किसानों की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने व गंदे हथकंडे अपनाने वाले राजनीतिक दलों! तुम्हें क्या कभी इस बात पर भी रोना आया कि तुम्हारे अंदर की संवेदनाएं दिन-ब-दिन मर रही हैं. गांव का किसान अपने पड़ोसी से खेत की मेढ़ काटने का मुकदमा लड़ते-लड़ते जवानी खोकर बुढ़ापे की दहलीज में कब प्रवेश कर जाता है उसे खुद ही मालूम नहीं पड़ता. खाद-बीज और सिंचाई के मकड़जाल में किसान की जिंदगी इस कदर उलझी होती है कि उसकी बेटी सयानी होकर ब्याह करने लायक हो गयी, इस बात का भान उसे आस-पड़ोस वालों के ताने सुन कर ही होता है. वह करे तो क्या करे? जवान बेटी के अरमानों की डोली उठने का ख्वाब पाले उसके कानों में बिस्मिला खान की शहनाई नहीं बल्कि घरवाली की कर्कश आवाज गूंजती रहती है ‘तोहरे चेंट में पइसा ना हवे त हमार गहना-गुरिया बेचके एकर बियाह करी द.’ घर में बैठी बेटी के मुस्कान उसके चेहरे में ही कहीं खो गयी है. दिल का दर्द दबाते-दबाते होंठ काले पड़ गये हैं. उसके हाथ की लकीरों में क्या है, उसे भले ही न पता हो पर उसे इस बात का गुमान अवश्य है कि ये नेता उसकी तकदीर नहीं बदल सकते. ज्यादातर किसान लोकसभा-राज्यसभा चैनल नहीं देखते. उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि संसद में बैठे माननीय कभी ‘बेटा बूटी’ तो कभी ‘सांवली औरत’ जैसी ऊटपटांग बातों में देश का वक्त जाया कर देते हैं. वह तो यह भी नहीं जानते कि इस देश के प्रधानमंत्री की पत्नी को अपने अधिकारों की लड़ाई आरटीआइ के माध्यम से लड़नी पड़ रही है. खुद कहानी गढ़ने, खुद किरदार बनाने और खुद इल्जाम तय कर खुद ही जज बन जाने का ये गजब दौर है. गुमशुम अटल, न लाल-न कृष्ण, मझधार में मांझी, न नीति-न ईश, डगमगाते विश्वास का दौर..! किसके पास जाएं, किससे करें फरियाद. कौन होगा मददगार, कौन तारणहार..! ऐसे में इस देश के किसानों के मन में यह सवाल जरू र उठता है - न राज है न नाथ है. कोई पप्पू है, कोई फेंकू है. जनता अनाथ है तो नेता कहां है? कौओं की टोली में हंस को ढूंढ़ने का क्या फायदा?
सच्चई तो यह है कि इस देश के किसान भोले-भाले जरू र हैं पर वे खुद के नाथ हैं. उन्हें भरोसा है अपने हाथ पर. कर्म को सवरेपरि मानने वाला किसान किस्मत और किसी खेवनहार के सहारे की उलझनों से अब बाहर आना चाहता है. ऐसे में अगर कोई किसान शायरी लिखने लग जाये तो उसका पहला शेर यही होगा - कश्तियां ना सही हौसले तो साथ हैं/ कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं. अब राजनीतिक आकाओं को यह बात समझनी ही होगी कि वो दिन चले गये जब छलावे की राजनीति और डपोरशंखी घोषणाओं से किसानों को बहलाया जा सकता था. किसी को कुछ करना ही है तो वह करोड़ों किसानों का दिल जीते..उसका सच्च दोस्त बन कर.
सच्चई तो यह है कि इस देश के किसान भोले-भाले जरू र हैं पर वे खुद के नाथ हैं. उन्हें भरोसा है अपने हाथ पर. कर्म को सवरेपरि मानने वाला किसान किस्मत और किसी खेवनहार के सहारे की उलझनों से अब बाहर आना चाहता है. ऐसे में अगर कोई किसान शायरी लिखने लग जाये तो उसका पहला शेर यही होगा - कश्तियां ना सही हौसले तो साथ हैं/ कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं. अब राजनीतिक आकाओं को यह बात समझनी ही होगी कि वो दिन चले गये जब छलावे की राजनीति और डपोरशंखी घोषणाओं से किसानों को बहलाया जा सकता था. किसी को कुछ करना ही है तो वह करोड़ों किसानों का दिल जीते..उसका सच्च दोस्त बन कर.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वाकई ..;किसके पास जाएं, किससे करें फरियाद. कौन होगा मददगार, कौन तारणहार..! बहुत सही लिखा आपने
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रश्मि जी
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