सोमवार, 30 अप्रैल 2012

नयी टेक्नोलॉजी और नये जेनरेशन से डर कैसा?

आजकल सोशल साइटस-फेसबुक, चैटिंग और इंटरनेट को लेकर कई तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं. क्या यह सच नहीं कि नयेपन को हमेशा ही संदेह भरी दृष्टि से देखा जाता है. इतिहास में झांक कर देखिये तो पता चलेगा कि रेलगाड़ी, महिलाओं की शिक्षा, फिल्मों और रेडियो सुनने तक पर कितना हंगामा हुआ. फिल्मी गाने सुनने वालों को बड़े-बुजुर्ग हिकारत भरी नजर से देखते थे. रेडियो और फिल्मों के प्रति आकर्षण जिनमें पैदा हो गई वे ‘नालायक पुत्र’ घोषित कर दिये जाते थे. पर जैसे ही टेलीविजन क्रांति आई मां-बाप पूरे परिवार के साथ बैठकर दूरदर्शन पर चित्रहार देखने लगे. बहुसंख्य परिवारों ने महाभारत और रामायण सीरियल में दिखाये गये अंतरंग दृश्यों को भी बड़े-बुजुर्गो और बच्चों के साथ श्रद्धाभाव से खूब देखा और वर्षो तक देखते रहे. कुछ उसी तरीके का डर इन दिनों न जाने कितने मां-बाप के मन में घर बना चुका है. यानि, उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि इंटरनेट हमारे बच्चों को बिगाड़ रहा है. वह यह समझते हैं कि हमारे बच्चे इंटरनेट पर ईल सामग्री देख रहे हैं, नशीली सामग्री लेने के तरीके सीख रहे हैं. पर इंटरनेट के प्रादुर्भाव से पहले बच्चों को ईल पत्रिकाएं देखने से कितने मां-बाप रोक पाते थे? किशोरावस्था में सिगरेट पीने का रोमांच किसके अंदर नहीं पैदा हुआ? दरअसल, किशोरावस्था और युवावस्था के दौरान ऐसा दौर हर किसी की जिंदगी में आता है. हम सभी अपने अनुभवों से जानते हैं कि उम्र के साथ इस सबका आकर्षण भी स्वत: ही खत्म हो जाता है. यह सच है कि टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के दौरान विवेक की जरू रत होती है पर यह तो व्यक्ति के स्व विवेक से ही उपजता है. मैंने बचपन में अपने परिवार में चीटियों को चीनी देने, पक्षियों को दाना देने और गर्मियों में राहगीरों के लिए शीतल जल की व्यवस्था करने की परंपरा देखी है. मेरा ऐसा मानना है कि इसके पीछे उपकार करने या मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने की लालसा नहीं, बल्कि अन्यान्य प्रजातियों पर मनुष्य की निर्भरता को स्वीकार करने का बोध ही रहा होगा. आज जब अपनी छह वर्षीया बेटी को गौरेयों के पीछे भागते और उनको दाना खिलाते देखता हूं तो अपना बचपन याद आता है. ॅ हम सभी को मालूम है कि मां-बाप ही बच्चे के पहले गुरु होते हैं. इसीलिए मां-बाप जन्म से बच्चों को संस्कारों की घुट्टी पिलाते हैं. अपने गलत कामों को बच्चों से छुपकर अंजाम देते हैं और न जाने क्या-क्या इंतजाम करते हैं. हमें उसे बचपन से ही सच को सच और झूठ को झूठ बताने की आदत डाल लेनी चाहिए ताकि जिंदगी में सबकुछ साफ-सुथरा रहे. यह तो सर्वविदित है कि आपको जिस काम के लिए रोका जाए उसे करने की इच्छा बलवती होती जाती है. तो नयी जेनरेशन और नयी टेक्नोलॉजी को फलने-फूलने दीजिए. उससे डरिये नहीं समङिाये.

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