नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनावी समर जीते तो वोटरों के साथ-साथ अपने प्रतिद्वंदियों को भी धन्यवाद कहा. उधर, हिमाचल प्रदेश में ‘हिमालयी परिवर्तन’ के तहत जीतने पर वीरभद्र ने जनता को धन्यवाद कहा तो प्रेम कुमार धूमल ने भी आखिरकार हार स्वीकार किया और जनता को धन्यवाद कहा. धन्यवाद भले ही एक साधारण शब्द हो पर इसमें व्यापक ऊर्जा समाहित है. जो भी इसका उपयोग करता है उसे यह बात बताने की जरू रत शायद नहीं है. पर हमारी पाश्चात्य से अति पाश्चात्य होती जा रही जीवन शैली में, हमारे व्यवहार में, हमारी दिनचर्या में ‘धन्यवाद’ का तेजी से हृास होता जा रहा है. शायद महंगाई के इस दौर में हमारी कंजूस होने की प्रवृति का सबसे ज्यादा साइड इफेक्ट ‘धन्यवाद’ ने ही ङोला है. इस घोर महंगाई के दौर में ‘धन्यवाद’ ही एक ऐसी ‘वस्तु’ बची है जिसके दाम में उतार-चढ़ाव नहीं होता. जिसका सेंसेक्स गिरता-चढ़ता नहीं है और न ही कोई इसकी कालाबाजारी कर सकता है. और तो और इस पर न तो सरकारी नियंत्रण है और न ही निजी कंपनियों का वर्चस्व. सबसे बड़ा फायदा तो यह कि इसका कितना भी उपयोग-दुरुपयोग दुनिया भर में किया जाए इसके खत्म होने का कोई खतरा नहीं है. हम भारतीय इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि ‘धन्यवाद’ रूपी ईंधन की उपलब्धता की खातिर हमें किसी अरब देश का मुंह ताकने की जरू रत भी नहीं. यह तो भारतीय संस्कृति में प्रचूर मात्र में उपलब्ध है.
आप कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि मैं ‘धन्यवाद’ पर किया अपना शोधपत्र आपके सामने पेश कर रहा. ऐसा नहीं है. मेरा इरादा आप विज्ञ पाठकों को बोर करना कतई नहीं है. मैं तो ‘बस यूं ही’ कुछ कहना चाह रहा था. अगर आप ‘धन्यवाद’ को लेकर सीरियस नहीं हैं तो कोई बात नहीं. अब ‘धन्यवाद’ कोई सास-बहू का सीरियल तो है नहीं कि इसे याद रखना जरू री है. न ही यह मैरिज एनिवर्सरी या जन्मदिन है जिसे याद न रखने से आपकी फजीहत हो जाएगी. यह किसी बाबा का बताया गया वह चमत्कारिक नुस्खा भी नहीं है जिससे आपकी सारी परेशानियां छू-मंतर हो जाएंगी. वैसे भी जब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में आलू-प्याज, नमक-तेल, साबून-शैंपू, डीजल-पेट्रोल, सोना-चांदी, बच्चों की परवरिश, दवा और दुआ ने हलचल मचा रखी हो तो ‘धन्यवाद’ कहां याद रह पाता है. और हां मैं तो आपको इस पर चिंतन-मनन करने के लिए भी नहीं कहूंगा. इसके लिए तो समय चाहिए होता है. वह आज कहां किसी के पास है. आप तो सुबह से रात तक ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ के भंवरजाल में ऐसे उलङो हुए हैं कि आपको इस बात की भनक ही नहीं कि ‘सरकार की इतनी कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद हमारे देश में कितने बच्चे अब भी स्कूल की देहरी से दूर हैं.’ आपको तो यह भी नहीं मालूम कि हमारे देश में कितने लोग दिनभर भोजन का इंतजार करने के बाद रोज रात को भूखे पेट ही सो जाते हैं? धन्यवाद आपका!
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