जी हां, कोई माने या न माने, मैं हूं माननीय. वह भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि जनता द्वारा ‘चुना’ हुआ. चुनाव जीतने के साथ ही मुङो कुछ भी करने का ‘विशेषाधिकार’ स्वत: हासिल हो जाता है. मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मैं चाहे जो करूं.. मेरी मर्जी. एक बार जब जनता ने मुङो वोट दे कर सदन में भेज दिया, तो फिर पांच साल तक चलेगी मेरी मर्जी.. मैं चाहे लोकसभा में मिरची पाउडर की बारिश करूं या राज्यसभा में धक्कामुक्की.. मैं चाहे विधानसभा में कपड़े उतार दूं या मार दूं किसी को थप्पड़. मैं चाहूं तो सदन के स्पीकर का आदेश भी न मानूं और मन करे तो अपनी ही पार्टी के नियमों की धज्जियां उड़ा दूं. सबके सामने ही पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ नारेबाजी करूं और सदन की कार्यवाही भी न चलने दूं. ‘सबका मालिक एक’ होता होगा, पर मैं तो अपनी मर्जी का मालिक हूं. मेरा मन नहीं करता, तो मैं तब तक अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं जाता जब तक कि अगला चुनाव न आ जाये. मैं तो अपने वोटर को भी ऐन वक्त पर पहचानने से इनकार कर देता हूं. अरे भई! नेता और वोटर का रिश्ता भी कोई स्थायी होता है भला. यह रिश्ता तो क्षणभंगुर है. और वैसे भी यह दुनिया नश्वर है, माया है, यहां कौन किसका है. वोटर-नेता का रिश्ता तो चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही शुरू होता है और चुनाव परिणाम आते ही खत्म हो जाता है. कम से कम मेरे तरफ से तो ऐसा ही समङिाए.
लोग मुझसे सवाल करते हैं कि माननीयों की मनमानी के कारण संसदीय कार्य हो नहीं पा रहे हैं और संसद हंगामे का अखाड़ा बन गयी है. जनता की गाढ़ी कमाई की इस तरह बर्बादी हो रही है. लोग यह भी कहते हैं कि ‘संसद और विधानसभाओं का मूल काम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से लोगों का सशक्तीकरण करना है. इसके अलावा संसद पर जिम्मा है कि वह कार्यपालिका पर नियंत्रण रखे और उसे सभी तरह से जवाबदेह बनाये. किंतु माननीय इस मंदिर को अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के केंद्र के रूप में तब्दील करने में लग गये हैं. परिणामस्वरूप संसद का मूल कार्य गौण हो गया है.’
भइया मेरे! इत्ती बात तो मुङो भी पता है. मैं कोई बुद्धू थोड़े ही न हूं. मुङो तो यह भी मालूम है कि विश्व में भारत ही सबसे बड़ा लोक-तांत्रिक देश है जिसमें जनता के द्वारा चुने हुए 543 प्रतिनिधि ही केंद्रीय सरकार के शासन को चलते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है माननीय बनने के लिए किसी भी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं है. केवल 35 वर्ष का वयस्क भारतीय नागरिक होना जरूरी है. किसी शिक्षा की भी जरूरत नहीं है. यहां तक कि अगर अनपढ़ भी हो, तो चलेगा? अब जब इतनी जानकारी मुङो है ही तो आप मान क्यों नहीं लेते कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा या जो करता हूं वही सही है. देखो भाई, मानना हो तो मान लो, वरना क्या कर लोगे???
लोग मुझसे सवाल करते हैं कि माननीयों की मनमानी के कारण संसदीय कार्य हो नहीं पा रहे हैं और संसद हंगामे का अखाड़ा बन गयी है. जनता की गाढ़ी कमाई की इस तरह बर्बादी हो रही है. लोग यह भी कहते हैं कि ‘संसद और विधानसभाओं का मूल काम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से लोगों का सशक्तीकरण करना है. इसके अलावा संसद पर जिम्मा है कि वह कार्यपालिका पर नियंत्रण रखे और उसे सभी तरह से जवाबदेह बनाये. किंतु माननीय इस मंदिर को अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के केंद्र के रूप में तब्दील करने में लग गये हैं. परिणामस्वरूप संसद का मूल कार्य गौण हो गया है.’
भइया मेरे! इत्ती बात तो मुङो भी पता है. मैं कोई बुद्धू थोड़े ही न हूं. मुङो तो यह भी मालूम है कि विश्व में भारत ही सबसे बड़ा लोक-तांत्रिक देश है जिसमें जनता के द्वारा चुने हुए 543 प्रतिनिधि ही केंद्रीय सरकार के शासन को चलते हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है माननीय बनने के लिए किसी भी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं है. केवल 35 वर्ष का वयस्क भारतीय नागरिक होना जरूरी है. किसी शिक्षा की भी जरूरत नहीं है. यहां तक कि अगर अनपढ़ भी हो, तो चलेगा? अब जब इतनी जानकारी मुङो है ही तो आप मान क्यों नहीं लेते कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा या जो करता हूं वही सही है. देखो भाई, मानना हो तो मान लो, वरना क्या कर लोगे???
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