शनिवार, 16 मई 2015

भरी दुपहरी में चिंता पर छोटा सा चिंतन

भरी दुपहरी में मौसम को गरियाते हुए श्रीमतीजी को बाइक पर बिठा कर चला जा रहा था. अचानक ऐसा लगा कि कोई ‘रुको! रुको!’ की आवाज दे रहा है. मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि पीछे से श्रीमतीजी ने झकझोरा- ‘सो रहे का जी. तब से रुकने को कह रही हूं सुन ही नहीं रहे.’ मैंने बाइक सड़क किनारे रोक दी. वे उतर कर मुङो आने को कहते हुए खुद सब्जी की दुकान पर चली गयीं. मैं भी बेमन से पीछे-पीछे चल पड़ा. सब्जियां लेने के बाद जब हम चलने लगे, तो दुकानदार ने कहा- ‘भइया! आज धूप बहुत है, डॉक्टर प्याज ले लीजिए न.’ मैंने चौंक कर कहा, ‘डॉक्टर प्याज!’  सब्जी दुकानदार ने श्रीमतीजी की तरफ देखते हुए कहा, ‘क्या भइया आप डॉक्टर प्याज नहीं जानते? अरे इका पाकिट में रखने से लू-गरमी नहीं लगती है इसीलिए इसे डॉक्टर प्याज कहते हैं.’ हमने कहा भाई प्याज बेचने का आइडिया तुम्हारा अच्छा है. एकदम मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ जैसा. वह बोला, ‘हम सच में कहत हैं भइया. इ सफेद वाला प्याज जो आप देख रहे हैं न इसे पाकिट में रख कर कितना भी धूप में निकलिए कुछो नहीं होगा. जो जानत हैं इसके बारे में वो जरूर खरीदत हैं.’ मैंने कहा, ‘इतना ज्ञान देने के लिए शुक्रिया. पर हमें नहीं चाहिए. क्योंकि हमें पता है कि लू कैसे नहीं लगती.’ वह बोला, ‘कोई बात नहीं, आप मत लीजिए, वैसे हम तो आप ही के लिए कह रहे थे.’ चिलचिलाती धूप ने कम, उस सब्जीवाले ने मेरा पारा ज्यादा चढ़ा दिया था. मैंने श्रीमतीजी से कहा, ‘अगर मैं एक मिनट भी और यहां रुका, तो मुङो लू जरू र लग जायेगी. चलो यहां से.’ रास्ते भर मैं उस सब्जी वाले की बातों पर हंसता रहा.
उस सब्जीवाले की लू से बचके तो मैं घर आ गया, पर जिस तरह उसने मेरे प्रति भरी दुपहरी में लू को लेकर चिंता जतायी थी, उस चिंता ने मुङो चिंतित कर दिया. चिंता करना एक राष्ट्रीय समस्या बन गयी है. इस समस्या ने हर किसी को जकड़ रखा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल इस चिंता में हैं कि मीडिया को कैसे काबू में किया जाये. कोई प्रधानमंत्री की विदेश यात्र की अधिकता से चिंतित है, तो कोई भाजपा को जिता कर चिंता के मारे अंदर ही अंदर घुट रहा है. कोई कांग्रेस की पतली हालत से दुखी है तथा उसके भविष्य की चिंता में चिंतित है. तो कई लोग जनता परिवार के एकीकरण को लेकर चिंतित हैं. चिंता एक स्वाभाविक गुण है. लेकिन, क्या हर समस्या का हल केवल चिंता ही है? कई लोग तो महज इस बात के लिए चिंतित हो जाते हैं कि आज उनके मोबाइल पर एक मिस्ड कॉल तक नहीं आया. कई लोग अत्यधिक फोन आने से चिंता के मारे डायबिटीज के मरीज बन जा रहे हैं. और तो और कई युवा मित्र अपने मोबाइल की बैटरी जल्द खत्म हो जाने की परेशानी से चिंतित हो उठते हैं. चिंताओं की कमी नहीं, बिना ढूंढ़े ही हजार मिलती हैं. बचके रहिएगा!

बुधवार, 6 मई 2015

कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं

किसानों की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने व गंदे हथकंडे अपनाने वाले राजनीतिक दलों! तुम्हें क्या कभी इस बात पर भी रोना आया कि तुम्हारे अंदर की संवेदनाएं दिन-ब-दिन मर रही हैं. गांव का किसान अपने पड़ोसी से खेत की मेढ़ काटने का मुकदमा लड़ते-लड़ते जवानी खोकर बुढ़ापे की दहलीज में कब प्रवेश कर जाता है उसे खुद ही मालूम नहीं पड़ता. खाद-बीज और सिंचाई के मकड़जाल में किसान की जिंदगी इस कदर उलझी होती है कि उसकी बेटी सयानी होकर ब्याह करने लायक हो गयी, इस बात का भान उसे आस-पड़ोस वालों के ताने सुन कर ही होता है. वह करे तो क्या करे? जवान बेटी के अरमानों की डोली उठने का ख्वाब पाले उसके कानों में बिस्मिला खान की शहनाई नहीं बल्कि घरवाली की कर्कश आवाज गूंजती रहती है ‘तोहरे चेंट में पइसा ना हवे त हमार गहना-गुरिया बेचके एकर बियाह करी द.’ घर में बैठी बेटी के मुस्कान उसके चेहरे में ही कहीं खो गयी है. दिल का दर्द दबाते-दबाते होंठ काले पड़ गये हैं. उसके हाथ की लकीरों में क्या है, उसे भले ही न पता हो पर उसे इस बात का गुमान अवश्य है कि ये नेता उसकी तकदीर नहीं बदल सकते. ज्यादातर किसान लोकसभा-राज्यसभा चैनल नहीं देखते. उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि संसद में बैठे माननीय कभी ‘बेटा बूटी’ तो कभी ‘सांवली औरत’ जैसी ऊटपटांग बातों में देश का वक्त जाया कर देते हैं. वह तो यह भी नहीं जानते कि इस देश के प्रधानमंत्री की पत्नी को अपने अधिकारों की लड़ाई आरटीआइ के माध्यम से लड़नी पड़ रही है. खुद कहानी गढ़ने, खुद किरदार बनाने और खुद इल्जाम तय कर खुद ही जज बन जाने का ये गजब दौर है. गुमशुम अटल, न लाल-न कृष्ण, मझधार में मांझी, न नीति-न ईश, डगमगाते विश्वास का दौर..! किसके पास जाएं, किससे करें फरियाद. कौन होगा मददगार, कौन तारणहार..! ऐसे में इस देश के किसानों के मन में यह सवाल जरू र उठता है - न राज है न नाथ है. कोई पप्पू है, कोई फेंकू है. जनता अनाथ है तो नेता कहां है? कौओं की टोली में हंस को ढूंढ़ने का क्या फायदा?
   सच्चई तो यह है कि इस देश के किसान भोले-भाले जरू र हैं पर वे खुद के नाथ हैं. उन्हें भरोसा है अपने हाथ पर. कर्म को सवरेपरि मानने वाला किसान किस्मत और किसी खेवनहार के सहारे की उलझनों से अब बाहर आना चाहता है. ऐसे में अगर कोई किसान शायरी लिखने लग जाये तो उसका पहला शेर यही होगा - कश्तियां ना सही हौसले तो साथ हैं/ कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं. अब राजनीतिक आकाओं को यह बात समझनी ही होगी कि वो दिन चले गये जब छलावे की राजनीति और डपोरशंखी घोषणाओं से किसानों को बहलाया जा सकता था. किसी को कुछ करना ही है तो वह करोड़ों किसानों का दिल जीते..उसका सच्च दोस्त बन कर.