शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

जरूरत है एक अच्छे से गांव की

भाइयो और बहनो! मैं इन दिनों बड़ा परेशान हूं. मेरी परेशानी का सबब जानने चाहेंगे? जानना चाहेंगे कि नहीं? तो सुनिये.. मैं  गांव गोद लेने के लिए परेशान हूं. यह मसला बच्चे को गोदी में लेने जैसा तो है नहीं. ऐसा रहता तो कोई बात ही नहीं थी. वोट मांगने के लिए मैं एक-एक दिन में 20-20 बच्चों को गोद में ले चुका हूं. मैं चाहता हूं कि आप सभी मेरी मदद करें. मुङो कोई ऐसा गांव सुझायें जो देखने में ठीकठाक हो, 24 घंटे बिजली रहती हो, स्कूल-कॉलेज हो, अस्पताल हो, सभी शिक्षित हों, पर कोई बेरोजगार न हो, कोई बूढ़ा न हो, बीमार न हो. गांव में बाढ़ न आती हो, सुखाड़ न पड़ता हो. जिसमें गोबर करने वाली गाएं-भैंसें, लेंड़ी फैलानेवाली भेड़-बकरियां न हों. कुत्ते-सुत्ते न हों. और वहां की सड़कें चकाचक हों, क्योंकि धूल से हमें एलर्जी हो जाती है.. और.. और.. और.. जिस गांव में भी यह सभी खूबियां मौजूद हों, मैं उसे गोद लेने को तैयार हूं. भाइयो-बहनो! बातों-बातों में टाइम बहुत हो चुका है, पर आपका प्यार-समर्पण और उत्साह देख कर मैं ‘मन की बातें’ आपसे करना चाहता हूं. जब से मुल्क में नयी सरकार आयी है, जिंदगी आसान होती जा रही है. जिधर देखो, उधर से ही एकाध अच्छी खबर आती दिख जाती है. हर काम बुलेट ट्रेन की गति से होने लगा है. मतदाता वोट डालने के लिए इंतजार करते रह जाते हैं और एग्जिट पोले वाले नतीजों का एलान कर देते हैं. प्याज 80-90 रुपये तक पहुंच कर, तीस-पैंतीस पर आकर टिक जाता है और सस्ता हो जाता है! और तो और, मुद्रास्फीति भी घट जाती है. अर्थव्यवस्था के गति पकड़ने का रहस्य न कोई पूछता है, न कोई बताता है. इसके बावजूद समूची दिनचर्या एकदम इवेंटफुल हो गई है. अब लोग अपनी तकदीर को भले कोस लें, कोई सरकार को नहीं कोस रहा. इसे कहते हैं अच्छे दिन. अच्छे दिन का उदाहरण इससे अच्छा और क्या होगा कि तूफान भी आता है, तो हुदहुद की तरह. जनता इसे ठीक से समझ पाये कि इससे पहले ही फुर्र हो जाता है. शिक्षक दिवस और गांधी जयंती जैसे दिखावटी दिन अब इतने बड़े उत्सव बन गये हैं कि पूछिए मत.
पहले साफ-सफाई बिना नहाये, पुराने कपड़े पहन कर करने की परंपरा थी, पर अब ‘स्वच्छता अभियान’ का असर देखिये कि लोग प्रेस कपड़े, पॉलिश जूते और विशेष प्रकार की खुशबू वाले परफ्यूम से महकते हुए झाड़ू देते टेलीविजन और अखबारों में साफ-साफ देखे जा रहे हैं. इसे कहते हैं अच्छे दिन. यह ‘स्वच्छता अभियान’ का ही असर है कि गांवों में लोग अब खुले में शौच नहीं करते, बल्कि खंडहर, पेड़-पौधों या झाड़-झंखाड़ की आड़ ढूंढ़ते रहते हैं. तो बहनो-भाइयो! आप अच्छे दिन का लुत्फ उठायें और मेरे लिए एक गांव ऐसा बतायें जिसे मैं गोद ले सकूं. मैं आपके सुझाव की प्रतीक्षा करूंगा. इतना धैर्य दिखाने के लिए आपका शुक्रिया. मेरे साथ बोलिए- भारत माता की जय! 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (22-11-2014) को "अभिलाषा-कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा" (चर्चा मंच 1805) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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