नंबर दो के भी अपने मजे हैं गुरु. कई लोग बिजनेस में ईमानदारी की रेजगारी से कंगाल होते-होते होश में आये और तुरंत नंबर दो का धंधा अपनाया तो आज करोड़ों में खेल रहे हैं. नंबर एक आदमी हमेशा सही-गलत के फेर में फंसा रहता है और तरक्की की सीढ़ियां चढने से पहले ही लुढ़क जाता है. आज के जमाने में ‘नंबर दो’ की क्या हैसियत यह किसी से छिपी नहीं है. थाने से लेकर दिल्ली में सत्ता के गलियारों तक की उन्हीं की चलती है.
खैर नंबर दो की महिमा अपनी जगह, मैं तो इस बात से हैरान हूं कि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार भला क्यों ‘नंबर दो’ का ओहदा चाहते हैं? वह तो केंद्र सरकार में ‘नंबरी आदमी’ हैं. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक उनकी खासी पूछ है. दरअसल, नेताओं को रूठ जाने की बीमारी होती है. कभी बहाने से, तो कभी बिना बहाने के रूठ जाते हैं. किसी को पार्टी में पदाधिकारी बना दिया जाये तो मुंह फुला लेते हैं. जैसे परिवार में शादी के कथित शुभ अवसर पर फूफा और जीजा ऐन घुड़चढ़ी के अवसर पर रूठ जाते हैं. जीजा रूठे तो थोड़ा जंचता भी है, पर फूफा? घरवाले तो घरवाले, दूल्हा भी जीजू को मनाने में लग जाता है. बारातें अक्सर रूठों को मनाने के चक्कर में रेलगाड़ियों की तरह घंटा दो-घंटे लेट हो जाती हैं. कुछ नेता तो रूठने के मामले में पत्नियों को भी पीछे छोड़ देते हैं. न उनकी मांगें कभी खत्म होती हैं और न उनके रूठने का सिलसिला. वैसे, कई बार तो पिया लोग बिन पिये ही रूठ जाते हैं. तब नारी के लिए प्रॉब्लम हो जाती है कि रूठे-रूठे पिया, मनाऊं कैसे? बाकी मुल्कों का तो पता नहीं, अपने मुल्क में प्रेयसी-पत्नी को मनाने के लिए गहने-लत्तों की दुकानें बेहद सहायक सिद्ध हुई हैं. कुछ महीने पहले स्वर्णकार हड़ताल पर चले गए थे. परिणास्वरूप तलाक के मामलों में खासा इजाफा हो गया था.
पुरानी बात क्यों, रूठने की ताजा घटना बताता हूं. अपने एशिया संस्करण में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की तस्वीर मुखपृष्ठ पर देते हुए टाइम पत्रिका ने शीर्षक दिया ‘द अंडरअचीवर’. सरकार के निंदक, योग से राजनीति में कूदे बाबा रामदेव ने इसका हिंदी अनुवाद फिसड्डी के रूप में किया है और अब मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा इस विशेषण को ही प्रसारित-प्रकाशित किया जा रहा है. फिसड्डी एक नकारात्मक भाव वाला शब्द है, जिसका अभिप्राय पिछड़ जाने से है. कक्षा में कुछ छात्र होशियार होते हैं, कुछ फिसड्डी. खेल में कोई विजेता होता है, कोई फिसड्डी. अंडरअचीवर का अगर थोड़ा सुसंस्कृत भाषा में अनुवाद किया जाता, तो इसे ‘उपलब्धिहीन’ कहा जा सकता है, अर्थात् जिसकी उपलिब्धयां कम हों. पर क्या कहें, अर्थ लगानेवाला तो अपने ‘दिमाग’ का इस्तेमाल करता है. जब से यह प्रकरण हुआ है, तब से कुछ लोगों का मुंह भी फूला हुआ है. मुङो तो लगता है यह ‘नमी’ का असर है.
खैर नंबर दो की महिमा अपनी जगह, मैं तो इस बात से हैरान हूं कि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार भला क्यों ‘नंबर दो’ का ओहदा चाहते हैं? वह तो केंद्र सरकार में ‘नंबरी आदमी’ हैं. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक उनकी खासी पूछ है. दरअसल, नेताओं को रूठ जाने की बीमारी होती है. कभी बहाने से, तो कभी बिना बहाने के रूठ जाते हैं. किसी को पार्टी में पदाधिकारी बना दिया जाये तो मुंह फुला लेते हैं. जैसे परिवार में शादी के कथित शुभ अवसर पर फूफा और जीजा ऐन घुड़चढ़ी के अवसर पर रूठ जाते हैं. जीजा रूठे तो थोड़ा जंचता भी है, पर फूफा? घरवाले तो घरवाले, दूल्हा भी जीजू को मनाने में लग जाता है. बारातें अक्सर रूठों को मनाने के चक्कर में रेलगाड़ियों की तरह घंटा दो-घंटे लेट हो जाती हैं. कुछ नेता तो रूठने के मामले में पत्नियों को भी पीछे छोड़ देते हैं. न उनकी मांगें कभी खत्म होती हैं और न उनके रूठने का सिलसिला. वैसे, कई बार तो पिया लोग बिन पिये ही रूठ जाते हैं. तब नारी के लिए प्रॉब्लम हो जाती है कि रूठे-रूठे पिया, मनाऊं कैसे? बाकी मुल्कों का तो पता नहीं, अपने मुल्क में प्रेयसी-पत्नी को मनाने के लिए गहने-लत्तों की दुकानें बेहद सहायक सिद्ध हुई हैं. कुछ महीने पहले स्वर्णकार हड़ताल पर चले गए थे. परिणास्वरूप तलाक के मामलों में खासा इजाफा हो गया था.
पुरानी बात क्यों, रूठने की ताजा घटना बताता हूं. अपने एशिया संस्करण में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की तस्वीर मुखपृष्ठ पर देते हुए टाइम पत्रिका ने शीर्षक दिया ‘द अंडरअचीवर’. सरकार के निंदक, योग से राजनीति में कूदे बाबा रामदेव ने इसका हिंदी अनुवाद फिसड्डी के रूप में किया है और अब मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा इस विशेषण को ही प्रसारित-प्रकाशित किया जा रहा है. फिसड्डी एक नकारात्मक भाव वाला शब्द है, जिसका अभिप्राय पिछड़ जाने से है. कक्षा में कुछ छात्र होशियार होते हैं, कुछ फिसड्डी. खेल में कोई विजेता होता है, कोई फिसड्डी. अंडरअचीवर का अगर थोड़ा सुसंस्कृत भाषा में अनुवाद किया जाता, तो इसे ‘उपलब्धिहीन’ कहा जा सकता है, अर्थात् जिसकी उपलिब्धयां कम हों. पर क्या कहें, अर्थ लगानेवाला तो अपने ‘दिमाग’ का इस्तेमाल करता है. जब से यह प्रकरण हुआ है, तब से कुछ लोगों का मुंह भी फूला हुआ है. मुङो तो लगता है यह ‘नमी’ का असर है.
अ शब्द जी आपके शब्द तो खुल कर सामने आने लगे हैं और कमाल भी कर रहे हैं ....:))
जवाब देंहटाएंवैसे रामदेव जी कबड्डी फिसड्डी से हट कर योगड्डी ही करते रहते तो बेहतर था ....!!