शुक्रवार, 6 मार्च 2009
नारी मुक्ति या देह मुक्ति
हिंदी के कुछ काम कुंठित स्त्री चिंतक व विचारक सेक्स की मुद्रा बनाकर सेक्स मुक्ति में ही स्त्री मुक्ति का महामंत्र खोजने में लगे हैं। संयोग से कुछ प्रतिभाग्रस्त लेखिकाएं अपने लेखन को इसी के आग्रह पर फार्मूलाबद्ध कर रही हैं, जिसे कुछ पत्रिकाएं समकालीन बेबाक स्त्री लेखन का प्रतिमान बना रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम हिंदी की कुछेक साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठों पर जिस स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति आदि का मानचित्र देख रहे हैं, दरअसल, वह तथाकथित बुद्धिजीवियों की उन मनोग्रन्थियों के विकार से बन रहा है, जो समाज की हर स्त्री को उन्मुक्त आकाश देकर लगभग पोर्न स्टार बना देने को लिए आतुर हैं।बढ़-चढ़कर लिखे गये यौन अंतरंगताओं के वृतांतों को सर्वाधिक श्रेष्ठ और सफल लेखन का दर्जा दिया जा रहा है। साहित्य के ऐसे स्वघोषित नारीवादी रचनाकार स्वयं को नारी मुक्ति का झंडाबरदार मानने लगे हैं। वे देह मुक्ति की पताका को ऐसे लहरा रहे हैं जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका की चुनरी।मेरा सवाल यह है कि क्या स्त्री की सारी लड़ाई पुरुष के समकक्ष खड़ा होने में है और वही सब करने-लिखने में है जो पुरुष करता है? फिर तो स्त्री की समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए। तथाकथित स्त्री विमर्शकार की भी यही मंशा है कि स्त्री उसी की भाषा में वही बोले, जो वह सुनना चाहता है। वही लिखे, जैसा वह लिखवाना चाहता है। क्या स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती? क्या स्त्री को मात्र देह के रूप में देखने वाले ऐसे रचनाकारों को स्त्री विमर्श करने का अधिकार दिया जाना चाहिए?अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ब्लाग लिखने-पढऩे वालों से उपरोक्त सवाल समझदारी व ईमानदारी से जवाब मांग रहे हैं।
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स्त्री मुक्ति का सवाल बेहद व्यापक है।
जवाब देंहटाएंदेह उसका एक हिस्सा है पर न तो उत्स ना ही अन्त्। एक तरफ़ देहवादी विमर्श उसे जीन्स बनाने पर तुला है तो दूसरी तरफ़ धर्म सँस्कृति के नाम पर उसे फिर से चूल्हे चौके और बिस्तर तक क़ैद करने की साजिश ज़ारी है। धर्म और बाज़ार दोनो स्त्री के शत्रु हैं ।
रास्ता कोई और है।