आखिरकार इस सचाई से मुलाकात कर ही ली कवि त्रिलोचन ने। अपने भोपाल आगमन के दौरान वर्ष 2000 में एक लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था- 'मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में भी कवि ही बनूं। कवि होना पूर्व जन्मों का संस्कार है, ताप, संताप और आरोह-अवरोध आदि इसके मार्ग में बाधक बन ही नहीं सकते। जनसरोकारों के लिए सदा समर्पित और मानवीय मूल्यों पर केंद्रित कविता की रचना करना मेरा कर्म है।यह भाव उनकी इन पंक्तियों में साफ झलकता है -
कविताएं रहेंगी तो/ सपने भी रहेंगे/ कविताएं सपनों के संग ही/ जीवन के साथ हैं / कभी-कभी पांव हैं/ कभी-कभी हाथ हैं /त्रिलोचन जी के बारे में प्रख्यात कवि अशोक वाजपेयी की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- 'त्रिलोचन हिंदी के संभवत: सबसे गृहस्थ कवि हैं, इस अर्थ में कि हिंदी भाषा अपनी जातीय स्मृतियों और अनंत अन्तध्र्वनियों के साथ, सचमुच उनका घर है। वे बिरले कवि हैं जिन्हें यह पूरे आत्मविश्वास से कहने का हक है कि पृथ्वी मेरा घर है / अपने इस घर को अच्छी तरह/ मैं ही नहीं जानता। त्रिलोचन कि कविताएं साधारण चरित्र या घटना या विम्ब को पूरे जतन से दर्ज कराती हैं मानों सब कुछ उनके पास-पड़ोस में है।
मैंने जितना उनको पढ़ा व जाना है उसके आधार पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि लंबे समय से हिंदी साहित्य को बाबा का-सा संरक्षण प्रदान करने वाले और न जाने कितने पोतों को साहित्य की बारह खड़ी में पारंगत करने वाले त्रिलोचन शास्त्री कविता को जीने वाले कवि थे। तुलसी और निराला की कविता की परंपरा को आगे ले जाते हुए उसे नई ऊंचाई देने वाले त्रिलोचन का विराट रूप 'पृथ्वी से दूब की कलाएं लो चार/ऊषा से हल्दिया तिलक लो /और अपने हाथों में अक्षत लो/पृथ्वी आकाश जहां कहीं/तुम्हें जाना हो, बढ़ो! बढ़ो!!Ó इन पंक्तियों में झलकता है। उनकी कविता की गति में जीवन का सार छिपा रहता था और विकास के सोपान भी। 'शहरों में आदमी को आदमी नहीं चीन्हता/ पुरानी पहचान भी बासी होकर बस्साती है/ आदमी को आदमी की गंध बुरी लगती है/ इतना ही विकास मनुष्यता का अब तक हुआ है...
कुछ लोग यह मानते हैं कि त्रिलोचन एक अत्यंत सहज व सरल कवि है बहुत कुछ अपने व्यक्तित्व की तरह। पर सच्चाई यह है कि त्रिलोचन एक समग्र चेतना के कवि हैं, जिनके अनुभव का एक छोर यदि 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती जैसी सीधी सरल कविता में दिखायी पड़ता है तो दूसरा 'रैन बसेरा जैसी कविता की बहुस्तरीय बनावट में।
त्रिलोचन ने आत्मपरक कविताएं ज्यादा लिखा हैं। पर यह कविताएं किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएं नहीं है और यही उनकि गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। तभी तो उनके मुंह से बेलाग और तिलमिला देने वाली पंक्ति निकलती है 'भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल/ जिसको समझे था है तो यह फरियादी। अपने प्रति यह अचूक निर्मम दृष्टि समकालीन साहित्य में कम ही मिलेगी।
त्रिलोचन के सॉनेटों के बारे में बहुत कुछ कहा-सुना गया है। परंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की टिप्पणी उल्लेखनीय है - 'सॉनेट जैसे विजातीय काव्यरूप को हिंदी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने एक ऐसी नयी काव्य विद्या का आविषकार किया है जो लगभग हिंदी की अपनी विरासत बन गयी है।शब्दों की जैसी मितव्ययिता और शिल्पगत कसाव उनके सॉनेटों में मिलता है, वैसा निराला को छोड़कर आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।
उनकी कविताएं पढ़कर और परिचित साहित्यकारों से त्रिलोचन जी की सादगी व सहजता के बारे में मैंने जितना सुन रखा था उससे कहीं अधिक पाया। उनके भोपाल प्रवास के दौरान मैं जब अपने मित्र रंजीत प्रसाद सिंह (जो अभी हिंदी दैनिक प्रभात खबर, जमशेदपुर में हैं) के साथ त्रिलोचन जी से मिलने पहुंचा तो उनके द्वारा दिए समय से चालीस मिनट विलंब हो चुका था। गेस्ट हाउस के कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने कहा- 'मुझे लग रहा था तुम लोग अब नहीं आओगे। aarambh में तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बात शुरू कैसे करूं? मेरी मन: स्थिति को वे भांप गए और बात उन्होंने ही शुरू कर दी। हमारी पढ़ाई से लेकर पारिवारिक पृष्ठभूमि तक की बात पूछ डाली। अब तक मैं सहज हो चुका था। फिर धीरे-धीरे उनके रचनाधर्म से लेकर निजी अभिरुचियों तक पर घंटों बातें होती रही। मैंने महसूस किया कि जब भी उन्हें यह लगता कि मैं बातचीत में असहज महसूस कर रहा हूं वे कोई रोचक प्रसंग सुनाने लग जाते।
मैंने जब उनसे यह कहा कि विगत अस्सी वर्षों में दुनिया बहुत बदल गई है, समाज और परिवार बदल गए हैं। आप इस बदलाव को किस रूप में महसूस करते है? उनका जवाब था 'परिवेश, देश, काल, पात्र जितने भी बदल जाएं लेकिन भीतर से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं । इस देश में भी उस महाभारत युग से लेकर आज तक मनुष्य का रूप बदला नहीं है।
तभी त्रिलोचन को सृजनकाल में कभी कोई थकान नहीं दिखा। कोई पुनरावृति नहीं दिखी, बल्कि दिनोंदिन उसमें निखार ही आता गया। ऐसी शख्सियत का गतायु होना महज आत्मा का शरीर को त्यागना भर नहीं है, बल्कि साहित्य को एक सोपान का ढहना भी है। भाषा की समस्त गूंजों और अनुगूंजों को बखूबी जानने वाले और एक रचनाकर की हैसियत से उनके प्रति गहरा सम्मान का भाव रखने वाले त्रिलोचन का शरीर ही तो नहीं रहा, उनकी कविता में मौजूद भाषा के विविध धरातल तो अखंड है।
नई पीढ़ी को समर्पित उनकी पंक्तियां- 'कोई देश/ तुम्हारी सांसों से जीवित है/ और तुम्हारी आंखों से देखा करता है/ और तुम्हारे चलने पर चलता रहता है/ मनोरंजनों में है इतनी शक्ति तुम्हारे/ जिससे कोई राष्ट्र/ बना-बिगड़ा करता है/ सदा-सजग व्यवहार तुम्हारा हो/ जिससे कल्याण फलित हो...
(कवि त्रिलोचन के अवसान के तत्क्षण बाद मैंने श्रद्धांजलि स्वरुप यह संस्मरण लिखा था।)
त्रिलोचन से मिलने के दौरान मैं भी अखिलेश के साथ था. लेकिन अपनी अल्पस्मृति के कारण जिस डिटेल्स के साथ अखिलेश ने बात की है, उतना मुझे स्मरण नहीं. लेकिन वह चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने साफ-साफ दिखता है. मुझे उनके शब्दों से ज्यादा उनकी आंखों ने आकर्षित किया था. वैसी आंखें, जो दुनिया घूम चुकी थी. खिलंदड़ीपन ने उनकी दाड़ी का आकर्षण कई गुणा बढ़ा दिया था. “स्वदेश‘ फिल्म में मास्टरजी के व्यक्तिव में मैंने बहुत कुछ त्रिलोचन को देखा. इन वर्र्षों में उनसे कभी नहीं मिला. लेकिन आज भी हमें देखतीं एक अभिभावक और मार्गदर्शक की वह दोनों आंखें मुझे हौसला देती है.
जवाब देंहटाएंरंजीत