गुरुवार, 14 जुलाई 2016

घर से भागी हुई लड़कियां

फिल्मकार आनंद एल राय की एक फिल्म आ रही है हैप्पी भाग जाएगी. दर्शकों की रोचकता बढ़ाने के लिए इन दिनों सोशल मीडिया पर रोज नये-नये पोस्टर व फिल्म का टीजर रिलीज किया जा रहा है. जैसा कि फिल्म के टाइटल से ही जाहिर है कि यह फिल्म नायिका के भागने के कथानक पर आधारित है. बॉलीवुड में पहले भी नायिकाओं के भाग जाने पर कई फिल्में बन चुकी हैं. पता नहीं हैप्पी भाग जाएगी में नया क्या है? इसके लिए तो हमें फिल्म के रिलीज होने तक की प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी. पर, यहां बात लड़कियों के भागने के मुद्दे पर.
हर दिन न जाने कितनी हैप्पी भागती है. वह भागती है हैप्पीनेस को पाने के लिए, हैप्पीनेस ढूंढने के लिए, हैप्पीनेस को जीने के लिए, हैप्पीनेस को जानने के लिए. कुछ को मिल जाता है, कई को नहीं मिलता. लड़कियों का भागना हमारे समाज में नयी घटना नहीं है. फिर भी जाने क्यों हर बार इस पर बात उतनी ही शिद्दत से होती है. लेखक, पत्रकार, फिल्मकार, समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी सब के सब हर बार इस मुद्दे पर बात ऐसे करते हैं जैसे कुछ नया या पहली बार हो रहा है. हर दिन के समाचार पत्रों में किसी न किसी लड़की के भाग जाने की खबर जरूर होती है. बल्कि उसके मुकाबले लड़कों के भाग जाने की खबर उतनी नहीं होती. शायद इसलिए क्योंकि घरवाले लड़कों के मुकाबले लड़कियों के भागने पर चिंतित ज्यादा होते हैं. इस वक्त मुझे जाने-माने कवि आलोक धन्वा की मशहूर कविता भागी हुई लड़कियां की कुछ पंक्तियां स्मरण हो रही है-
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है.
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कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है.
वैसे तो भागना एक क्रिया है पर कई बार परिस्थतियोंवश यह कर्म भी बन जाता है. जब कोई लड़की भागती है, लोग उसके कारणों पर कभी नहीं सोचते. सीधे लांछन लगाते हैं उसके चरित्र पर. बिना यह जाने कि जब कोई लड़का भागता है तो हम ऐसा ही क्यों नहीं सोचते. हम आधुनिकता का चाहे जितना भी लबादा ओढ़ लें वैचारिक दरिद्रता हमारा दामन नहीं छोड़ती. क्योंकि पुरुषवादी समाज की सोच ओढ़ते-पहनते हैं हम. यह हमें विरासत में ही मिलता है. सच तो यह है कि किसी भी लड़की के लिए घर से भागने का निर्णय आसान नहीं होता. बार-बार सोचना और काफी कुछ छोड़ना पड़ता है. बावजूद इसके अगर वह भागती है तो सामान्य तौर पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि किन कठिन परिस्थितियों में यह निर्णय उसने लिया होगा. तो फिर क्यों घर से भागी हुई लड़कियों के प्रति लोगों की सोच बदल जाती है?
क्या मां-बाप को भूल जाती हैं घर से भागी हुई लड़कियां. या भूल जाती हैं वह भाई की कलाई पर बांधी हुई राखी को. मां के आंचल में छिपकर सुबकना भी नहीं भूलती घर से भागी हुई लड़कियां. देवता-पितर के आगे सिर नवाना भी याद रहता है उन्हें. घर से भागी हुई लड़कियां नहीं भूलतीं रूमाल पर टांकना गुलाब का फूल जिसे सिखाया था मां ने. यकीन मानिये, बूरी नहीं होतीं घर से भागी हुई लड़कियां. बूरा तो हमारा समाज है, जो लड़कियों के भागने पर हौआ खड़ा कर देता है. इस सहज बात को भी इतना जटिल बना दिया जाता है कि घर से भागी हुई किसी लड़की के लिए उसके घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं. जबकि किसी भागे हुए लड़के के लौटने पर ऐसा नहीं होता.
लड़कियां भागती क्यों हैं, इसपर चिंता करना जरूरी तो है पर उससे भी जरूरी यह है कि हम एक ऐसे समाज व परिवार का निर्माण करें कि कभी किसी लड़की को भागना नहीं पड़े. और अगर भागना भी पड़े तो घर वापस लौटने के बारे में सोचना नहीं पड़े. अगर ऐसा हो पाया तो कभी कोई लड़की नहीं भागेगी. भागेगी क्यों, अपनों से भी भागता है कोई भला...?

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2016) को "धरती पर हरियाली छाई" (चर्चा अंक-2405) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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