सोमवार, 9 जून 2014

अगर मैं कवि नहीं होता तो ट्रेन चला रहा होता : अरुण कमल


अरुण कमल की गणना आधुनिक कवियों की पहली पंक्ति में की जाती है. उनकी कविताओं में नए बिंब, बोलचाल की भाषा, खड़ी बोली के अनेक लय-छंदों का समावेश है. इनकी कविता में वर्तमान शोषण मूलक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश, नफरत और उसे उलट कर एक नई मानवीय व्यवस्था का निर्माण करने की आकुलता सर्वत्र दिखाई देती है. इन्हें कविताओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से नवाजा चुका है. एक साहित्यिक आयोजन में शिरकत करने जमशेदपुर (झारखंड) आये हिंदी के इस ख्यातिलब्ध कवि से बात की अखिलेश्वर पांडेय ने. पेश हैं इस इंटरव्यू के मुख्य अंश.


अरुण कमल (जन्म :1954 रोहतास, बिहार)  
प्रमुख कृतियां हैं : अपनी केवल धार, सबूत नए इलाके में, पुतली में संसार तथा कविता और समय. 
पुरस्कार-सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1980), सोवियत भूमि पुरस्कार (1989), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1990), रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1996), शमशेर सम्मान (1997) एवं कविता संग्रह ‘नए इलाके में’ के लिए (1998) साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित.

खुद के अभी तक के रचनाकर्म से संतुष्ट हैं? 
नहीं, कतई संतुष्ट नहीं हूं, क्योंकि संतोष हो जाएगा तो लिखना बंद हो जायेगा. मुङो हमेशा लगता है कि कविता बिल्कुल वैसी होनी चाहिए जैसे कबीर और तुलसीदास की कविता हैं, जिनकी पंक्तियां गांव-गांव, शहर-शहर में लोगों की जुबान पर हैं. जो लोगों के सुख-दुख की सहचर हो. अभी तक मैंने ऐसा नहीं लिखा है.

आप कवि नहीं होते तो क्या होते?
रघुवीर सहाय की एक कविता है-मैं तोता होता तो क्या होता. वैसे ही अगर मैं कवि नहीं होता तो तोता होता. हो सकता है कि मैं कोई बड़ा स्मगलर होता. कोई मंत्री या प्रधानमंत्री भी हो सकता था. जब हम कोई एक निर्णय लेते हैं तो फिर उसी पर अडिग रहना पड़ता है/रहना चाहिए. एक साथ बहुत काम नहीं कर सकते. जैसे मैं कविता लिखता हूं तो यह तो नहीं हो सकता कि मैं किसी दूसरे देश की खुफियागीरी करूं, हत्यारों के साथ पार्टियों में जाऊं. भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का शागिर्द बन जाऊं. जब आप सड़क पर चल पड़ते हैं तो आपका ध्यान सिर्फ पेड़-पौधों पर होता है, वही आपके सहचर होते हैं. वैसे तो मैं पेशे से शिक्षक हूं, पर मेरी दिली ख्वाहिश रही है कि काश मैं रेलगाड़ी चला पाता. तो मुङो यह लगता है कि अगर मैं कवि नहीं होता तो मैं रेलगाड़ी का ड्राइवर होता. दरअसल, मुङो बचपन से ही ट्रेन को देखकर बड़ा कौतूहल होता था. मैं सोचता था कि आखिर कोई इतनी बड़ी ट्रेन को कैसे चला पाता है?

क्या कवि कोई विशिष्ट प्राणी है?
कवि का काम है कविता लिखना. कविता लिखने के लिए उसे तमाम तरह के यत्न  करने पड़ते हैं. उसे अपने तरह की जिंदगी जीनी पड़ती है. अगर वह हमेशा सजा-संवरा, माला-दुशाला में रहेगा तो उसका अजीब तरह का स्वांग होगा. कवि के लिए सबसे अच्छा तो यही होता है कि उसे कोई न जाने कि वह कवि है, लोग उसकी कविताओं को जानें, यही कवि की विशिष्टता है. मेरी एक पंक्ति है- सितारा बनने से अच्छा है, गंदी गली का लैंपपोस्ट बनो.

इसी साल आपने जिंदगी का 60वां पड़ाव पार किया है? कुछ स्पेशल लग रहा है?
हां, इसका एक रोचक वाकया है. जिस दिन मैंने 60 साल पूरे किये, उसी दिन मैं रेलवे स्टेशन गया और वरिष्ठ नागरिक वाला एक रियायती टिकट खरीदा. हालांकि मुङो कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैंने रियायती टिकट खरीदा और फिर दूसरे दिन जाकर वापस कर आया. थोड़े दिन रियायती टिकट लेकर बनारस गया और अब जमशेदपुर आया हूं. मुङो अच्छा लगा कि चलो उम्र बढ़ने का यह फायदा तो हुआ. मैं इस बात का हिमायती नहीं हूं कि उम्र बढ़ने से कोई विशिष्ट या बड़ा हो जाता है. इंसान बड़ा होता है अपने कर्म से, अपने गुण से. जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु इतनी कम उम्र में गुजर गये, लेकिन लोग उनकी रचनाओं को याद करते हैं. अंग्रेजी में शेली, किट्स और फ्रांस में रैम्बो. रैम्बो की तो सारी बेहतर कविताएं 20-21 की उम्र तक आ चुकी थीं. मेरा मानना है कि उम्र का न तो विशिष्टता से संबंध है और न ही गुणवत्ता से.

अब आगे क्या प्लानिंग है, कोई इच्छा?
मेरी बहुत इच्छा है कि मैं कैलाश-मानसरोवर देखूं, माउंट एवरेस्ट जाऊं, लेकिन मुङो पता है कि मैं अब यह नहीं कर सकता. लेकिन मेरी यह इच्छा अवश्य है कि मैं दुनिया का वह श्रेष्ठ साहित्य अवश्य पढूं जो अब तक नहीं पढ़ पाया या ठीक से नहीं पढ़ पाया. जैसे-महाभारत, रामचरित मानस, कालीदास, भवभूति आदि को ध्यान से पढ़ने की प्रबल इच्छा है. शेक्सपीयर भी मेरे प्रिय रचनाकार हैं, उन्हें भी और पढ़ना चाहता हूं. हां, एक बात और है - मैं ऐसी जगह रहना चाहता हूं जहां सामने नदी और पीछे पहाड़ हो, आसपास पेड़ हों. लेकिन यह ऐसी इच्छा है जो पूरी होनी मुश्किल है. मैं घाटशिला भी इसीलिए जाना चाहता हूं-जहां विभूति भूषण बंदोपध्याय रहते थे.

नये रचनाकारों के लिए कोई संदेश?
कभी भी सत्ता के पीछे न जाएं. रोजी-रोटी के लिए ज्यादा चिंतित न हों. हमारे पुरखे जो कहते थे वही बात मैं भी दोहराऊंगा कि जब भगवान ने मुंह चीर दिया है तो आहार भी मिल जायेगा. सत्ता और धन के प्रति हिकारत तो होनी ही चाहिए, उसके बिना कविता नहीं लिखी जा सकती. जिंदगी को अच्छे से जीने के लिए एक उन्मुक्तता जरूरी है. अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए. जो कुछ भी दुनिया में सर्वोत्तम है उसे हासिल करने का प्रयत्न करना चाहिए. आप चाहे जिस भी क्षेत्र में हों, वहां अपना सर्वश्रेष्ठ दें.

वर्तमान राजनीति को आप कैसे देखते हैं?
अभी जो कुछ भी बदलाव हुआ है उसे मैं इस रूप में देखता हूं कि आम आदमी की जिंदगी में क्या बदलाव आया है. अगर उसकी जिंदगी में अच्छा बदलाव आया है तो समङिाये अच्छा हो रहा है. लेकिन अगर सिर्फ अरबपतियों की जिंदगी में अच्छा बदलाव आ रहा है तो समङिाये अच्छा नहीं है. जैसा व्यवहार आप मनुष्य के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार आप प्रकृति के साथ भी करते हैं. सिर्फ कुर्सी बदलना बदलाव नहीं है. बदलाव इंसानों में होना चाहिए. सबसे कमजोर आदमी की जिंदगी बेहतर हुई है तो समङिाये बदलाव हुआ है. सबको रोजी-रोटी मिले, किसी को रोजगार की चिंता न सताये. जब इंसान अपनी नौकरी जाने की चिंता छोड़, इत्मीनान से मछली मारे, अच्छा म्यूजिक सुने, सुकून की जिंदगी जीये, तब समङिाये कि अच्छे दिन आ गये.

आदिवासी साहित्य को बढ़ावा दे टाटा समूह
झारखंड की संताली और मुंडा कविता भी मुङो बहुत पसंद है. खासकर जगदीश त्रिगुणायत ने आदिवासी लोकगीतों का संग्रह तैयार किया ‘बांसुरी बज रही है’ नाम से. वह बहुत अच्छी है. उसने मुङो प्रभावित किया. मेरा मानना है कि आदिवासी भाषाओं की कविता को और ज्यादा प्रचारित-प्रकाशित किया जाना चाहिए. यह काम सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को भी करना चाहिए. टाटा समूह को भी इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए.

मिठाइयां खाने का शौक
मुङो खाने का बहुत शौक है. मैं जब भी केरल जाता हूं, ढेर सारे मसाले ले आता हूं. आलू दम का तो मैं दीवाना हूं. मुङो सभी तरह की मिठाइयां भी बहुत पसंद हैं. खासकर पुरानी मिठाइयां जैसे- गुड़ से बनी जलेबी, लाई, शक्करपाला, लक्ठो.

आमंत्रित करता शहर है जमशेदपुर
मैं दूसरी बार जमशेदपुर आया हूं. इस बार लंबे अरसे बाद आना हुआ है. खुला-साफ शहर है यह. पटना में मैं जिस इलाके में रहता हूं वहां आप शाम को भीड़ के मारे निकल नहीं सकते. यहां खाली व साफ सुथरी सड़कें मुङो आकर्षित करती हैं. सुबह जब मैं स्टेशन पर उतरा तो मुङो बहुत अच्छा लगा. झारखंड-बिहार में ऐसा शहर दूसरा नहीं है. यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है, शुरू से ही है. खास बात यह है कि इस शहर ने आरंभ से ही अपनी गुणवत्ता बरकरार रखी है. हर तरीके से यह एक आमंत्रित करता शहर है.

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