शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

पापा जल्दी मत आना

रांची से टाटा आ रही एसी बस में यात्र कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है. आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं. पर वे बिल्कुल जमाने से बेपरवाह. चांडिल आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है. ‘पापा हैं’, युवती युवक से कहती है. ‘जी पापा, बस अभी-अभी खुली है. आप बस स्टैंड आराम से मुङो लेने आना.’ लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं. उसने अपने पापा से झूठ बोला है. वह जमशेदपुर के इतने करीब पहुंच चुकी है और खुद को रांची में बता रही है. युवक, ‘तुमने पापा को अच्छा उल्लू बनाया.’ लड़की मुस्कुराती है.

यह महज एक वाकया नहीं बल्कि भविष्य का वह डरावना सच है जिसे स्वीकार करते हुए हमें हिचकिचाहट हो सकती है. क्योंकि हर पिता सिर्फ और सिर्फ यही सुनने का आदी है ‘पापा जल्दी आना.’ और नयी पीढी की यह सोच - पापा जल्दी मत आना..यहां तुमसे भी जरूरी कोई है. जिसके साथ मैं अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती/चाहता हूं. तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है. पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना..

आप मानिये या न मानिये समाज बहुत आगे निकल चुका है. आज पांच बरस के बच्चे को भी गले लगाते हुए डर लगता है. एक शिक्षक ने बताया ‘क्लासरूम में बच्चियां कहती हैं कि आप हमें बेटा क्यों कहते हैं सर.’ रिश्ते असहज हो रहे हैं. समय से पहले फल पक जाए तो स्वाद और सेहत दोनों ही पैमाने पर खरा नहीं उतरता. योग की कक्षाओं के लिए बहस भले न छिड़े, लेकिन यौन शिक्षा पर खुद को बुद्धिजीवी समझने वाला हर व्यक्ति इसकी पैरवी करता नजर आता है. इस पक्षधरता से वह अपने-आप को अभिजात्य और अधिक समझदार होने का दंभ भर सकता है.

आप कागज पर कानून बनाते रहिए और समाज की बखिया उघेड़ते रहिए. नतीजा वही होगा जो सामने है. ऊंचाई पर चढना और वहां अड़ना बहुत मुश्किल है. आसान है वहां से गिरना. यह समाज जिस रास्ते चल पड़ा है, उससे आगे का रास्ता भले चमकीला दिख रहा हो, लेकिन यह अंधेरे से पहले की चमक है. बहुत-से बुद्धिविलासियों को यह बात निगलने में मुश्किल होगी, लेकिन यह सच है. अब नानी-दादी की कहानियों का संबल नहीं है. चाचा-मामा तो अतिथियों की सूची में आ गए हैं. कौन संभालेगा इस टूटते-दरकते और बिखरते परिवार को, जो एक खोखले होते समाज की सबसे छोटी इकाई है! जब बचपन ‘पालना घर’ में और बुढापा ‘वृद्धाश्रम’ में बीतने लगे तो सोचने का समय है. बाजार हमें इसलिए तोड़ रहा है क्योंकि उसके लिए हम केवल उपभोक्ता हैं.

5 टिप्‍पणियां:

  1. अब नानी-दादी की कहानियों का संबल नहीं है. चाचा-मामा तो अतिथियों की सूची में आ गए हैं. कौन संभालेगा इस टूटते-दरकते और बिखरते परिवार को, जो एक खोखले होते समाज की सबसे छोटी इकाई है!

    आज की सच्चाई को कहती पोस्ट .... विचारणीय

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  2. जब बचपन ‘पालना घर’ में और बुढापा ‘वृद्धाश्रम’ में बीतने लगे तो सोचने का समय है.
    सिर्फ सोंच ही सकते हैं अभी !!

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