यह कटू सत्य है कि समाज के सामान्य लोग लेखकों, पत्रकारों पर पूर्ण रुप से विश्वास नहीं करते। यही वजह है कि हमेशा ही इनकी निजी जिंदगी के बारे में लोग बडे ही उल्टे-पुल्टे सवाल करते हैं। वे यह जानने को इच्छुक होते हैं कि क्या निजी जीवन में भी इनका व्यवहार नाटकीय, इनकी भाषा प्रभावशाली और रहन-सहन इनके पात्रों जैसा ही होता है। दो लेखक या पत्रकार जब मिलते हैं तो क्या बाते करते हैं। क्या ये भी अपने परिवार व बच्चों से उतना ही प्यार करते हैं। अभिभावक या जीवनसाथी के रुप में लेखक-लेखिका व पत्रकार कितना भरोसेमंद होते हैं। मेरे एक मित्र ने बताया कि उसकी पत्नी से उसकी एक सहेली ने पूछा- आपके पति आपसे प्यार कब करते हैं। मेरी समझ में यह सवाल इनोसेंट न होकर एक खतरनाक है।
यह विडंबना नहीं तो क्या है कि समाज को दिशा दिखाने का दंभ भरनेवाले एक वर्ग विशेष के प्रति लोगों की ऐसी धारणा बन गई है। वे इनके मूल चरित्र को ही नहीं समझ पाते हैं। वे इस उलझन में सदैव रहते हैं कि यह आदमी जैसा दिखता है क्या वैसा ही है। हो भी क्यों नहीं, लोगों को पता है कि जब दो चित्रकार मिलते हैं तो वे अपनी कला आदि पर चर्चा करते हैं। दो संगीतकार मिलते हैं तो वे भी स्वरों, साजों आदि पर खूब विचार-विमर्श करते हैं पर इसके विपरीत जब एक से अधिक लेखक या पत्रकार कभी-कभार मिलते हैं तो इसके पीछे अक्सर या तो विशु़दध उत्सुकता होती है या फिर दूसरे के प्रति गहरी सराहना का भाव। वरना सामान्यत: एक साथ बैठने पर वे परस्पर वैमनस्य का ही प्रदर्शन करते हैं। एकाध उन खास अवसरों को छोडकर जब उन्हें एक-दूसरे के प्रति स्वार्थ न दिख रहा हो। प्राय: तो ये एक-दूसरे की छीछालेदर और टांगखिंचाई में ही अपना कीमती वक्त जाया कर देते हैं।
यही वजह है कि आज भी जिन दिवंगत मूर्धन्य साहित्यकारों के प्रशंसक आराधना करते नहीं थकते हैं उनके बारे में उनकी ही बिरादरी के लोग ओछी जानकारियों को यदा-कदा एक-दूसरे से शेयर कर अपनी मूर्खतापूर्ण जानकारी का परिचय देने से भी नहीं चूकते। जैसे- प्रेमचंद सूद पर रुपया देते थे, जैनेंद्र स्वेच्छाचार के हिमायती थे,भारतेंदू ने अपने बाप-दादों की कमाई तवायफों के पास आने-जाने में खूब उडाई, शरतचंद्र व्याभिचारी थे आदि-आदि। कई किस्से तो आज के नामी-गिरामी साहित्यकारों पर भी मशहूर हैं। जैसे- फलां आलोचक के विवाहेत्तर संबंध हैं, फलां कवि की पत्नी फलां प्रकाशक की रखैल है।
मेरी समझ में पत्रकारों, लेखकों का वर्ग अपने मित्रों व अपने पूर्वज या वरिष्ठ साहित्यकारों के बारे में जब तक इस तरह की बेहूदा कमेंट या मनगढंत बातें करता रहेगा लोग भी इनके बारे में उल्टी-सीधी धारणा बनाते रहेंगे। क्योंकि निजी यौन जीवन से आगे भी बहुत सी बातें ऐसी हैं जिसपर चर्चा की जा सकती है, की जानी चाहिए। ताकि किसी पत्रकार की पत्नी की सहेली उससे उसके पति पर संदेह करते हुए सवाल न कर सके। ताकि शराबी चरित्र के नायक की कहानी पढते हुए कोई पाठक कहानीकार के बारे में ऐसा न सोचे कि आखिर कितनी पैग शराब पीकर यह कहानी लिखी गई होगी। किसी बेस्टसेलर उपन्यास के बारे में किसी के मन में यह सवाल पैदा न हो कि आखिर कितनी महंगी कलम से किस स्टैंडर्ड के कागज पर यह लिखा गया होगा।
माननीय महोदय/महोदया
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन
आपके ब्लाग की प्रस्तुति ने अत्यधिक प्रभावित किया। पत्रिकाओं की समीक्षा पढ़ने के लिए मेरे ब्लाग पर अवश्य पधारें।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथाचक्र
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बिल्कुल ठीक। कहते हैं कि-
जवाब देंहटाएंअपना अवगुण नहीं देखता अजब जगत का हाल।
निज आँखों से नहीं सूझता सच है अपना भाल।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सहमत।
जवाब देंहटाएंमैने तो कुछ बुद्धिजीवियों की बहस इतनी घटिया स्तर की देखी है कि मन क्षुब्ध हो जाता है। अभी एक हिन्दी साहित्य की पत्रिका के बन्द हो जाने पर कुछ ऐसा ही घिनौना वार्तालाप पढ़ने को मिला था। आपकी चिन्ता जायज है।
जवाब देंहटाएंगासिप तो हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार है- साहित्यकार या पत्रकार ही क्यों? यह सही है कि इसी गासिप से साहित्यकार को लेखनी के लिए और पत्रकार को पत्रिका के लिए मसाला मिलता है।
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