सोमवार, 23 मार्च 2015

इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं!

तुम एनएच 33 की तरह व्यस्त रहती हो और मैं तुम्हारे इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं. जब मैं तुम्हारे इंतजार में थक जाता हूं तो उन 86 बस्तियों सा महसूस करने लगता हूं जिन्हें आज तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है. फिर भी नसों में उम्मीदों का उबाल इतना तगड़ा है कि सांसे टूटती नहीं हैं. हां, कभी-कभी यह भी लगता है कि हमारी जिंदगी में मानगो पुल सा जाम लगने के कारण ठहराव आ गया है और कभी-कभी गरमी की तपती दोपहरी में टेल्को एरिया की सड़कों जैसी वीरानगी छा जाती है. फिर भी मैं सालाना आयोजन ‘फ्लावर शो’ की ताजगी और रंगीनियों जैसी ही खुशी देने वाले तुम्हारे इंतजार में हर दिन संस्थापक दिवस मनाता रहता हूं. सच तो यह है कि जब तुम बिष्टुपुर में होती हो तब मैं मानगो सा महसूस करता हूं. यह ‘खास’ और ‘आम’ होने का अहसास नहीं बल्कि समयानुकूल सच्चाइयों का सामना करना भर है. तुम्हारे साथ जब छप्पनभोग में स्वादिष्ट मिठाइयां खा रहा होता हूं तो तुम मुङो रसगुल्ला जैसी लगती हो, पर तन्हाइयों के वक्त मैं गोलगप्पा के उस फुचके जैसा हो जाता हूं जिसकी वैल्यू मसाला पानी के बिना नहीं होती. तुम्हारा स्वभाव मुङो कभी-कभी जलेबी जैसा भी लगता है. जिसे गरम खाओ तो मुंह जलता है और ठंडा खाने पर बेस्वाद लगता है. सीरियसली, जुबली पार्क मुझमें इस कदर बस गया है कि मैं तुम्हारे साथ साकची जाते वक्त स्टेडियम की तरफ से न जाकर जुबिली पार्क की तरफ से ही जाता हूं. उसकी खुली हवाओं को अपने नथुनों में भरते हुए. हरे-भरे पेड़ों और फूलों की ताजगी को मन ही मन समेटते हुए. जब तुम मेरे साथ होती हो मेरा मन साकची के मंगल बाजार की तरह गुलजार रहता है. जिसमें महंगी और ब्रांडेड चीजें नहीं, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में काम आनेवाले जरूरी सामान बहुत किफायती दामों में मिल जाते हैं. क्या हमारा प्यार सचमुच जमशेदपुर जैसा है? इतने त्योहार, इतने सेलिब्रेशन, इतने आयोजन होते हैं कि पता ही नहीं चलता कि कौन असली है और कौन बनावटी. मिश्रित संस्कृति ने शहर की पहचान छीन ली है. न कोई अपनी भाषा, न कोई अपना स्वभाव. लोग यहां होकर भी यहां के नहीं होते. यहां सबका मालिक एक है, पर सब खुद भी मालिक हैं अपनी मरजी के. दिखने में आयरन, पर अंदर बज रहा सायरन! अब छोड़ो भी. क्या रखा है इन शिकवा-शिकायतों में. मेरे मन में तुम्हारे प्रति वैसी ही अगाध श्रद्धा है जितनी शहरवासियों के मन में जमशेदजी टाटा के लिए. हां, एक बात मैं जरू र कहूंगा कि तुम अपने पहनावे से बागबेड़ा जैसी लगती हो. सीएच एरिया से बिष्टुपुर वाले रोड जैसा नया लुक  आजमा कर देखो. बेहद खूबसूरत लगने लगोगी. मुङो उम्मीद है कि तुम इस प्रपोजल को मेरीन ड्राइव के मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसा लटकाने के बजाय टाटा वर्कर्स युनियन के चुनाव जैसा शीघ्र ही मूर्त रू प में परिणत कर दोगी.

बुधवार, 11 मार्च 2015

ट्रैफिक सिगनल वाली मलाला

नयी दिल्ली के किसी रेड सिगनल पर जैसे ही गाड़ियों का काफिला रुका कई बच्चे दौड़ते हुए कारों के बंद शीशे खटखटाने लगे. किसी के हाथ में लाल गुलाब का गुलदस्ता तो किसी के पास खिलौने. कई के पास किताबें भी थी. वे बारी-बारी से बिना प्रतीक्षा किये सभी के पास जा रहे थे. एक 12-14 साल की लड़की हाथ में कई किताबें लिए मेरे  पास भी आयी और एक किताब ‘आइ एम मलाला’ को मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली-‘शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त पाकिस्तान की इस बहादुर लड़की की किताब ले लो साहब.’ मेरी निगाह उस किताब के बजाय उस मासूम-सी लड़की पर टिक गयी थी. लाल फीते की दो चोटियां उसके कंधे पर लटक रही थी. गेहुंआ रंग, गोल चेहरा, इकहरा बदन, मोतियों जैसे दांत. साधारण से कपड़े में भी वह बहुत खुबसूरत दिख रही थी. मुङो लगा जैसे उसमें मलाला की रूह उतर आयी हो. उतनी ही निश्चल, उतनी ही मोहक लग रही थी वह.  इतने में उसने अमर्त्य सेन की किताब ‘ऐन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’  दिखाते हुए कहा ‘तो ये ले लो साहब. अच्छी है.’ मैं अपलक उसे देख ही रहा था. उसने यह भांप लिया कि मैं उसकी किताबें नहीं खरीदूंगा. यह सच था. मेरे पास उस वक्त उतने पैसे नहीं थे कि मैं किताब ले पाता. लगा वह जाने वाली है. मैंने पूछा- तुम स्कूल नहीं जाती, तुम्हारे मां-बाप क्या करते हैं, तुम्हारा नाम क्या है?  चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा ‘आइ एम मलाला.’ और भीड़ में कहीं गुम हो गयी. सिगनल ग्रीन हो चुका था, गाड़ियां आगे की ओर सरकने लगी थीं. मलाला की नन्ही-सी कलम बड़े-बड़े हथियारों के सामने जिस ताकत से खड़ी रही और आकर्षक जीत हासिल की उसने हर लड़की को विपरीत हालातों में मुस्कुराने का हसीन जज्बा दिया है. बधाई मलाला! यह मसाल जलती रहनी चाहिए. पर, दुख होता है यह देख कर दिल्ली जैसे महानगर में ट्रैफिक सिगनल पर मासूम लड़के/लड़कियां इस तरह पेट पालने के लिए विवश हैं. बच्चों के आर्थिक उत्पीड़न की समाप्ति तथा सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने की जो लड़ाई मलाला ने पाकिस्तान के एक प्रांत से शुरू  की थी, अब वह ग्लोबल हो चुकी है. दुनिया के लगभग हर मुल्क में मलाला के प्रशंसक हैं. तो क्या जो लड़की मुङो ट्रैफिक सिगनल पर किताबें बेचती मिली थी वह यह सब नहीं जानती? उसके हाथ में तो ‘आइ एम मलाला’ नामक किताब भी थी. तो फिर कैसे पूरा होगा मलाला का वह सपना जो उसने दुनिया भर की लड़कियों की बेहतरी के लिए देखा है. क्यूंकि मलाला अब एक लड़की का नाम भर नहीं, वह एक प्रतीक बन गयी है. भारत में ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत है जिनके मां-बाप अपनी तरक्की के लिए उन्हें पढ़ने नहीं देते. रोजी-रोटी उनकी पहली प्राथमिकता है. क्या यहां भी कोई मलाला आकर रोशनी फैलायेगी?