भोजपुरी के एक पुराने लेकिन चर्चित गीत का यह मुखड़ा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर इन दिनों सटीक लगता है. खास आदमी के खिलाफ मुहिम चलाते-चलाते ‘आम आदमी’ अब पूरे देश में ‘खास’ हो चुका है. खास इस तरह की कई राज्य सरकारें अब केजरीवाल के फैसले और उनके काम करने के तौर-तरीकों की नकल करने लगी हैं. हालांकि अच्छाई को अपनाने को नकल नहीं कहा जाना चाहिए, लेकिन राजनीति में इसे नकल की ही संज्ञा दी जा रही है.
पिछले दिनों केजरीवाल के जनता दरबार में जिस प्रकार बेतरह भीड़ जुटी उससे एक बात तो साफ हो गयी कि लोगों के पास कितनी समस्याएं हैं. और, लोग उन समस्याओं से किस तरह पके हुए हैं. केजरीवाल की सरकार दिल्ली के लोगों की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है. यह साबित होने में तो अभी वक्त लगेगा पर पूरा देश अभी आप (आम आदमी पार्टी) और अरविंद केजरीवाल को उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है. यही वजह है कि देश भर में आप का कुनबा बढता जा रहा है. कई नामी-गिरामी हस्तियां पार्टी में शामिल हो रही हैं. सदस्यों और समर्थकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. यहां यह बता देना जरुरी है कि आप की बढती लोकप्रियता महज आकर्षण नहीं है. बल्कि यह वे लोग हैं जिनकी उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं. जिन मूल्यों पर इस महादेश की आधारशिला रखी गई थी, वो टुकड़े-टुकड़े होकर राजपथ से लेकर जनपथ पर बिखरे पड़े हैं. और अफसोस ये है कि किसी को अफसोस नहीं.
दरअसल, मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो सिलिसला शुरू किया था, उससे अमीरों की अमीरी चाहे बढ़ी हो, गरीबी कम नहीं हुई. खतरा ये है कि 300 करोड़पतियों वाली संसद में गरीबों, दलितों, आदिवासियों के मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है. पर हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जब किसी मौलिक विकल्प की सबसे ज्यादा जरूरत है तो हमारे पास नायक नहीं, महज विदूषक रह गए हैं. यह बात सब जानते हैं कि उन्मादी तेवर देश के मिजाज से मेल नहीं खाते. नरेंद्र मोदी के भाषण पर ताली चाहे जितनी बजती हो, लालकिले से ऐसी भाषा सुनने के लिए देश तैयार नहीं. वैसे भी, उन्माद की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो स्थायी नहीं रहता. इसलिए उन्माद का झाग बैठते ही वोटों का सूखा पड़ जाता है. यही वजह है कि लोग केजरीवाल को उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं. अगर यह परिस्थति अरविंद केजरीवाल के पक्ष में है तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं. टीम केजरीवाल आने वाले समय में किस प्रकार काम करती है. आम चुनाव में वे किस प्रकार के उम्मीदवार उतारते हैं. कांग्रेस के साथ संबंध कैसा रहता है. यह सब बातें ही तय कर पायेंगी कि देश और केजरीवाल का भविष्य कैसा होगा.
पिछले दिनों केजरीवाल के जनता दरबार में जिस प्रकार बेतरह भीड़ जुटी उससे एक बात तो साफ हो गयी कि लोगों के पास कितनी समस्याएं हैं. और, लोग उन समस्याओं से किस तरह पके हुए हैं. केजरीवाल की सरकार दिल्ली के लोगों की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है. यह साबित होने में तो अभी वक्त लगेगा पर पूरा देश अभी आप (आम आदमी पार्टी) और अरविंद केजरीवाल को उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है. यही वजह है कि देश भर में आप का कुनबा बढता जा रहा है. कई नामी-गिरामी हस्तियां पार्टी में शामिल हो रही हैं. सदस्यों और समर्थकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. यहां यह बता देना जरुरी है कि आप की बढती लोकप्रियता महज आकर्षण नहीं है. बल्कि यह वे लोग हैं जिनकी उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं. जिन मूल्यों पर इस महादेश की आधारशिला रखी गई थी, वो टुकड़े-टुकड़े होकर राजपथ से लेकर जनपथ पर बिखरे पड़े हैं. और अफसोस ये है कि किसी को अफसोस नहीं.
दरअसल, मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो सिलिसला शुरू किया था, उससे अमीरों की अमीरी चाहे बढ़ी हो, गरीबी कम नहीं हुई. खतरा ये है कि 300 करोड़पतियों वाली संसद में गरीबों, दलितों, आदिवासियों के मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है. पर हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जब किसी मौलिक विकल्प की सबसे ज्यादा जरूरत है तो हमारे पास नायक नहीं, महज विदूषक रह गए हैं. यह बात सब जानते हैं कि उन्मादी तेवर देश के मिजाज से मेल नहीं खाते. नरेंद्र मोदी के भाषण पर ताली चाहे जितनी बजती हो, लालकिले से ऐसी भाषा सुनने के लिए देश तैयार नहीं. वैसे भी, उन्माद की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो स्थायी नहीं रहता. इसलिए उन्माद का झाग बैठते ही वोटों का सूखा पड़ जाता है. यही वजह है कि लोग केजरीवाल को उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं. अगर यह परिस्थति अरविंद केजरीवाल के पक्ष में है तो इसके खतरे भी कम नहीं हैं. टीम केजरीवाल आने वाले समय में किस प्रकार काम करती है. आम चुनाव में वे किस प्रकार के उम्मीदवार उतारते हैं. कांग्रेस के साथ संबंध कैसा रहता है. यह सब बातें ही तय कर पायेंगी कि देश और केजरीवाल का भविष्य कैसा होगा.
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