रविवार, 23 फ़रवरी 2014

मानो या न मानो मैं ‘माननीय’ हूं

जी हां, कोई माने या न माने, मैं हूं माननीय. वह भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि जनता द्वारा ‘चुना’ हुआ. चुनाव जीतने के साथ ही मुङो कुछ भी करने का ‘विशेषाधिकार’ स्वत: हासिल हो जाता है. मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मैं चाहे जो करूं.. मेरी मर्जी. एक बार जब जनता ने मुङो वोट दे कर सदन में भेज दिया, तो फिर पांच साल तक चलेगी मेरी मर्जी.. मैं चाहे लोकसभा में मिरची पाउडर की बारिश करूं या राज्यसभा में धक्कामुक्की.. मैं चाहे विधानसभा में कपड़े उतार दूं या मार दूं किसी को थप्पड़. मैं चाहूं तो सदन के स्पीकर का आदेश भी न मानूं और मन करे तो अपनी ही पार्टी के नियमों की धज्जियां उड़ा दूं. सबके सामने ही पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ नारेबाजी करूं और सदन की कार्यवाही भी न चलने दूं. ‘सबका मालिक एक’ होता होगा, पर मैं तो अपनी मर्जी का मालिक हूं. मेरा मन नहीं करता, तो मैं तब तक अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं जाता जब तक कि अगला चुनाव न आ जाये. मैं तो अपने वोटर को भी ऐन वक्त पर पहचानने से इनकार कर देता हूं. अरे भई! नेता और वोटर का रिश्ता भी कोई स्थायी होता है भला. यह रिश्ता तो क्षणभंगुर है. और वैसे भी यह दुनिया नश्वर है, माया है, यहां कौन किसका है. वोटर-नेता का रिश्ता तो चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही शुरू होता है और चुनाव परिणाम आते ही खत्म हो जाता है. कम से कम मेरे तरफ से तो ऐसा ही समङिाए.
लोग मुझसे सवाल करते हैं कि माननीयों की मनमानी के कारण  संसदीय कार्य हो नहीं पा रहे हैं और संसद हंगामे का अखाड़ा बन गयी है. जनता की गाढ़ी कमाई की इस तरह बर्बादी हो रही है. लोग यह भी कहते हैं कि ‘संसद और विधानसभाओं का मूल काम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से लोगों का सशक्तीकरण करना है. इसके अलावा संसद पर जिम्मा है कि वह कार्यपालिका पर नियंत्रण रखे और उसे सभी तरह से जवाबदेह बनाये. किंतु माननीय इस मंदिर को अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के केंद्र के रूप में तब्दील करने में लग गये हैं. परिणामस्वरूप संसद का मूल कार्य गौण हो गया है.’
भइया मेरे! इत्ती बात तो मुङो भी पता है. मैं कोई बुद्धू थोड़े ही न हूं. मुङो तो यह भी मालूम है कि विश्व में भारत ही सबसे बड़ा लोक-तांत्रिक देश है जिसमें जनता के द्वारा चुने हुए 543 प्रतिनिधि ही केंद्रीय सरकार के शासन को चलते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है माननीय बनने के लिए किसी भी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं है. केवल 35 वर्ष का वयस्क भारतीय नागरिक होना जरूरी है. किसी शिक्षा की भी जरूरत नहीं है. यहां तक कि अगर अनपढ़ भी हो, तो चलेगा? अब जब इतनी जानकारी मुङो है ही तो आप मान क्यों नहीं लेते कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा या जो करता हूं वही सही है. देखो भाई, मानना हो तो मान लो, वरना क्या कर लोगे???

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

शायद मैं भी बाबूजी की तरह हो रहा हूं

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर हैं बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर हैं बाबूजी,
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर हैं बाबूजी.
 नामचीन कवि भाई आलोक श्रीवास्तव की ये पंक्तियां मुङो अत्यंत पसंद हैं. इनमें एक पिता का जो शब्द-चित्र खींचा गया है, वह मुङो काफी जाना-पहचाना सा लगता है. सच कहूं तो उसमें मुङो अपने पिताजी की छवि दिखायी पड़ती है. मुङो ही क्या, आपको भी दिखती होगी. अपने पिताजी को मैं भी बाबूजी कहता हूं. बाबूजी अपने चार भाइयों में सबसे बड़े हैं. छोटी उम्र में ही जब उनके पिता, यानी हमारे दादाजी चल बसे, तब वहीं से शुरू हो गया सिलसिला मुफलिसी का. बाबूजी ने एक रिश्तेदार के घर रह कर मैट्रिक तक की पढ़ाई तो पूरी कर ली, पर आगे पढ़ाई जारी रखने में गरीबी सबसे बड़ी बाधा थी. तीन छोटे भाइयों और एक छोटी बहन की जिम्मेवारी उन पर थी.
नौकरी की तलाश में गांव से कोलकाता पहुंचे बाबूजी ने जूट मिल में नौकरी की. उनमें गजब का धैर्य और तटस्थता है जो शायद बचपन में ही अपने पिताजी को खो देने और एक विशाल संयुक्त परिवार में गरीबी और अभावों के बीच पालन-पोषण की वजह से पनपी होगी. सुख-दुख सभी हालात में एक सा बने रहना सभी के वश में नहीं होता. घर की बड़ी बहू होने के कारण मां हमेशा गांव में ही रही. उस पर सभी की देखरेख की जिम्मेवारी जो थी. बाबूजी अभी कुछ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होकर गांव आ गये हैं. अच्छा लगता है अब मां-बाबूजी साथ रहते हैं. एक-दूसरे का दुख-दर्द बांटते हुए, एक-दूसरे को और अधिक समझते हुए. बाबूजी भाग्यशाली थे कि मां ने खुद की अनदेखी को लेकर कभी उनसे शिकायत नहीं की. कभी नहीं. कुछ नहीं.
बाबूजी हम भाई-बहनों को स्नेह तो करते रहे, पर उसे दिखाने से, प्रगट करने से हमेशा बचते रहे. शायद, इसलिए भी क्योंकि वो खुद को कमजोर नहीं करना चाहते थे. आखिर घर से, परिवार से, अपनों से दूर रहने की हिम्मत जो जुटानी होती थी. साल में दो-तीन दफा या किसी पर्व-त्योहार पर जब वे घर आते, तो कुछ दिन रह कर लौटते वक्त उनकी आंखों में उतर आयी नमी को मैं देख कर कुछ परेशान सा हो जाता था. बच्च था, इसलिए उसकी अहमियत, उसके मायने को ठीक-ठीक समझ नहीं पाता था. अब समझ पा रहा हूं, क्योंकि मैं भी पिता हूं. पिता की जिम्मेदारी निभाते हुए पिछले कुछ वर्षो में बाबूजी की प्रतिष्ठा मेरी नजर में और भी बढी है. मेरी जीवन-संगिनी कहती हैं, ‘‘तुम अपनी भावनाओं का इजहार नहीं करते.’’ बाबूजी भी तो ऐसा ही करते हैं. ठीक-ठीक बता नहीं सकता कि यह बढ़ती उम्र का असर है या मैं भी बाबूजी की तरह होता जा रहा हूं.