आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सुप्रसिद्ध निबंध है- नाखून क्यों बढ़ते हैं. नाखून मनुष्य की आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है, जो बार-बार बढते हैं और आधुनिक मनुष्य उन्हें हर बार काट कर हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है. जीवन में ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों से आये दिन हमारा साबका पड़ता है. सभ्य समाज इनको नियंत्रित करने की कोशिश करता है. साधु-संत बुराइयों से दूर रहने के उपदेश देते हैं. सरकारें भी इन्हें रोकने के लिए कानून बनाती हैं. इसे एक तरह से नाखून काटना माना जा सकता है. बुराई को जड़ से खत्म करना तो संभव नहीं, लेकिन जो इनमें लिप्त होते हैं, वे समाज में प्रवाद माने जाते हैं.
इस लिहाज से यह दौर भयावह है. हम अपने चारों तरफ बड़े-बड़े नाखूनों को देख और महसूस कर सकते हैं. इस दौर में पल्लू के नीचे.., मुन्नी बदनाम हुई.. और शीला की जवानी.. जैसे गीत सिनेमा के परदे से उतर गलियों में गूंज रहे हैं. यहां नैतिकता की ठेकेदारी या संस्कृति की झंडाबरदारी का सवाल नहीं है. सवाल सामाजिक है. इस तरह के गीत, संवाद या दृश्य किस समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं? क्या इन गीतों, संवादों और दृश्यों का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किस समाज को गढ़ने की कोशिश की जा रही है? कौन-से आदर्श स्थापित किये जा रहे हैं?
चूंकि ‘पुरवइया’ से ज्यादा हमें ‘पछुआ’ पवन भाती है, इसलिए जो भी झोंका वहां से आता है, हमारे मन को खूब सुहाता है. शायद यह उन 200 बरसों का असर हो? हम कहां सोच पाते हैं कि झोंका अगर बवंडर बन गया? तो हमारी सारी जड़ें उखाड़ देगा. एक विज्ञापन के मुताबिक कोई विशेष शेविंग क्रीम चुंबन के लिए ही लगायी जाती है. अगर गौर किया हो तो एक विज्ञापन हम सबको चॉकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है. बात समझने में देर नहीं लगती कि हम क्या कहना और करना चाहते हैं. एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है.
एक से जी नहीं भरता, ये दिल मांगे मोर जैसे जुमले जब बच्चों और युवाओं के कानों में पड़ते हैं, तो उन्हें इनका अर्थ कोई नहीं समझाता, वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं. सड़क पर चलती हर लड़की-औरत उन्हें ‘मुन्नी’ और ‘चमेली’ ही नजर आने लगती है. उसके बाद जो होता है, वह चैनलों और अखबारों के लिए दिन भर की खबर बन जाता है.
...और अंत में, स्व सुभाष दशोत्तर की कविता की ये पंक्तियां : हमारी हथेलियां, हमारे कलाइयों के भीतर चली गयी हैं, बाहर असंख्य सुविधाएं हैं, मगर हमारे पास, अब वो उंगलियां नहीं हैं, जिनसे बटन दबता है, ऐसे ही हमारे पांव, हमारी टांगों के भीतर चले गये हैं, अब हम वहां नहीं पहुंच पायेंगे, जहां पांव ले जाना चाहते थे.
इस लिहाज से यह दौर भयावह है. हम अपने चारों तरफ बड़े-बड़े नाखूनों को देख और महसूस कर सकते हैं. इस दौर में पल्लू के नीचे.., मुन्नी बदनाम हुई.. और शीला की जवानी.. जैसे गीत सिनेमा के परदे से उतर गलियों में गूंज रहे हैं. यहां नैतिकता की ठेकेदारी या संस्कृति की झंडाबरदारी का सवाल नहीं है. सवाल सामाजिक है. इस तरह के गीत, संवाद या दृश्य किस समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं? क्या इन गीतों, संवादों और दृश्यों का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किस समाज को गढ़ने की कोशिश की जा रही है? कौन-से आदर्श स्थापित किये जा रहे हैं?
चूंकि ‘पुरवइया’ से ज्यादा हमें ‘पछुआ’ पवन भाती है, इसलिए जो भी झोंका वहां से आता है, हमारे मन को खूब सुहाता है. शायद यह उन 200 बरसों का असर हो? हम कहां सोच पाते हैं कि झोंका अगर बवंडर बन गया? तो हमारी सारी जड़ें उखाड़ देगा. एक विज्ञापन के मुताबिक कोई विशेष शेविंग क्रीम चुंबन के लिए ही लगायी जाती है. अगर गौर किया हो तो एक विज्ञापन हम सबको चॉकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है. बात समझने में देर नहीं लगती कि हम क्या कहना और करना चाहते हैं. एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है.
एक से जी नहीं भरता, ये दिल मांगे मोर जैसे जुमले जब बच्चों और युवाओं के कानों में पड़ते हैं, तो उन्हें इनका अर्थ कोई नहीं समझाता, वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं. सड़क पर चलती हर लड़की-औरत उन्हें ‘मुन्नी’ और ‘चमेली’ ही नजर आने लगती है. उसके बाद जो होता है, वह चैनलों और अखबारों के लिए दिन भर की खबर बन जाता है.
...और अंत में, स्व सुभाष दशोत्तर की कविता की ये पंक्तियां : हमारी हथेलियां, हमारे कलाइयों के भीतर चली गयी हैं, बाहर असंख्य सुविधाएं हैं, मगर हमारे पास, अब वो उंगलियां नहीं हैं, जिनसे बटन दबता है, ऐसे ही हमारे पांव, हमारी टांगों के भीतर चले गये हैं, अब हम वहां नहीं पहुंच पायेंगे, जहां पांव ले जाना चाहते थे.
आपने पोस्ट लिखी ,हमने पढी , हमें पसंद आई , हमने उसे सहेज़ कर कुछ और मित्र पाठकों के लिए बुलेटिन के एक पन्ने पर पिरो दिया । आप भी आइए और मिलिए कुछ और पोस्टों से , इस टिप्पणी को क्लिक करके आप वहां पहुंच सकते हैं
जवाब देंहटाएंअपने लिंक में शामिल करने के लिए धन्यवाद अजय जी.
हटाएंनाखून मनुष्य की आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है, जो बार-बार बढते हैं और आधुनिक मनुष्य उन्हें हर बार काट कर हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है. जीवन में ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों से आये दिन हमारा साबका पड़ता है. सभ्य समाज इनको नियंत्रित करने की कोशिश करता है. साधु-संत बुराइयों से दूर रहने के उपदेश देते हैं. सरकारें भी इन्हें रोकने के लिए कानून बनाती हैं. इसे एक तरह से नाखून काटना माना जा सकता है
जवाब देंहटाएंअशब्द जी आपके पास तो शब्द ही शब्द हैं आप अशब्द कैसे ......?
बहुत अच्छा लिखते हैं ....बधाई ....!!
हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया हरकीरत जी
हटाएंAchary ke likhe shabd aane wale Samay ki chetawni hain ... Jitni tezi se moolyon ka haas huva hai ... Har Jagah aaj spasht dikhai de raha hai ... Sambhalte Sambhalte Bhi Shayad daraaren pad jayen ...
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही फरमा रहे हैं आप
हटाएं