बुधवार, 9 जनवरी 2013

पुराने की कशिश और नयेपन की तलाश


तीन दशक पहले की बात होगी, हम चार भाई-बहन किताबें एक के बाद एक उपयोग कर लेते थे. इस कड़ी में पड़ोसी घरों के बच्चे भी शामिल थे. बड़े भैया की किताबें मैं, फिर मेरे से छोटी वाली बहन और उसके बाद सबसे छोटी वाली बहन. कड़ी आगे भी थी. पड़ोस के बच्चे तक भी उन किताबों का बहुधा उपयोग करते थे. किताबें बेहद संभाल कर उपयोग की जाती थीं क्योंकि आनेवाले सालों में छोटे भाई-बहनों के लिए भी काम में लाना था. इससे जहां किताबों के प्रति स्नेह-लगाव पैदा हो जाता था, वहीं उनकी साज-संभाल के प्रति सजगता खुद-ब-खुद आती गयी. इतना ही नहीं, पुरानी कॉपियों के बचे पन्नों से नयी क्लास के लिए नयी नोटबुक भी जिल्द के साथ बना ली जाती थी. कपड़ों के मामले में भी कुछ इसी तरह की मितव्ययिता बरती जाती थी. कपड़े, किताबों के अलावा पुराने टूटे सामान का भी कहीं न कहीं सदुपयोग हो ही जाता था. कद्दू (कुम्हड़े) के छिलके की स्वादिष्ट सब्जी और सूखी चटनी बनाने वाले अब कितने हाथ बचे हैं? बासी रोटी को मसल कर स्वादिष्ट नाश्ते में बदलना आजकल कम ही रसोई घरों में हो पाता है. बासी भात के पकोड़े और बासी रोटी के पकोड़े सुबह के नाश्ते का जरूरी हिस्सा थे. गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर तांगे या बैलगाड़ी की सवारी करने में जो बात थी वह आज किसी महंगी/लग्जरी कार में भी नहीं.
   आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब पुरानी बातें क्यों याद कर रहा हूं. दरअसल, बीते दिनों को याद करना मानव की फितरत है. हम जानते हैं कि हमारी नियति आगे की ओर जाना ही है, समय की गंगा को उलटा बहा कर पीछे जाना संभव नहीं होता. मगर बीते हुए कल में कोई न कोई ऐसी कशिश होती है जो हमें समय-बेसमय उसकी ओर खींचती है. विदेशों या देश के ही बड़े शहरों से छुट्टियां मनाने छोटे शहरों व गांवों में जाने वाले लोग तांगे की सवारी करना पसंद करते हैं, तो इसलिए नहीं कि उन्हें मोटर से चिढ़ हो गयी है और वे उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं. छुट्टियों से लौट कर उन्हें उन्हीं कार, बस, हवाई जहाज दरकार होंगे. कथित पिछड़े  मुल्कों या इलाकों के लोग जहां चमचमाते कांच और कंक्र ीट के जंगलों में घूमने के ख्वाब देखते हैं, वहीं इन जंगलों में से निकल कर सुविधाओं से वंचित स्थानों पर कुछ दिन बिताने की चाह रखने वालों की संख्या भी बढ रही है. बड़े-बड़े रईसों में ऐसे किसी स्थान पर छुट्टियां बिताने का चलन चल पड़ा है, जहां न टेलीफोन हो, न टीवी और न ही इंटरनेट.  दरअसल, यह यह कुछ अलग पाने की चाहत है. मनुष्य को जो हासिल है, उसे सुकून पाने के लिए हमेशा उससे इतर कुछ चाहिए. जब वह पीछे होता है, तो आगे जाना चाहता है और जब आगे पहुंच जाता है, तो वापस पीछे लौटना चाहता है..

3 टिप्‍पणियां:

  1. मन की मन:स्थिति को बाखूबी लिखा है आपने ... आगे जाने पे पीछे लौटने का मन हमेशा ही रहता है ...

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  2. Very true, Mind is like Monkey! Can not sit anywhere but only at one place, where is disappears, i.e. Samadhi stage!

    Keep writing nice.

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  3. Kya baat hai Akhileshwar ji, apne gujra jamana yaad dila diya. First paragraph me jo likha hai uski kadar is pidhi ko kabhi malum nahi hogi. aur iske jimmedar bhi hum log (sab log nahi lekin bahutere) hi hai.
    Likhte rahiye....

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