ब्रह़मचर्य के प्रयोग की हठधर्मिता और इसके साइड इफेक्ट से बवंडर खडा हो गया जिसके कारण गांधीजी का पूरा परिवार अशांत हो चुका था। बिनोबा भावे, काका कालेलकर और नरहरि पारिख जैसे उनके घनिष्ठ सहयोगियों ने विरोध-स्वरूप हरिजन के संपादक मंडल से त्यागपत्र दे दिया। इनमें से कई ने उनके ब्रह़मचर्य के प्रयोग को अधर्म कहा, कई ने इसे शीघ्र रोक देने की सलाह दी। जयप्रकाश नारायण, जीवराज मेहता, आचार्य कृपलानी, निर्मल कुमार बोस आदि ने गांधीजी के खिलाफ घोर असहमति दर्ज करायी। इतना ही नहीं गांधीजी की कई नजदीकी महिला मित्रों ने भी उन्हें अपने चुने हए रास्ते का त्याग कर देने के लिए समझाया। आश्रम के बाहर-भीतर अब तक यह बात फैल चुकी थी। कई तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में यह सुर्खियां भी बनी। पर सबसे संयमित रहे जवाहरलाल नेहरू। उन्होंने इस मामले में खुद को एकदम अलग रखा। लेकिन अपनी प्रिजन डायरी की 30 अप्रैल 1935 की प्रविष्टि में उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही, जो बापू के चरित्र-चित्रण के प्ररिप्रेक्ष्य में बिल्कुल निशाने पर लगने वाले तीर की तरह थी- बापू भी या तो असहयोगी हैं या पूर्ण असहयोगी। उनकी सोच केवल अतिवादी ही होती है। इस सबने बापू को थका दिया। वे टूट गये। साबरमती अब उनके लिए दूसरा घर नहीं रह गया था। अनुभव का भव्य महल ढह गया था। उन्होंने अपने एक सहयोगी को पत्र लिखकर अपनी इस पीडा का वर्णन किया- भगवान ही जानता होगा कि अब मैं फिर कहां फेंक दिया जाने वाला हूं।
सामान्य वैवाहिक या दाम्पत्य संबंध गांधीजी की दृष्टि में निषिद़ध थे। इस सबका उद़देश्य जीवनदायिनी वीर्य की रक्षा करना था। उसका कभी उपयोग नहीं करना था। वे वीर्य को ईश्वर का वरदान मानते थे, जिसे हर हालत में परिरक्षित, भंडारित और सुरक्षित रखना था। हालांकि चिकित्सा शास्त्र इस बात को बकवास बताता है। गांधीजी को इस बात से बहुत चिंता होती थी कि अनजाने ही उनका वीर्यपात हो जाता था। अनजाने में हुए वीर्यपात और गंदे सपनों की चर्चा उन्होंने कई बार अपने राजदार महिला मित्रों से की। वे इस बात से बहुत दुखी थे कि 60 और 70 के पार की उम्रों में इस तरह उनका वीर्य-स्खलन हुआ। इस तरह के प्रसंग सामान्य और स्वस्थ व्यक्ति के जीवन में होते ही रहते हैं लेकिन गांधीजी के लिए यह उनके ब्रह़मचर्य के अभ्यास में रह गए दोष का परिचायक था। ज्यादा काम करने से पक्षाघात से पीडित हो जाने के बाद गांधीजी को मुंबई जाना पडा। वहां आराम ही आराम था। वहां उन्होंने एक दारुण अनुभव किया। इसका जिक्र उन्होंने अपनी मित्र प्रेमाबहन कंटक से किया। गांधीजी ने उनसे स्वीकार किया कि - मेरा स्खलन हो गया, लेकिन मैं जगा हुआ था और मेरा मन मेरे नियंत्रण में था। बाद में उन्होंने इसे अनिश्चित दुर्घटना बताते हुए उसे अनिश्चित स्खलन कहा। उन्होंने प्रेमाबहन को लिखे पत्र में बताया कि अनिश्चित स्खलन उन्हें हमेशा होता रहा है। दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान कई-कई साल के अंतराल से होता था। मुझे ठीक से याद नहीं। यहां भारत में महीनों के अंतराल से होता रहा है। उन्होंने दुखी लहजे में आगे लिखा कि अगर मेरा जीवन स्ख्लनों से पूर्णत मुक्त होता तो मैंने दुनिया को जितना दिया है उससे ज्यादा दे पाता, लेकिन जो व्यक्ति 15 से 30 वर्ष की आयु तक विषय-भोग में, भले ही अपनी पत्नी के ही साथ लिप्त रहा हो वह इतना जल्द इस पर नियंत्रण कर पायेगा इसमें मुश्किल लगता है। जारी-----
यह अंश गिरजा कुमार लिखित Brahmcharya Gandhi and His Women Associates नामक पुस्तक से साभार है। इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद विटास्टा पब्िलिशंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली ने महात्मा गांधी और उनकी महिला मित्र शीर्षक से प्रकाशित किया है। मित्रों जिन लोगों ने इस पुस्तक का अंग्रेजी या हिंदी वर्जन पढा है उनके लिए पुनर्स्मरण के तौर पर और जो अभी तक नहीं पढ पाये हैं उन्हें पढने को प्रेरित करने के उद़देश्य से इस पुस्तक के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
ek satya vakta ke satya nitant vyaktigat vichaar jo har koi chipaana chahega yeh gandhi ka satya ke prati anuraag hi hai jo unhone itni bebaki se ise sweekar kar kaha hai
जवाब देंहटाएंsatya ke prati anurag ne hi ve mahatama ki shreni me hain
यह सब बापू की सनक ही थी। वैसे हर महान में कोई न कोई सनक होती है। जिसमें न हो वह किर्रू।
जवाब देंहटाएंगाँधीजी हर बात में अति करते थे.
जवाब देंहटाएंमैंने ऐसा किसी विज्ञान की पुस्तक में नही पढ़ा है ..की वीर्य की रक्षा से इन्सान में किसी तरह की शक्ति आती है. यह सिर्फ एक अन्धविश्वास है. अगर आपके पास कोई साबुत हो तो दें मैं देखना चाहूंगी.
जवाब देंहटाएंलवली जी,
जवाब देंहटाएंवीर्य की रक्षा से इन्सान में किसी तरह की शक्ति आती है!
यह गांधीजी का मानना था। मेरा नहीं।
मैंने उसी लाइन के नीचे यह भी लिखा है कि हालांकि चिकित्सा शास्त्र इस बात को बकवास बताता है। धन्यवाद।