मां
रखा एक एक का ख्याल
सिवाय खुद के
मैं नहीं जानता
क्या सोचती है मां
वह अभी भी गांव में है
सिर्फ तस्वीर है मेरे पास
सोचता हूं
मां क्या सचमूच
तब इतनी सुंदर दिखती थी।
(कथादेश के अगस्त 2004 के अंक में प्रकाशित कविता)

यह सच है


मेरे पिता कविताएं नहीं लिखाते
वे दादाजी के समान हैं जो कविताएं नहीं लिखते
वे दादी के समान हैं जो कविताएं नहीं लिखतीं
आपको आश्चर्य लगे पर यह सच है
मेरा कोई रिश्तेदार कविता नहीं लिखता

मेरे पिता के सिरहाने कविताएं नहीं होंती
न ही होती हैं उनकी डायरी या दराजों में
वे जब मेरे पास होते हैं
जानता हूं कविताएं नहीं सुनाएंगे मुझे
नसीहतें देते हैं जिंदगी की
पर उनमें छुपा स्वार्थ नहीं होता

मेरे पिता में अच्छे गद्य के आसार हैं
पर उनका सारा लेखन जिंदगी के

हिसाब-किताब में खत्म हो जाता है
मैं जब भी मिलता हूं
उनके पास इतना

इतना अधिक होता है
हने-बताने के लिए।
(साक्षात्कार के अक्टूबर 2003 के अंक में प्रकाशित कविता)

मेरे विदेशी मित्र ने पूछा

सुना है तुम्हारे देश में
रेल की छत पर भी बैठते हैं लोग
मैंने गदर फिल्म में देखा है...

क्या तुम्हारे यहां/अब भी लिखी जाती हैं चिट्ठियां
क्या अब भी कोई इनमें दिल बनाके भेजता है
क्या कबूतर ले जाता है इसको
इंडिया में लेटर बाक्स को
पेड़ पर लटके देखा हमने
बीबीसी न्यूज चैनल पर...

दुनिया में जब इतनी चीजें हैं खाने को
तुम लोग एक रोटी के ही पीछे क्यों भागते हो
चूल्हे की एक रोटी खाकर
मिट्टी के घड़े का पानी पीक
तुम सभी अब तक जिंदा हो!
(साक्षात्कार के अक्टूबर 2003 के अंक में प्रकाशित कविता)







कुछ टिप्पणियां

कुछ संबंधों से हम बाहर नहीं निकल सकते। कोशिश करें, तो निकलने की कोशिश में मांस के लोथड़े बाहर आ जाएंगे, खून में टिपटिपाते हुए।

जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए। पीछे छोड़े हुए सब स्मतिचिन्हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए, किसी भी तरह कि वापसी को असंभव बनाने के लिए।

यह ख्याल ही ·कितनी सांत्वना देता है कि हर दिन, वह चाहे कितना लंबा, असह्य क्यों न हो, उसका अंत शाम में होगा, एक शीतल-से झुपपुटे की तरह।

मेरे लिए 'सफलताÓ एक ऐसे खिलौने की तरह है, जिसे एक अजनबी किसी बच्चे को देता है, इससे पहले कि वह उसे स्वीकार करे, उसकी नजर अपने मां-बाप पर जाती है और वह अपने हाथ पीछे खींच लेता है।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चार्ल्स की चाहत पर सवाल

धारावी। हो सकता है कि तीन अक्षर के नाम वाली इस झुग्गी बस्ती से आप भी वाकिफ हों। वैसे पूरी दुनिया में यह नाम चर्चित है। हाल ही में आस्कर पुरस्कारों की दस श्रेणियों में नामांकित फिल्म स्लमडाग मिलियनेयर ने इस नाम को और ख्याति दे दी है। अब यही धारावी पूरी दुनिया के लिए आदर्श बस्ती बताई जा रही है। ब्रिटेन की राजगद्दी के वारिस प्रिंस चाल्र्स ने पूरी दुनिया को धारावी बनाने की वकालत की है।बृहस्पतिवार को फाउंडेशन फार द बिल्ट इनवायरमेंट द्वारा आयोजित एक सम्मेलन के दौरान राजकुमार चाल्र्स ने दुनिया में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पश्चिम की वास्तुकला के मुकाबले धारावी जैसी बस्तियों को आदर्श बताया। राजकुमार चार्ल्स की यह संस्था कई गरीब और पिछड़े देशों में स्थानीय लोगों के साथ मिलकर झुग्गी बस्तियों को नया रूप देती है।इस सम्मेलन में राजकुमार चाल्र्स के साथ मौजूद नेशनल स्लम ड्वेलर्स फेडरेशन आफ इंडिया के संस्थापक जाकिन अरपुथम ने फिल्म स्लमडाग मिलियनेयर पर चुटकी लेते हुए कहा कि मैं झुग्गी झोपड़ी का रहने वाला हूं न कि एक स्लमडाग। धारावी के एक हिस्से पर बहुमंजिली इमारतें बनाने के बिल्डरों के प्रयास को नाकाम करने वाले अरपुथम ने कहा कि कई विकासशील देश पश्चिमी देशों को आदर्श के रूप में देखते हैं, लेकिन यह हकीकत नहीं है।

अब बताइए कि.........

क्या चार्ल्स वाकई दुनिया को एक नजर से देख रहे हैं या स्लमडाग... फिल्म के बहाने अपने निहित स्वार्थ (संस्था के प्रचार) की पूर्ति करना चाहते हैं?

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

आंखों भर आकाश

ये धन, ये वैभव
नहीं चाहिये मुझे
चाहो तो तुम इसे ले लो
मुझे मेरे आंखों भर आकाश दे दो
इसे ले जाउंगा मैं
मुंबई, मद्रास या हालीवुड
बिकेंगे उंचे भाव
मिलते कहां हैं आजकल ये।