दोपहर का वक्त था. ‘महाभारत’ में द्रौपदी के चीरहरण का दृश्य चल रहा था. लाचार द्रौपदी सभी कुरु वंशियों को धिक्कारती है, पर कोई भी उसकी मदद करने के लिए आगे नहीं आता है. गांधारी भी आंखों पर पट्टी बांधे हुए चुप रह जाती है. जब द्रौपदी को इस बात का अहसास हो जाता है कि अब कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आने वाला है, तब वह कृष्ण को पुकारती है. मेरी दस वर्षीया बेटी ने अपनी दादी से पूछा ‘दादी, द्रौपदी कौरवों से अपनी सुरक्षा की भीख क्यों मांग रही है? वह खुद भी तो अपनी सुरक्षा कर सकती है?’ जवाब मिला - ‘पुरु षों का कर्तव्य स्त्रियों की सुरक्षा करना होता है और यह कार्य कौरव-पांडव नहीं कर पा रहे. इसलिए द्रौपदी भगवान कृष्ण से अपनी लाज बचाने के लिए प्रार्थना कर रही है.’ मुङो लगा मेरी बेटी अपनी दादी के जवाब से संतुष्ट नहीं है. ऐसा उसके चेहरे के भाव से लग रहा था. वह थोड़ी झुंझलायी-सी लगी. मुङो उसकी यह प्रतिक्रिया अच्छी लगी. नयी पीढ़ी को प्रतिक्रियावादी होना चाहिए. खासकर लड़कियों को. पीढ़ियों का अंतर पहले भी था, अब भी है. पर हमारी नयी पीढ़ी खासकर लड़कियां खुद के बारे में और समाज के बारे में कितना कुछ और क्या सोच रही हैं, समाज इससे अनजान है. हमारा समाज तो आज भी लड़कियों को लेकर पुरानी ही सोच से पीड़ित है. आज की लड़कियां अपने कैरियर के बारे में सोचती हैं और समाज उनकी शादी के बारे में. समाज को जवान कुंवारी लड़की बरदाश्त नहीं, इसलिए वह सवाल करने से बाज नहीं आता. घोर आश्चर्य होता है आधुनिकता के आवरण में पुरानी मानसिकता से प्रभावित लोगों को देख कर. युवा लड़कियों के घरवालों को अक्सर अपने रिश्तेदारों के ताने सुनने को मिलते हैं ‘भइया कितना पढायेंगे! अब बस भी करिए. क्या कमाई खायेंगे बिटिया की? लड़का देखिए और हाथ पीले करिए. लड़की विदा तो समझो गंगा नहा लिये!’ ‘बिटिया सयानी हो गयी है, क्या बुढ़ापे तक घर में बैठा कर रखने का इरादा है!’ सच तो यह है कि पुरु ष समाज के प्रपंच से उपजी ‘कथित आजाद स्त्री’ मर्दवादी समाज के कठोर मानकों के हिसाब से अपनी जिंदगी बसर करने को मजबूर है. जिस लड़की को उसके मां-बाप पालते-पोसते हैं, बड़ा करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं आखिर उसकी शादी की चिंता पड़ोसियों, मुहल्ले वालों, रिश्तेदारों को क्यों होनी चाहिए? कोई यह सलाह क्यों नहीं देता कि आपकी बेटी बड़ी होशियार है, उसे डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट, प्रोफेसर या साइंटिस्ट बनाओ. या फिर ऐसा क्यों नहीं बोलता कि आपको अपनी बेटी को पढ़ाने में कोई दिक्कत तो नहीं हो रही? क्या मेरी यह उम्मीद बेमानी है कि मेरी बेटी की उम्र की पीढ़ी की लड़कियों को वह सब नहीं ङोलना पड़े जो आज की पीढ़ी की लड़कियों को सहना पड़ रहा है? तो भइया अब भी समय है.. बेटियों के प्रति बदल डालें घटिया मानसिकता.....
पता नहीं कब सोंच बदलेगी हमारे समाज की ...
जवाब देंहटाएंप्रेरक आलेख।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दिलबाग जी, प्रतिभा जी और शास्त्री जी.
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