शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

शायद मैं भी बाबूजी की तरह हो रहा हूं

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर हैं बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर हैं बाबूजी,
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर हैं बाबूजी.
 नामचीन कवि भाई आलोक श्रीवास्तव की ये पंक्तियां मुङो अत्यंत पसंद हैं. इनमें एक पिता का जो शब्द-चित्र खींचा गया है, वह मुङो काफी जाना-पहचाना सा लगता है. सच कहूं तो उसमें मुङो अपने पिताजी की छवि दिखायी पड़ती है. मुङो ही क्या, आपको भी दिखती होगी. अपने पिताजी को मैं भी बाबूजी कहता हूं. बाबूजी अपने चार भाइयों में सबसे बड़े हैं. छोटी उम्र में ही जब उनके पिता, यानी हमारे दादाजी चल बसे, तब वहीं से शुरू हो गया सिलसिला मुफलिसी का. बाबूजी ने एक रिश्तेदार के घर रह कर मैट्रिक तक की पढ़ाई तो पूरी कर ली, पर आगे पढ़ाई जारी रखने में गरीबी सबसे बड़ी बाधा थी. तीन छोटे भाइयों और एक छोटी बहन की जिम्मेवारी उन पर थी.
नौकरी की तलाश में गांव से कोलकाता पहुंचे बाबूजी ने जूट मिल में नौकरी की. उनमें गजब का धैर्य और तटस्थता है जो शायद बचपन में ही अपने पिताजी को खो देने और एक विशाल संयुक्त परिवार में गरीबी और अभावों के बीच पालन-पोषण की वजह से पनपी होगी. सुख-दुख सभी हालात में एक सा बने रहना सभी के वश में नहीं होता. घर की बड़ी बहू होने के कारण मां हमेशा गांव में ही रही. उस पर सभी की देखरेख की जिम्मेवारी जो थी. बाबूजी अभी कुछ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होकर गांव आ गये हैं. अच्छा लगता है अब मां-बाबूजी साथ रहते हैं. एक-दूसरे का दुख-दर्द बांटते हुए, एक-दूसरे को और अधिक समझते हुए. बाबूजी भाग्यशाली थे कि मां ने खुद की अनदेखी को लेकर कभी उनसे शिकायत नहीं की. कभी नहीं. कुछ नहीं.
बाबूजी हम भाई-बहनों को स्नेह तो करते रहे, पर उसे दिखाने से, प्रगट करने से हमेशा बचते रहे. शायद, इसलिए भी क्योंकि वो खुद को कमजोर नहीं करना चाहते थे. आखिर घर से, परिवार से, अपनों से दूर रहने की हिम्मत जो जुटानी होती थी. साल में दो-तीन दफा या किसी पर्व-त्योहार पर जब वे घर आते, तो कुछ दिन रह कर लौटते वक्त उनकी आंखों में उतर आयी नमी को मैं देख कर कुछ परेशान सा हो जाता था. बच्च था, इसलिए उसकी अहमियत, उसके मायने को ठीक-ठीक समझ नहीं पाता था. अब समझ पा रहा हूं, क्योंकि मैं भी पिता हूं. पिता की जिम्मेदारी निभाते हुए पिछले कुछ वर्षो में बाबूजी की प्रतिष्ठा मेरी नजर में और भी बढी है. मेरी जीवन-संगिनी कहती हैं, ‘‘तुम अपनी भावनाओं का इजहार नहीं करते.’’ बाबूजी भी तो ऐसा ही करते हैं. ठीक-ठीक बता नहीं सकता कि यह बढ़ती उम्र का असर है या मैं भी बाबूजी की तरह होता जा रहा हूं.

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