शनिवार, 2 नवंबर 2013

रिश्तों की मिठास : कुछ खास है, कुछ बात है

वर्षो बीत गये दीपावली और छठ में घर गये. जब भी यह अवसर आता है, घर की बहुत याद आती है. याद आती है इस त्योहार के उत्साह की, उमंग की, सामूहिकता की और बचपन की भी. जीवन की आपाधापी में आप चाहे जितना भी आगे चले जायें, मन में एक कोना ऐसा अवश्य होता है जहां जिंदगी के कुछ खुशनुमा पलों की यादें रची-बसी होती हैं.  ये यादें ऐसी धरोहर होती हैं, जो आपके जमीर को मरने नहीं देतीं. ये यादें ही जमीर को जिंदा रखती हैं और आपको ऊर्जावान व संजीदा बनाये रखती हैं. अभी शहर से लेकर गांव तक दीपावली-धनतेरस को लेकर बाजार गरम है. कोई साजो-सामान खरीद रहा तो कोई गिफ्ट,  कोई पूजा-पाठ की तैयारियों में मग्न है तो कोई व्यापार में तल्लीन. प्रशासन चाहे कितना भी आगाह कर ले, लाखों-करोड़ों रुपये के पटाखे हवा में उड़ाये जाएंगे. यह जानते हुए भी कि यह न सिर्फ पैसे की बरबादी है बल्कि प्रदूषण की वजह भी. कोई मानता नहीं है. मेरी बेटी तेज आवाज वाले पटाखों से तो डरती है पर फुलझड़ी और रंग-बिरंगी रोशनी वाले आइटम उसे बेहद पसंद हैं. मुङो याद है, मैंने भी बचपन में खूब पटाखे चलाये हैं. छोटे चाचाजी (काका) कोलकाता से मेरे लिए ‘स्पेशल’ पटाखे लाते थे. साथ में ढेरों टॉफियां भी, जिन्हें मैं मित्रों को भी खिलाता था. हम सफल होने की जल्दबाजी में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज खो रहे हैं वह है रिश्ते-नाते. आप सफलता की चाहे जितनी सीढ़ियां चढ़ लें, कुछ रिश्ते आपको सदा ही लुभाते हैं. मेरे बचपन की स्मृतियों में भी कुछ ऐसे ही रिश्ते बसे हैं. मैं अपने पिताजी के बजाय चाचा लोगों के बहुत करीब रहा. पेशे से शिक्षक रहे बड़े चाचाजी से मिला अपार स्नेह आज भी मेरी जिंदगी की धरोहर है. मैं सोचता हूं क्या हम अपने बच्चों को संयुक्त परिवार के स्नेह की वह खुशबू दे पा रहे हैं! एकल परिवार की व्यवस्था में यह सब शायद एक सपने की तरह है. भाई और बहनों से भरा-पूरा परिवार, दादी का लाड़-प्यार सब कुछ आज एक सपना ही तो है. छठ के अवसर पर मां के हाथ का बना ठेकुआ का स्वाद आज के किसी भी महंगी मिठाई में मिलना नामुमकिन है. मां के साथ शाम और सुबह के अघ्र्य के वक्त छठ घाट जाने में जो खुशी मिलती थी वह किसी पर्यटन स्थल पर जाकर हासिल नहीं हो सकती. रिश्तों के स्मरण की बात चल रही है तो एक हालिया घटना का जिक्र छेड़ना जरूरी हो जाता है. चार दिन पहले की बात है, रायपुर में रह रहे मेरे बचपन के एक मित्र सुबोध (राणा) ने फोन किया. बोला पहचान रहे हो या नहीं? मैं थोड़ी देर के लिए हतप्रभ रह गया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या प्रतिक्रिया दूं. अचानक से ढेर सारी स्मृतियां उमड़ने-घुमड़ने लगी. लंबी बातचीत के बाद मैंने उसे फोन करने के लिए धन्यवाद दिया. वाकई, रिश्तों का रिनुअल करना कितना अच्छा है, जरूरी है! आइये, इस दीपावली एक खूबसूरत पहल करें.

1 टिप्पणी:

  1. पाव पाव दीपावली, शुभकामना अनेक |
    वली-वलीमुख अवध में, सबके प्रभु तो एक |
    सब के प्रभु तो एक, उन्हीं का चलता सिक्का |
    कई पावली किन्तु, स्वयं को कहते इक्का |
    जाओ उनसे चेत, बनो मत मूर्ख गावदी |
    रविकर दिया सँदेश, मिठाई पाव पाव दी ||


    वली-वलीमुख = राम जी / हनुमान जी
    पावली=चवन्नी
    गावदी = मूर्ख / अबोध

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