शनिवार, 23 नवंबर 2013

विचारों की कब्र पर मूर्तियों की होड़

भारत में मूर्ति-निर्माण और मूर्ति-पूजा सदियों से चली आ रही है, लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए मूर्तियों का इस्तेमाल इस वक्त जैसा हो रहा है, वैसा कभी नहीं हुआ. सरदार पटेल की राजनीतिक विरासत में सेंध लगा कर उस पर अपना हक जमाने की कोशिश के चलते नरेंद्र मोदी उनकी विशाल मूर्ति बनवा रहे हैं. तो कांग्रेस पटेल को अपनी पार्टी का नेता बता कर यह मुद्दा मोदी से छीनना चाहती है. इससे पहले भी कभी शिवाजी की बड़ी सी प्रतिमा लगा कर उनकी वीरता को सीमित अर्थो में बांधने की राजनीति की गयी, तो कभी बाबा भीमराव आंबेडकर को संविधान-निर्माता की जगह एक वर्ग का हितैषी बता कर प्रस्तुत किया गया. गांधीजी की मूर्तियां तो देश के कोने-कोने में हैं. चश्मे और लाठी के साथ उनकी मूर्तियों को उतनी ही आसानी से खड़ा कर दिया गया है, जितनी आसानी से बरगद के पेड़ के नीचे पत्थर को लाल सिंदूर लगा कर हनुमान की मूर्ति बना दी जाती है. गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी साफ-सफाई हो जाती है, अन्यथा वर्ष भर वे उपेक्षित खड़ी रहती हैं. कभी मूर्ति का चश्मा टूटता है, कभी उसके नीचे बैठ कर मदिरापान या जुए का खेल होता है. संसद भवन में गांधीजी की जो मूर्ति लगी है, उसके सामने खड़े होकर सांसद अपना विरोध, प्रदर्शन आदि करते हैं. इस सब में गांधीजी की विचारधारा कहां दबा दी जाती है, उसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं. किसी भी महान व्यक्ति की मूर्ति लगा कर उसके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करना भावनात्मक अभिव्यक्ति का एक तरीका है,किंतु जब इसमें स्वार्थ जुड़ जाता है, तो यह तय है कि जिन विचारों और कर्मो से वह व्यक्ति महान कहलाया, उससे जनता को दूर करने की कोशिश हो रही है. भारत में मूर्तियों का इतिहास बहुत पुराना है. सिंधु घाटी सभ्यता के काल से मूतियों का वर्णन मिलता है. इनसान जिज्ञासाओं का जवाब ढूंढ़ता रहता है, और जहां वह अनुत्तरित हो जाता है, या यह महसूस करता है कि मुझसे ज्यादा कोई शक्तिशाली, श्रेष्ठ शक्ति इस ब्रrांड में विद्यमान है, तो उसे पूजना शुरू कर देता है. मूर्तियों का राजनैतिक प्रयोजन भारत में तब प्रारंभ हुआ, जब यूरोप में पुनर्जागरण हुआ. पर दुख की बात तो यह है कि निराकार को साकार करने की जगह अब साकार को ‘पाषाणकार’ किया जाने लगा है. कई मूर्तियां तो महज राजनैतिक स्वार्थो के चलते बनायी जा रही हैं. किसके नेता की ज्यादा बड़ी मूर्ति बनती है, ऐसी अविचारित होड़ देश में चल रही है. भारत में गांधी, नेहरू, भगत सिंह, शास्त्री, पटेल, आंबेडकर आदि महापुरुषों की जितनी मूर्तियां लगी हैं, अगर सचमुच उनका कोई असर होता, तो आज देश में जो वैचारिक शून्यता की स्थिति बनी है, वह कभी नहीं होती. हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने मूर्तियों को खड़ा कर उनके नीचे विचारों को दफन कर दिया है?

शनिवार, 9 नवंबर 2013

तुम्हारा दाग मेरे दाग से बड़ा कैसे?

अभी चुनावी मौसम है. जिसे देखो वह राजनीति की बातें कर रहा है. गांव हो या शहर, घर हो या बाहर, स्कूल हो कॉलेज, मंदिर हो या मसजिद सब जगह बस राजनीति की ही बातें हो रही है. वैसे तो लोकसभा चुनाव में अभी कुछ महीने वक्त है, पर इन दिनों पांच राज्यों में विधानसभा की चुनावी सरगरमी है. वो कहावत है न.. बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. वही हाल हमलोगों का भी है. चुनाव है छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में, और बावले हुए जा रहे हैं हम. रोज नये-नये सर्वे की लत लग गयी है. आज का नया सर्वे क्या है? किस पार्टी को ज्यादा सीटें मिल रही हैं, किसको कम? यह जानने की उत्कंठा में टीवी का रिमोट घिसे जा रहे हैं या अखबारों के पन्ने चाट रहे हैं. हालत यह है कि जब पटना में सीरियल बम ब्लास्ट हुए, कई लोग मरे, कई घायल हुए. तब भी हमारे अंदर की संवेदना घास चरने गयी थी. हम इस बात में उलङो रहे कि कौन सांप्रदायिक है और कौन नहीं. हम यह भूल गये कि ब्लास्ट में जो मरे वह इंसान भी थे. पता नहीं हम किस राजनीति की बातें करते हैं, कैसे करते हैं? एक तरफ तो हमारे नेता ऐसे हैं जिनको जनता के बजाय अपनी जान की फिक्र ज्यादा है. विस्फोट होता है कई निदरेषों की जान चली जाती है, कई बेगुनाह जख्मी होकर वहीं पड़े तड़पते रहते हैं, पर इन नेताओं को तो फिक्र है अपनी. खुद की सुरक्षा के लिए बड़े लाव-लश्कर, एसपीजी सुरक्षा, ब्लैक कमांडो, कई-कई राज्यों की पुलिस..और न जाने क्या-क्या?
वैसे, राजनीति है बड़ी अजीब. यहां वैसे तो कोई दूध का धुला है नहीं, पर सब एक-दूसरे को दागदार बताने में मशगूल हैं. हाल यह हो गया है कि बस सब एक-दूसरे के दाग ढूंढ़ते फिर रहे हैं. दागी सभी हैं, पर अब लड़ाई इस बात की है कि कोई कम दागी है तो कोई अधिक दागी है. जो खुद को कम दागी समझता है, वह दूसरे को अधिक दागी बता कर ही ईमान की लड़ाई जीतना चाहता है. जो कम दागी है, वह अधिक दाग वाले प्रभावशाली व्यक्तित्व से जलन करता है. इतने बड़े-बड़े घोटाले के दाग देख कर वह अपने छोटे घोटालों वाले दागों पर शर्मिदा हो रहा है. कुछ लोग हैं जो दागी तो हैं, पर खूबसूरती से उसे कमीज के नीचे छिपाए हुए हैं. लोग देखते हैं तो बस सफेद ही सफेद ही नजर आता है. इस सफेदी के पीछे छिपा वह स्याह चेहरा लोग देख ही नहीं पाते, जो उसका असली चेहरा है. वोट मांगने के लिए यह एक कारगर हथियार है. वैसे वोट मांगने के और भी कई तरीके हैं. इस सीजन में कई बड़े नेता अपनी दादी, पिताजी, मां, चाचा, भाई-भाभी, बेटा-बेटी आदि के नाम पर भी वोट मांगते देखे जा रहे हैं. आखिरकार, यह लोकतंत्र है, वोट मांगना उनका अधिकार है और देना आपका. आप राजनीति या नेताओं को पसंद करें या न करें, नजरअंदाज नहीं कर सकते.

शनिवार, 2 नवंबर 2013

रिश्तों की मिठास : कुछ खास है, कुछ बात है

वर्षो बीत गये दीपावली और छठ में घर गये. जब भी यह अवसर आता है, घर की बहुत याद आती है. याद आती है इस त्योहार के उत्साह की, उमंग की, सामूहिकता की और बचपन की भी. जीवन की आपाधापी में आप चाहे जितना भी आगे चले जायें, मन में एक कोना ऐसा अवश्य होता है जहां जिंदगी के कुछ खुशनुमा पलों की यादें रची-बसी होती हैं.  ये यादें ऐसी धरोहर होती हैं, जो आपके जमीर को मरने नहीं देतीं. ये यादें ही जमीर को जिंदा रखती हैं और आपको ऊर्जावान व संजीदा बनाये रखती हैं. अभी शहर से लेकर गांव तक दीपावली-धनतेरस को लेकर बाजार गरम है. कोई साजो-सामान खरीद रहा तो कोई गिफ्ट,  कोई पूजा-पाठ की तैयारियों में मग्न है तो कोई व्यापार में तल्लीन. प्रशासन चाहे कितना भी आगाह कर ले, लाखों-करोड़ों रुपये के पटाखे हवा में उड़ाये जाएंगे. यह जानते हुए भी कि यह न सिर्फ पैसे की बरबादी है बल्कि प्रदूषण की वजह भी. कोई मानता नहीं है. मेरी बेटी तेज आवाज वाले पटाखों से तो डरती है पर फुलझड़ी और रंग-बिरंगी रोशनी वाले आइटम उसे बेहद पसंद हैं. मुङो याद है, मैंने भी बचपन में खूब पटाखे चलाये हैं. छोटे चाचाजी (काका) कोलकाता से मेरे लिए ‘स्पेशल’ पटाखे लाते थे. साथ में ढेरों टॉफियां भी, जिन्हें मैं मित्रों को भी खिलाता था. हम सफल होने की जल्दबाजी में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज खो रहे हैं वह है रिश्ते-नाते. आप सफलता की चाहे जितनी सीढ़ियां चढ़ लें, कुछ रिश्ते आपको सदा ही लुभाते हैं. मेरे बचपन की स्मृतियों में भी कुछ ऐसे ही रिश्ते बसे हैं. मैं अपने पिताजी के बजाय चाचा लोगों के बहुत करीब रहा. पेशे से शिक्षक रहे बड़े चाचाजी से मिला अपार स्नेह आज भी मेरी जिंदगी की धरोहर है. मैं सोचता हूं क्या हम अपने बच्चों को संयुक्त परिवार के स्नेह की वह खुशबू दे पा रहे हैं! एकल परिवार की व्यवस्था में यह सब शायद एक सपने की तरह है. भाई और बहनों से भरा-पूरा परिवार, दादी का लाड़-प्यार सब कुछ आज एक सपना ही तो है. छठ के अवसर पर मां के हाथ का बना ठेकुआ का स्वाद आज के किसी भी महंगी मिठाई में मिलना नामुमकिन है. मां के साथ शाम और सुबह के अघ्र्य के वक्त छठ घाट जाने में जो खुशी मिलती थी वह किसी पर्यटन स्थल पर जाकर हासिल नहीं हो सकती. रिश्तों के स्मरण की बात चल रही है तो एक हालिया घटना का जिक्र छेड़ना जरूरी हो जाता है. चार दिन पहले की बात है, रायपुर में रह रहे मेरे बचपन के एक मित्र सुबोध (राणा) ने फोन किया. बोला पहचान रहे हो या नहीं? मैं थोड़ी देर के लिए हतप्रभ रह गया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या प्रतिक्रिया दूं. अचानक से ढेर सारी स्मृतियां उमड़ने-घुमड़ने लगी. लंबी बातचीत के बाद मैंने उसे फोन करने के लिए धन्यवाद दिया. वाकई, रिश्तों का रिनुअल करना कितना अच्छा है, जरूरी है! आइये, इस दीपावली एक खूबसूरत पहल करें.