शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पिंक पैंटी का चटपटापन

मीडिया जगत में इन दिनों जिन मुद़दों पर खासी बहस चल रही है। मैं यहां उन पर आप सभी का ध्‍यान आकर्षित करना चाहूंगा-
भाग एक - पिंक पैंटी का चटपटापन
श्रीराम सेना ने मंगलौर के पब में जाकर जिस तरह से लडकियों पर बर्बरता दिखायी उसके बाद मीडिया जगत में इस पर खासी बहस छिड गयी है। कोई श्रीराम सेना का समर्थन कर रहा है तो कोई इस घटना को महिला स्‍वतंत्रता का हनन बता रहा है। इसके विरोध में फेसबुक पर बाकायदा एक समुदाय बन चुका है। इस समुदाय ने नैतिकता के इन ठेकेदारों को शर्मसार करने के लिए वैलेंटाइन डे पर गुलाबी चड़ढियां भेजी। इसके जवाब में श्रीराम सेना भी कैसे पीछे रहे उसने भी इसके विरोध में लडकियों को गुलाबी साडी बांटने का फरमान जारी किया। बहरहाल, इस पर चल रही हालिया बहस में कुछ नामी-गिरामी लोगों का बयान पेश है-
फ‍िल्‍मकार अपर्णा सेन - हमारी धार्मिक परंपराओं में कहीं भी विचारों को थोपने का रिवाज नहीं रहा। यहां तक कि प्राचीन भारत में नास्तिकता का भी अपना स्‍थान था। हमारी परंपराओं में विविधता है और यही उसकी ताकत है। नैतिकता का रक्षक खुद को घोषित करना महज बेवकूफी है।
जम्‍मू-कश्‍मीर के पूर्व मुख्‍यमंत्री फारुक अब्‍दुल्‍ला - लडकियों के साथ मारपीट हमारे कल्‍चर का हिस्‍सा नहीं है। जो लोग परंपरा की बात कर रहे हैं वे नहीं जानते परंपरा क्‍या चीज है।
संघ विचारक गोविंदाचार्य - कुछ परंपराएं पुरानी हो चुकी हैं और आज के समय के हिसाब से उन्‍हें पकडे रहने की जरुरत नहीं है। मुझे नहीं लगता कि उन्‍हें छोडने में कोई समस्‍या होनी चाहिए। दुर्भाग्‍य से आज भी हम कई पुरानी परंपराओं से चिपके हुए हैं। महिलाएं हमारे समाज का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा हैं। बिना राधा कोई कन्‍हैया नहीं हो सकता। बिना सीता के राम वनवासी होते हैं। अर्धनारीश्‍वर में आधा हिस्‍सा महिला है। महिलाओं का सम्‍मान होना चाहिए।
भाग दो - चांद और फ‍िजा
चंद्रमोहन और अनुराधा बाली ने अपने-अपने पद और परिवार को त्‍याग कर और चांद फ‍िजा जैसे नामों के साथ इस्‍लाम और निकाल कबूल किया तो चारों तरफ जैसे सनसनी फैल गयी। बार-बार यह प्रेमी युगल कैमरे के सामने एक-दूसरे के प्रेम और मोहब्‍बत की कसमें देकर साथ जीने-मरने का वादा करता दिखा। किसी फ‍िल्‍मी कहानी की तरह ही इसमें सारे मसाले थे- सियासत, बगावत, मोहब्‍बत, रुलाई, भरोसा आदि। पर यह क्‍या थोडे ही दिनों में इस कहानी में एकता कपूर की सास-बहू मार्का सीरियल की तरह मोड आ गया। वह भी दिलचस्‍प। चांद उर्फ चंद्रमोहन को अपनी पहली पत्‍नी व बच्‍चों की याद सताने लगी और फ‍िजा मैडम नींद की गोलियां खाने लगीं। आज आपको सबकुछ साफ-साफ नजर आ रहा है। जरा इन किरदारों के ओहदों पर नजर डालिए। एक है हरियाणा का उपमुख्‍यमंत्री और भजनलाल का बेटा चंद्रमोहन उर्फ चांद और दूसरा किरदार है हरियाणा की अतिरिक्‍त महाधिवक्‍ता अनुराधा बाली उर्फ फ‍िजां। अब मैडम फ‍िजां अपने चांद को गालियां देते नहीं थक रहीं, वे इस सबसे आगे निकलकर चुनाव भी लडना चाहती हैं। उधर, हमारे चांद मियां बादल की ओट लेने के बजाया विदेश में जा छिपे हैं। प्‍यार करनेवाले खूब जानते हैं कि प्रेम में सिर्फ साहस या दुस्‍साहस से काम नहीं चलता। बल्कि समझ, संवेदना और संजीदगी की जरुरत होती है। जिस प्‍यार में ये चीजें नहीं होती वे प्रेमी नायक नहीं विदूषक बन जाते हैं।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

अंडरडाग मानसिकता के शिकार हैं हमारे फ‍िल्‍‍‍मकार

दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित फिल्म अवार्ड आस्‍कर की आठ श्रेणियों में झंडा गाडऩे के बाद अब भले ही हम और हमारे फिल्मकार स्लमडाग... की जय हो बोल रहे हैं पर सच्चाई तो यह है कि हमीं कुछ दिन पहले तक इस फिल्म के निर्देशक डेनी बोएल की मानसिकता पर सवाल खड़े करने में लगे थे। दरअसल, हमारे तथाकथित बौद्धिक फिल्मकारों को यह कतई पसंद नहीं कि उनकी अंडरडाग मानसिकता (हताश, जिसके जीतने की संभावना कम हो) को कोई आईना दिखाए। वे खुश और संतुष्ट हैं शोले, डान और राज जैसी फिल्मों के रीमेक बनाकर। वे तो इस गणित में उलझे हैं कि फिल्‍मराज की रीमेक तो चली पर शोले की क्यों नहीं? जानकारों को यह खूब पता है कि हिंदी सिनेमा उद्योग के आठ दशक के इतिहास में हमने खूब पसीने बहाकर भी इससे पहले जैसे-तैसे सिर्फ तीन आस्‍कर (सत्यजीत रे, भानू अथैया और शेखर कपूर ) ही हासिल कर पाए हैं। हम आस्‍कर पाना तो चाहते हैं पर उसके लिए आवश्यक प्रयास नहीं करते। हमारी घिसी-पिटी शैली, पारंपरिक सोच और कुछ नया न करने की जिद इसकी प्रमुख वजह है। उदाहरण के तौर पर गुलजार के जिस गाने- जय हो को आस्‍कर अवार्ड से नवाजा गया उस गाने में युवराज फिल्म बनाते समय हिंदी फिल्मों के दूसरे शोमैन के नाम से मशहूर सुभाष घई साहब को कुछ भी खास नहीं लगा था। इस वजह से उन्होंने इस गाने को अपनी फिल्म में लेने से ही मना कर दिया। अगर आपको याद हो कुछ दिन पहले ही स्लमडाग... पर हमारे मिलेनियम सुपर स्टार अतिमाभ बच्चन साहब की प्रतिक्रिया थी - यह फिल्म हमारे देश की गलत छवि पेश करने के लिए बनाई जा रही थी इसलिए हमने इसमें कौन बनेगा करोड़पति के प्रस्तोता का अभिनय करने से मना कर दिया। हालाकि बाद में वे अपने इस बयान से मुकर गए थे। यह सिर्फ एक उदाहरण नहीं है। न जाने कितने नामी-गिरामी हस्तियों ने इस फिल्म की आलोचना पर अनाश्वयक शब्द खर्च किए। यह सवाल परेशान करने वाला है कि आखिर क्यों बाहर का कोई फिल्मकार हमारी पृष्ठभूमि, हमारे कलाकारों और हमीं लोगों के बीच रहकर आस्‍कर जीतने वाला फिल्म बना जाता है पर हमारे फिल्मकार यह कमाल पिछले अस्सी वर्षों में भी नहीं कर पाए हैं। सभी जानते हैं जिस महात्मा गांधी को हमने राष्टपिता की उपाधि से नवाजा उनपर सबसे पहली फिल्म बनाने की उपलब्धि किसी भारतीय फिल्मकार के नहीं बल्कि रिचर्ड एटनबरो के नाम दर्ज है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करनेवाली इस फिल्म के लिए भी भारत के भानू अथैया को आस्‍क मिला था। आखिर हमारे फिल्मकार कब तक आसमान पर थूकते रहेंगे। देर से ही सही अगर वे अब भी अंडरडाग मेंटलिटी को छोड़कर आगे बढ़ें तो निश्चित ही उम्मीद का सूरज अभी अस्त नहीं हुआ। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कई ऐसे उदीयमान फिल्मकार मौजूद हैं जिनमें पूरी दुनिया को रोशन करने की काबिलियत है।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अब यूपी के तीस जिलों में होगी जेटरोफा की खेती

शीघ्र ही यूपी में ग्राम पंचायतों की बंजर भूमि पर बायो ऊर्जा मिशन की योजना के तहत तीस जिलों में जेटरोफा की खेती की जाएगी। दावा यह किया जा रहा है कि जेटरोफा की खेती से एक तरफ जहां बायो डीजल बनेगा वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी क्‍योंकि इससे लोगों को रोजगार मिलेगा। पहले चरण में अलीगढ, हाथरस, मथुरा, मैनपुरी, एटा, कन्‍नौज, हरदोई, कानपुर नगर व कानपुर देहात, ललितपुर, झांसी, औरैया, हमीरपुर, प्रतापगढ, चित्रकुट, कौशांबी, चंदौली, गाजीपुर, मिर्जापुर, सोनभद्र जिलों को चुना गया है। बंजर भूमि में इसे पनपने के लिए सामान्‍य से भी कम नमी की आवश्‍यकता होती है।
गौरतलब यह है कि धान व गेहूं की उपज के लिए पूरे देश में विख्‍यात यूपी में अगर इस तरह से जेटरोफा को अत्‍यधिक कमाऊ फसल के रुप में प्रोजेक्‍ट किया जाएगा तो बाकी फसलों का क्‍या होगा। क्‍या यह मल्‍टीनेशनल कंपनियों की साजिश नहीं है। मालूम हो कि इससे पूर्व एप्‍लाइड सिस्‍टम एवं ग्रामीण विकास संस्‍था गौतमबुद़धनगर के दनकौर व जेवर क्षेत्र में यह प्रयास कर चुकी है पर लोगों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। बावजूद इसके जेटरोफा को किसानों पर लादने का प्रयास किया जा रहा है। यानि, जेटरोफा उगाइये और खाने के लिए गेहूं-चावल खरीदिए।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में भी कवि ही बनूं

रवि, सोम, भौम, बुध/ गुरु, शुक्र और शनि/ इन्हीं सात दिनों में से किसी एक दिन मैं भी मर जाऊंगा/ मुझे अपने मरने का थोड़ा भी दुख नहीं/ मेरे मर जाने पर/ शब्दों से मेरा संबंध छूट जाएगा...
आखिरकार इस सचाई से मुलाकात कर ही ली कवि त्रिलोचन ने। अपने भोपाल आगमन के दौरान वर्ष 2000 में एक लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था- 'मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में भी कवि ही बनूं। कवि होना पूर्व जन्मों का संस्कार है, ताप, संताप और आरोह-अवरोध आदि इसके मार्ग में बाधक बन ही नहीं सकते। जनसरोकारों के लिए सदा समर्पित और मानवीय मूल्यों पर केंद्रित कविता की रचना करना मेरा कर्म है।यह भाव उनकी इन पंक्तियों में साफ झलकता है -

कविताएं रहेंगी तो/ सपने भी रहेंगे/ कविताएं सपनों के संग ही/ जीवन के साथ हैं / कभी-कभी पांव हैं/ कभी-कभी हाथ हैं /त्रिलोचन जी के बारे में प्रख्यात कवि अशोक वाजपेयी की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- 'त्रिलोचन हिंदी के संभवत: सबसे गृहस्थ कवि हैं, इस अर्थ में कि हिंदी भाषा अपनी जातीय स्मृतियों और अनंत अन्तध्र्वनियों के साथ, सचमुच उनका घर है। वे बिरले कवि हैं जिन्हें यह पूरे आत्मविश्वास से कहने का हक है कि पृथ्वी मेरा घर है / अपने इस घर को अच्छी तरह/ मैं ही नहीं जानता। त्रिलोचन कि कविताएं साधारण चरित्र या घटना या विम्ब को पूरे जतन से दर्ज कराती हैं मानों सब कुछ उनके पास-पड़ोस में है।

मैंने जितना उनको पढ़ा व जाना है उसके आधार पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि लंबे समय से हिंदी साहित्य को बाबा का-सा संरक्षण प्रदान करने वाले और न जाने कितने पोतों को साहित्य की बारह खड़ी में पारंगत करने वाले त्रिलोचन शास्त्री कविता को जीने वाले कवि थे। तुलसी और निराला की कविता की परंपरा को आगे ले जाते हुए उसे नई ऊंचाई देने वाले त्रिलोचन का विराट रूप 'पृथ्वी से दूब की कलाएं लो चार/ऊषा से हल्दिया तिलक लो /और अपने हाथों में अक्षत लो/पृथ्वी आकाश जहां कहीं/तुम्हें जाना हो, बढ़ो! बढ़ो!!Ó इन पंक्तियों में झलकता है। उनकी कविता की गति में जीवन का सार छिपा रहता था और विकास के सोपान भी। 'शहरों में आदमी को आदमी नहीं चीन्हता/ पुरानी पहचान भी बासी होकर बस्साती है/ आदमी को आदमी की गंध बुरी लगती है/ इतना ही विकास मनुष्यता का अब तक हुआ है...

कुछ लोग यह मानते हैं कि त्रिलोचन एक अत्यंत सहज व सरल कवि है बहुत कुछ अपने व्यक्तित्व की तरह। पर सच्चाई यह है कि त्रिलोचन एक समग्र चेतना के कवि हैं, जिनके अनुभव का एक छोर यदि 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती जैसी सीधी सरल कविता में दिखायी पड़ता है तो दूसरा 'रैन बसेरा जैसी कविता की बहुस्तरीय बनावट में।

त्रिलोचन ने आत्मपरक कविताएं ज्यादा लिखा हैं। पर यह कविताएं किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएं नहीं है और यही उनकि गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। तभी तो उनके मुंह से बेलाग और तिलमिला देने वाली पंक्ति निकलती है 'भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल/ जिसको समझे था है तो यह फरियादी। अपने प्रति यह अचूक निर्मम दृष्टि समकालीन साहित्य में कम ही मिलेगी।

त्रिलोचन के सॉनेटों के बारे में बहुत कुछ कहा-सुना गया है। परंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की टिप्पणी उल्लेखनीय है - 'सॉनेट जैसे विजातीय काव्यरूप को हिंदी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने एक ऐसी नयी काव्य विद्या का आविषकार किया है जो लगभग हिंदी की अपनी विरासत बन गयी है।शब्दों की जैसी मितव्ययिता और शिल्पगत कसाव उनके सॉनेटों में मिलता है, वैसा निराला को छोड़कर आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।

उनकी कविताएं पढ़कर और परिचित साहित्यकारों से त्रिलोचन जी की सादगी व सहजता के बारे में मैंने जितना सुन रखा था उससे कहीं अधिक पाया। उनके भोपाल प्रवास के दौरान मैं जब अपने मित्र रंजीत प्रसाद सिंह (जो अभी हिंदी दैनिक प्रभात खबर, जमशेदपुर में हैं) के साथ त्रिलोचन जी से मिलने पहुंचा तो उनके द्वारा दिए समय से चालीस मिनट विलंब हो चुका था। गेस्ट हाउस के कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने कहा- 'मुझे लग रहा था तुम लोग अब नहीं आओगे। aarambh में तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बात शुरू कैसे करूं? मेरी मन: स्थिति को वे भांप गए और बात उन्होंने ही शुरू कर दी। हमारी पढ़ाई से लेकर पारिवारिक पृष्ठभूमि तक की बात पूछ डाली। अब तक मैं सहज हो चुका था। फिर धीरे-धीरे उनके रचनाधर्म से लेकर निजी अभिरुचियों तक पर घंटों बातें होती रही। मैंने महसूस किया कि जब भी उन्हें यह लगता कि मैं बातचीत में असहज महसूस कर रहा हूं वे कोई रोचक प्रसंग सुनाने लग जाते।

मैंने जब उनसे यह कहा कि विगत अस्सी वर्षों में दुनिया बहुत बदल गई है, समाज और परिवार बदल गए हैं। आप इस बदलाव को किस रूप में महसूस करते है? उनका जवाब था 'परिवेश, देश, काल, पात्र जितने भी बदल जाएं लेकिन भीतर से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं । इस देश में भी उस महाभारत युग से लेकर आज तक मनुष्य का रूप बदला नहीं है।

तभी त्रिलोचन को सृजनकाल में कभी कोई थकान नहीं दिखा। कोई पुनरावृति नहीं दिखी, बल्कि दिनोंदिन उसमें निखार ही आता गया। ऐसी शख्सियत का गतायु होना महज आत्मा का शरीर को त्यागना भर नहीं है, बल्कि साहित्य को एक सोपान का ढहना भी है। भाषा की समस्त गूंजों और अनुगूंजों को बखूबी जानने वाले और एक रचनाकर की हैसियत से उनके प्रति गहरा सम्मान का भाव रखने वाले त्रिलोचन का शरीर ही तो नहीं रहा, उनकी कविता में मौजूद भाषा के विविध धरातल तो अखंड है।

नई पीढ़ी को समर्पित उनकी पंक्तियां- 'कोई देश/ तुम्हारी सांसों से जीवित है/ और तुम्हारी आंखों से देखा करता है/ और तुम्हारे चलने पर चलता रहता है/ मनोरंजनों में है इतनी शक्ति तुम्हारे/ जिससे कोई राष्ट्र/ बना-बिगड़ा करता है/ सदा-सजग व्यवहार तुम्हारा हो/ जिससे कल्याण फलित हो...

(कवि त्रिलोचन के अवसान के तत्क्षण बाद मैंने श्रद्धांजलि स्वरुप यह संस्मरण लिखा था।)

मेरी कुछ प्रकाशित कविताएँ

मां की तस्वीर

यह मेरी मां की तस्वीर है
इसमें मैं भी हूँ
कुछ भी याद नहीं मुझे
कब खींची गयी थी यह तस्वीर
तब मैं छोटा था
बीस बरस गुजर गए
अब भी वैसी ही है तस्वीर
इस तस्वीर में गुडिय़ा-सी दिखती
छोटी बहन अब ससुराल चली गयी
मां अभी तब बची है
टूटी-फूटी रेखाओं का घना जाल
और असीम भाव उसके चेहरे पर
गवाह हैं इस बात के
चिंताएं बढ़ी हैं उसकी
पिता ने भले ही किसी तरह धकेली हो जिंदगी
मां खुशी चाहती रही सबकी
ढिबरी से जीवन अंधकार को दूर करती रही मां
रखा एक एक का ख्याल
सिवाय खुद के
मैं नहीं जानता
क्या सोचती है मां
वह अभी भी गांव में है
सिर्फ तस्वीर है मेरे पास
सोचता हूं
मां क्या सचमूच
तब इतनी सुंदर दिखती थी।
(कथादेश के अगस्त 2004 के अंक में प्रकाशित कविता)

यह सच है


मेरे पिता कविताएं नहीं लिखाते
वे दादाजी के समान हैं जो कविताएं नहीं लिखते
वे दादी के समान हैं जो कविताएं नहीं लिखतीं
आपको आश्चर्य लगे पर यह सच है
मेरा कोई रिश्तेदार कविता नहीं लिखता

मेरे पिता के सिरहाने कविताएं नहीं होंती
न ही होती हैं उनकी डायरी या दराजों में
वे जब मेरे पास होते हैं
जानता हूं कविताएं नहीं सुनाएंगे मुझे
नसीहतें देते हैं जिंदगी की
पर उनमें छुपा स्वार्थ नहीं होता

मेरे पिता में अच्छे गद्य के आसार हैं
पर उनका सारा लेखन जिंदगी के

हिसाब-किताब में खत्म हो जाता है
मैं जब भी मिलता हूं
उनके पास इतना

इतना अधिक होता है
हने-बताने के लिए।
(साक्षात्कार के अक्टूबर 2003 के अंक में प्रकाशित कविता)

मेरे विदेशी मित्र ने पूछा

सुना है तुम्हारे देश में
रेल की छत पर भी बैठते हैं लोग
मैंने गदर फिल्म में देखा है...

क्या तुम्हारे यहां/अब भी लिखी जाती हैं चिट्ठियां
क्या अब भी कोई इनमें दिल बनाके भेजता है
क्या कबूतर ले जाता है इसको
इंडिया में लेटर बाक्स को
पेड़ पर लटके देखा हमने
बीबीसी न्यूज चैनल पर...

दुनिया में जब इतनी चीजें हैं खाने को
तुम लोग एक रोटी के ही पीछे क्यों भागते हो
चूल्हे की एक रोटी खाकर
मिट्टी के घड़े का पानी पीक
तुम सभी अब तक जिंदा हो!
(साक्षात्कार के अक्टूबर 2003 के अंक में प्रकाशित कविता)







कुछ टिप्पणियां

कुछ संबंधों से हम बाहर नहीं निकल सकते। कोशिश करें, तो निकलने की कोशिश में मांस के लोथड़े बाहर आ जाएंगे, खून में टिपटिपाते हुए।

जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए। पीछे छोड़े हुए सब स्मतिचिन्हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए, किसी भी तरह कि वापसी को असंभव बनाने के लिए।

यह ख्याल ही ·कितनी सांत्वना देता है कि हर दिन, वह चाहे कितना लंबा, असह्य क्यों न हो, उसका अंत शाम में होगा, एक शीतल-से झुपपुटे की तरह।

मेरे लिए 'सफलताÓ एक ऐसे खिलौने की तरह है, जिसे एक अजनबी किसी बच्चे को देता है, इससे पहले कि वह उसे स्वीकार करे, उसकी नजर अपने मां-बाप पर जाती है और वह अपने हाथ पीछे खींच लेता है।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चार्ल्स की चाहत पर सवाल

धारावी। हो सकता है कि तीन अक्षर के नाम वाली इस झुग्गी बस्ती से आप भी वाकिफ हों। वैसे पूरी दुनिया में यह नाम चर्चित है। हाल ही में आस्कर पुरस्कारों की दस श्रेणियों में नामांकित फिल्म स्लमडाग मिलियनेयर ने इस नाम को और ख्याति दे दी है। अब यही धारावी पूरी दुनिया के लिए आदर्श बस्ती बताई जा रही है। ब्रिटेन की राजगद्दी के वारिस प्रिंस चाल्र्स ने पूरी दुनिया को धारावी बनाने की वकालत की है।बृहस्पतिवार को फाउंडेशन फार द बिल्ट इनवायरमेंट द्वारा आयोजित एक सम्मेलन के दौरान राजकुमार चाल्र्स ने दुनिया में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पश्चिम की वास्तुकला के मुकाबले धारावी जैसी बस्तियों को आदर्श बताया। राजकुमार चार्ल्स की यह संस्था कई गरीब और पिछड़े देशों में स्थानीय लोगों के साथ मिलकर झुग्गी बस्तियों को नया रूप देती है।इस सम्मेलन में राजकुमार चाल्र्स के साथ मौजूद नेशनल स्लम ड्वेलर्स फेडरेशन आफ इंडिया के संस्थापक जाकिन अरपुथम ने फिल्म स्लमडाग मिलियनेयर पर चुटकी लेते हुए कहा कि मैं झुग्गी झोपड़ी का रहने वाला हूं न कि एक स्लमडाग। धारावी के एक हिस्से पर बहुमंजिली इमारतें बनाने के बिल्डरों के प्रयास को नाकाम करने वाले अरपुथम ने कहा कि कई विकासशील देश पश्चिमी देशों को आदर्श के रूप में देखते हैं, लेकिन यह हकीकत नहीं है।

अब बताइए कि.........

क्या चार्ल्स वाकई दुनिया को एक नजर से देख रहे हैं या स्लमडाग... फिल्म के बहाने अपने निहित स्वार्थ (संस्था के प्रचार) की पूर्ति करना चाहते हैं?

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

आंखों भर आकाश

ये धन, ये वैभव
नहीं चाहिये मुझे
चाहो तो तुम इसे ले लो
मुझे मेरे आंखों भर आकाश दे दो
इसे ले जाउंगा मैं
मुंबई, मद्रास या हालीवुड
बिकेंगे उंचे भाव
मिलते कहां हैं आजकल ये।