सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

पत्रकारों की पत्नियाँ

समाज सुधार का संकल्प लिए
रातों-दिन काम में जुटे बेपरवाह
ये आज के हिंदी पत्रकार
घर-बार की चिंताओं से परे
उन्मुक्त रूप से ठहाके लगाते हुए
अपनों से दूर कई दिनों से
लेकिन सबको अपनापन देते हुए
ये आज के हिंदी पत्रकार
वे तरस खाते हैं हर दुखी औरत पर
छापते हैं उसकी बड़ी सी तस्वीर
समझते हैं खुद को शोषितों की आवाज़
संवेदनाओं के साझीदार
पर उनके इस समूचे कार्य-व्यवहार से
नदारद है तो केवल इन पत्रकारों की पत्नियाँ
और उनके मुरझाये चेहरे
जिसने संभाल रखी है पूरी गृहस्थी
हाथों में सब्जी का थैला/बच्चों का स्कूल बैग
बिजली-पानी का बिल/ मेडिसिन की पर्ची
उनके मुरझाये चेहरे पर
अब असर नहीं करता कोई fair an lovely
पत्रकारों की पत्नियों को नहीं मालूम
मिस्र में हो गया है सत्ता परिवर्तन
अब यह आग दुसरे मुल्को में भी फ़ैल रही है
संसद में ख़त्म हो गया है जे पी सी पर गतिरोध
मलकानगिरी में नक्सली मांग रहे दो के बदले ७०० की रिहाई
कसाब कैसे बच सकता था फांसी से
वे तो इससे से भी बेखबर हैं की उनके इस अज्ञानता की
उड़ाई जा रही खिल्ली इस समय
पत्रकारों द्वारा शराब पीते हुए.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर रचना, सभी काम करने वालो का जो अपने परिवार से दुर रहे हे , सभी का हाल कुछ ऎसा ही होता हे, धन्यवाद

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  2. उघार दिया गुरू। नंगा कर दिया। चुपके चुपके। लगता है बहुत झेलना पड़ता है।

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  3. lagta hai kalam fir se chal padi hai, lekin is baar bach ke rahna padega, khair manayen ki bharat me abhi tak INTERNET USERS ki sankhya kam hai, varna........

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