जब से देश का निजाम बदला है, राजनीति पर व्यंग्य लिखनेवालों के ‘बुरे दिन’ आ गये हैं. दिमाग पर थोड़ा जोर डालिए और फ्लैशबैक में जाइए.. यह बात ज्यादा पुरानी नहीं, महज छह महीने पहले की है. सोशल मीडिया हो या टेलीविजन, समाचार पत्र हो पत्रिका. जहां देखिए वहीं हर दूसरा शख्स राजनीति पर तंज कसता दिखता था. कई लोगों को तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देखते ही व्यंग्य सूझने लगता था. कई ऐसे भी थे जिन्होंने सोनिया और राहुल पर व्यंग्य लिख-लिख कर अपने को लेखन की दुनिया में दुर्दात व्यंग्यकार साबित कर दिया. यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवाणी भी व्यंग्यकारों के लिए कम प्रिय नहीं रहे. लेकिन जैसे ही पीएमओ में प्रधानमंत्री का नेम प्लेट बदला वैसे ही पता नहीं व्यंग्यकारों के कलम की स्याही सूख गयी या उनके हाथों में कंपकंपी होने लगी.. यह ठीक-ठीक कहना मुश्किल है. यह पता लगने में जरा वक्त लगेगा. यह मैं नहीं कह रहा, बल्कि यह बात हाल ही में हुए एक ‘सव्रे’ में सामने आयी है. जब से इस सव्रे की रिपोर्ट आयी है, मेरे अंदर का ‘व्यंग्यकार’ तिलमिला गया है. सव्रे में यह भी कहा गया है कि व्यंग्यकारों की कलम की धार कुंद हो गयी है. उनके लेखन का पैनापन खत्म हो गया है. इसी तिलमिलाहट में मैं यह सोचते-सोचते कि आगे करना क्या है, रास्ते से गुजर रहा था कि शहर के एक जाने-माने साहित्यकार मिल गये. मैंने शिष्टाचारवश उनका अभिवादन किया तो वे पूछ बैठे ‘क्यों जनाब! कुछ परेशान दिख रहे हैं.’ मैं उलझन में था ‘हां’ कहूं या ‘ना’. खैर मेरी उलझन दूर करते हुए साहित्यकार महोदय ने कहा, ‘बताओ भई क्या बात है?’ मैंने कहा ‘क्या सच में अब कोई राजनीति पर व्यंग्य नहीं लिख रहा?’ वे बोले ‘हां, हो सकता है. पर अगर ऐसा है भी तो क्या फर्क पड़ता है? राजनीति पर व्यंग्य लिख देने से किस समस्या का समाधान हो जायेगा? क्या व्यंग्य लिख कर देश में आसन्न सूखे के संकट को टाला जा सकता है या बेतहाशा बढ़ रही महंगाई पर काबू पाया जा सकता है?’ साहित्यकार महोदय की बातें सुन कर मुङो गुस्सा आ रहा था. मैंने झुंझला कर कहा, ‘मुङो कहीं जाना है, चलता हूं.’ इतना कह कर मैं वहां से चल पड़ा. पीछे से आवाज सुनायी पड़ी, ‘कहां जा रहे हो..?’ वहां से चला तो थोड़ी ही दूर पर स्टेशनरी की दुकानें दिखीं. मैं बरबस ही वहां पहुंच गया. दुकानदार ने पूछा, ‘क्या दूं साहब?’ मैंने कहा ‘क्या आपके पास कोई ऐसी कलम है जिसकी धार पैनी हो?’ झट से उसने कहा, ‘आपको कलम चाहिए या चाकू? हमारे यहां तरह-तरह की कलमें हैं, देसी-विदेशी, महंगी-सस्ती. मगर पैनी धार वाली कलम मांगनेवाले आप पहले ग्राहक हो.’ मैं दुकान से परे हट गया. पर मुङो उम्मीद है कि किसी न किसी दिन मेरे भी ‘अच्छे दिन’ आयेंगे और मैं राजनीति पर तीखा व्यंग्य जरूर लिखूंगा..बस मुङो सही कलम मिल जाये.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें